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हाईकोर्ट आदेश के बाद भी बहाली नहीं: दुर्ग नगर निगम में प्रशासनिक मनमानी, आरोप-प्रत्यारोप और बढ़ता अविश्वास ? Featured

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शौर्यपथ विशेष रिपोर्ट

दुर्ग नगर निगम इन दिनों उस प्रशासनिक विवाद के केंद्र में है जिसने न केवल स्थानीय शासन की कार्यशैली पर गंभीर प्रश्न खड़े कर दिए हैं, बल्कि यह भी दिखाया है कि एक ग्रेड-03 कर्मचारी और निगम आयुक्त के बीच का संघर्ष किस तरह सीधे-सीधे माननीय उच्च न्यायालय तक पहुँच गया। पूरे मामले की जड़ एक बहाली आदेश के अनुपालक न होने, दर्जनों नोटिसों की बाढ़, जातिगत भेदभाव के आरोप और निगम में अन्य मामलों में दिखी प्रशासनिक निष्क्रियता को लेकर है।
इस विशेष रिपोर्ट के लिए उपलब्ध कराए गए दस्तावेज़ों, अदालत आदेशों और विभागीय पत्रों का गहन अध्ययन बताता है कि विवाद सतही नहीं है—यह दुर्ग नगर निगम की आंतरिक कार्यप्रणाली, सत्ता संरचना, राजनीतिक दबावों और प्रशासनिक अनुशासन के बीच गंभीर असंतुलन की ओर संकेत करता है।

कर्मचारी भूपेंद्र गोइरे का संघषर्: निलंबन से लेकर हाईकोर्ट तक
नगर निगम दुर्ग के सहायक वर्ग-03 कर्मचारी भूपेंद्र गोइरे, जिनका नाम पूरे विवाद के केंद्र में है, को 07.08.2025 के आदेश क्रमांक 354 के तहत निगम ने उनके विभागीय दायित्वों से मुक्त कर दिया था। आरोप यह था कि वे पदस्थापना संबंधी आदेशों का पालन नहीं कर रहे थे। भूपेंद्र ने इस आदेश को मनमाना और अप्रक्रियात्मक बताते हुए उच्च न्यायालय की शरण ली।
दिनांक 09.09.2025 को माननीय उच्च न्यायालय बिलासपुर ने रिट याचिका संख्या 10175/2025 स्वीकार करते हुए मामले को सुना और दुर्ग नगर निगम व नगरीय प्रशासन विभाग को निर्देश दिया कि पीडि़त कर्मचारी द्वारा प्रस्तुत आवेदन पर चार सप्ताह के भीतर कार्रवाई सुनिश्चित की जाए।
रिट आदेश के बाद भूपेंद्र ने 11.09.2025 को पुन: अपना आवेदन निगम में प्रस्तुत किया। लेकिन तीन महीने बीत जाने के बाद भी न तो बहाली हुई, न आदेश के अनुपालन का कोई स्पष्ट कारण बताया गया—इसके बजाय, उन्हें लगातार एक-दर्जन से अधिक नोटिस जारी किए गए। भूपेंद्र का कहना है कि यह सब मानसिक दबाव बनाने और बहाली प्रक्रिया को रोकने की सोची-समझी रणनीति का हिस्सा था।

नोटिसों की बाढ़: मानसिक और प्रशासनिक प्रताडऩा का आरोप
उपलब्ध पत्रों के आधार पर साफ दिखाई देता है कि निगम आयुक्त द्वारा लगातार नोटिस जारी किए गए। इन नोटिसों में कर्मियों के खिलाफ नियमों के विभिन्न प्रावधानों के उल्लंघन के आरोप लगाए गए, परंतु भूपेंद्र के जवाबों के बाद भी न तो विभाग ने नोटिसों को निस्तारित किया और न ही आगे की प्रक्रिया स्पष्ट की।
पीडि़त का आरोप है कि:नोटिसों का उद्देश्य उन्हें डराना था, न कि किसी वास्तविक त्रुटि को ठीक करना।नोटिसों में लगाए आरोप अधिकांशत: "तथ्यहीन" थे।बहाली आदेश लागू न करने के लिए नोटिसों को एक ढाल की तरह उपयोग किया गया।यह भी बताया गया कि निगम आयुक्त द्वारा इस पूरे घटनाक्रम में जातिगत भेदभाव किया गया, जिसे पीडि़त ने अपने हलफनामे के साथ हाईकोर्ट के संज्ञान में लाया है।

विवाद का दूसरा पहलू: पत्रकार और निगम आयुक्त के बीच 'समझौताÓ?
भूपेंद्र का कहना है कि एक स्थानीय पत्रकार द्वारा उनके विरुद्ध निरंतर नकारात्मक और भेदभावपूर्ण खबरें प्रकाशित की जाती थीं। जब उन्होंने कानूनी प्रक्रिया प्रारंभ की, तब निगम आयुक्त ने स्वयं उनसे पत्रकार के साथ आपसी समझौता करने के लिए कहा।
भूपेंद्र के अनुसार:उन्होंने आयुक्त के कहने पर समझौता किया। वही सूत्रों से मिली जानकारी अनुसार पत्रकार ने पूर्व में भी कई बार गलत या भ्रामक बातो के लिए माफी मांगी है।
पीडि़त का आरोप है कि जब उन्होंने आयुक्त के निर्देश पर समझौता कर लिया, तब उम्मीद थी कि निगम निष्पक्षता दिखाएगा, लेकिन हुआ उलटा—उन पर और तेजी से नोटिस जारी होने लगे। बड़ा सवाल यह उठता है कि क्या तथाकथित पत्रकार और आयुक्त के मध्य कोई आंतरिक समीकरण था या फिर दबाव? यह मुद्दा अभी भी निगम कर्मचारियों और स्थानीय मीडिया गलियारों में चर्चा का विषय है।

अन्य मामलों में निष्क्रियता: निगम की दोहरी नीति?
कर्मचारी भूपेंद्र के मामले में नोटिसों की तेज़ी और हाईकोर्ट आदेश की अनदेखी के विपरीत, कई ऐसे मामले हैं जिनमें निगम ने कोई कार्रवाई नहीं की।
1.सहायक राजस्व निरीक्षक थान सिंह का मामला
ऐसे ही एक मामले को ले तो सहायक राजस्व निरीक्षक थान सिंह का मामला लोलिपॉप फ्लेक्स/बैनर के भौतिक सत्यापन में लापरवाही बरती गई। इसके बावजूद कोई दंडात्मक कार्रवाई नहीं हुई और ना ही शिकायतकर्ता को शिकायत पर किस तरह की कार्यवाही हुई इस बात की जानकारी विभाग द्वारा प्राप्त हुई
ऐसे कई उदाहर शौर्यपथ समाचार के पास उपलब्ध है जिन मामलो में भेदभाव की निति देखने को मिल रही है वही ग्रेड 3 के कर्मचारी पर निगम की कार्रवाई किसी एक कर्मचारी पर केंद्रित नजर आ रही है जबकि बाकी मामलों में निगम प्रशासन लगभग निष्क्रिय बना रहा।

उच्च अधिकारियों की अनदेखी: क्या पद का दुरुपयोग?
नगरीय प्रशासन एवं विकास विभाग द्वारा जारी कई आदेशों और निर्देशों को भी निगम आयुक्त ने अनदेखा किया। विभागीय नोटशीट में साफ लिखा गया है कि पीडि़त के आवेदन पर जल्द से जल्द निर्णय लिया जाए—लेकिन अनुपालन नहीं हुआ।
इस स्थिति को देखते हुए यह प्रश्न उठना स्वाभाविक है: क्या निगम आयुक्त पद का लाभ लेकर अपनी मनमर्जी चला रहे हैं, या फिर वे किसी राजनीतिक दबाव में रिमोट-कंट्रोल की तरह काम कर रहे हैं? निगम के अंदर कर्मचारियों में यह चर्चा जोर पकड़ रही है कि आयुक्त के कुछ निर्णयों के पीछे किसी बाहरी शक्ति या राजनीतिक हस्तक्षेप का प्रभाव है।
आगे क्या? — कानूनी, प्रशासनिक और संस्थागत प्रभाव
उच्च न्यायालय से आदेशित बहाली यदि समय सीमा में लागू नहीं की जाती, तो यह मामला अब अदालत की अवमानना की दिशा में भी जा सकता है। न्यायालय ने आदेश में यह स्पष्ट किया था कि प्रस्तुत दस्तावेजों के आधार पर निर्णय लिया जाए और किसी पक्ष को अनावश्यक रूप से प्रभावित न किया जाए।
फिलहाल स्थिति यह है कि:कर्मचारी और आयुक्त के बीच संघर्ष और गहरा हो गया है,निगम की प्रशासनिक कार्यप्रणाली की छवि सवालों के घेरे में है,जबकि उच्च स्तरीय प्रशासन को इस पूरे मामले की सम्पूर्ण जानकारी है ।

दुर्ग निगम में 'प्रशासन बनाम कर्मचारी" की जंग
यह विवाद सिर्फ एक आदेश या एक नोटिस की बात नहीं है—यह उस प्रणाली का आईना है जिसमें एक कर्मचारी अपने अधिकारों की रक्षा के लिए अदालत तक जाता है, पर निर्णय के बाद भी उसे राहत नहीं मिलती। जबकि दूसरी ओर निगम प्रशासन पर मनमानी, पक्षपात और आदेशों की अवमानना के गंभीर आरोप लगते हैं। क्या यह मामला प्रशासनिक सुधार की दिशा तय करेगा या फिर उच्च न्यायालय से अब एक और सख्त आदेश आएगा—यह आने वाले दिनों में सामने आएगा। लेकिन इतना तय है कि दुर्ग नगर निगम में यह विवाद अभी खत्म होने वाला नहीं है, बल्कि कई महत्वपूर्ण सवाल छोड़ रहा है जिनके जवाब मिलना आवश्यक है।

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