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आर्थिक मोर्चे पर मुकाबला संभव

ओपिनियन / शौर्यपथ / गलवान घाटी की दुखद घटना के बाद अब देश में कई हिस्सों से चीनी उत्पादों के बहिष्कार की मांग उठने लगी है। ‘बायकॉट चीन’ की मजबूत होती जनभावना के बीच केंद्र सरकार ने भी बीएसएनएल और एमटीएनएल जैसी सार्वजनिक क्षेत्र की दूरसंचार कंपनियों से कहा है कि वे 4जी के लिए चीन की कंपनियों को टेंडर जारी न करें। मगर जिस तरह से नई दिल्ली और बीजिंग के बीच कारोबारी रिश्ते मजबूत हैं, क्या चीन को किनारे करना संभव है? वह भी तब, जब वैश्विक दुनिया में हर देश के हित दूसरे राष्ट्र से जुड़े हुए हैं?
चीन के साथ हमारा कारोबार कई रूपों में होता है। हम उससे पतंग का मांझा, चीनी मिट्टी की मूर्तियां, गुलाल, पिचकारी, दीपावली की झालरें जैसी गैर-जरूरी चीजें भी मंगवाते हैं, और मोबाइल फोन, इंजीनिर्यंरग व इलेक्ट्रॉनिक उत्पादों के जरूरी कल-पूर्जे भी। गैर-जरूरी उत्पादों के विकल्प हमारे पास मौजूद हैं, लेकिन जरूरी वस्तुओं का आयात तब तक नहीं रोका जा सकता, जब तक उसे हासिल करने का दूसरा रास्ता हमारे पास न हो।
इसके अलावा, चीन पर हमारी व्यापारिक निर्भरता बहुत ज्यादा है। दोनों देशों के बीच पिछले साल लगभग 92 अरब डॉलर का आपसी कारोबार हुआ है, जिसमें हमने चीन से आयात ज्यादा किया और निर्यात कम। सरकार के स्तर पर ‘बायकॉट चीन’ इसलिए भी संभव नहीं है, क्योंकि दोनों देश विश्व व्यापार संगठन के कायदे-कानूनों से बंधे हैं। इसलिए अधिकृत रूप से हम टैरिफ, यानी सीमा शुल्क नहीं लगा सकते। मगर हां, नॉन-टैरिफ बैरियर का लाभ जरूर उठाया जा सकता है। इसका अर्थ है कि सरकार प्रत्यक्ष तौर पर कोई बंदिश नहीं लगाएगी, लेकिन वह परोक्ष रूप से आपसी कारोबार प्रभावित कर सकती है।
सवाल है कि यह होगा कैसे? यह तो तभी संभव है, जब लोगों में राष्ट्रवाद की भावना काफी मजबूत हो जाए। आज कोई भी देश खुलकर किसी दूसरे राष्ट्र की मुखालफत नहीं कर सकता, क्योंकि उनमें कई तरह के कूटनीतिक रिश्ते होते हैं। इसीलिए सरकारें टकराव को हरसंभव टालने के उपाय करती हैं। मगर परदे के पीछे से गैर-राजनीतिक संगठनों के माध्यम से राष्ट्रवाद का माहौल बनाकर वे एक-दूसरे को चोट पहुंचाती रही हैं।
वैसे भी, मौजूदा हालात में सैन्य टकराव न तो चीन के हित में है, और न ही भारत के हित में। कोरोना-संक्रमण ने हर राष्ट्र को गंभीर आर्थिक मुश्किलों में झोंक दिया है। ऐसे में, नॉन-टैरिफ बैरियर ही हमारे लिए सही रास्ता है। गैर-जरूरी उत्पादों के बहिष्कार से चीन को चार-पांच बिलियन डॉलर से ज्यादा का नुकसान नहीं होगा, लेकिन इसका संदेश दूर तक अवश्य जाएगा। उसे एहसास होगा कि यदि वह सीमा पर आक्रामक रुख अपनाता है, तो उसे आर्थिक तौर पर इसका नुकसान उठाना पड़ सकता है। उससे भारत जैसा बड़ा बाजार छिन सकता है।
अभी चीन की आर्थिक सेहत भी बहुत अच्छी नहीं है। उसने कोरोना के पहले चरण को भले ही संभाल लिया, लेकिन अब वहां संक्रमण के नए मामले तेजी से पसरने लगे हैं। कोविड-19 के बारे में सही जानकारी छिपाने को लेकर पश्चिमी देश भी उस पर हमलावर हैं। ऐसे में, वह शायद ही कोई नया तनाव बढ़ाना पसंद करेगा। हमारे लिए एक अच्छी बात यह भी है कि दुनिया के तमाम देश अब समझने लगे हैं कि किसी एक मुल्क पर निर्भरता ठीक नहीं है। इसी निर्भरता की वजह से चीन वैश्विक सप्लाई का केंद्र बन गया था। मगर कोरोना-काल में चीन की हालत बिगड़ते ही पूरी दुनिया भी प्रभावित हो गई। अब सभी देश स्थानीय आपूर्ति शृंखला पर अधिकाधिक ध्यान देने लगे हैं। चीन को इसका भी नुकसान होगा। उसके हाथों से अब कई बाजार निकलेंगे। अमेरिका, जापान जैसे कई देशों ने अपनी कंपनियों को वापस अपने देश में बुलाना शुरू भी कर दिया है। इससे आने वाले दिनों में वैश्विक अर्थव्यवस्था पर बड़ा असर पडे़गा।
जब से हमने विश्व व्यापार संगठन के समझौते पर हस्ताक्षर किए हैं, यह एक धारणा बन गई थी कि जितना अधिक कारोबार हम करेंगे, उतनी ही अधिक खुशहाली आएगी। मगर असलियत में यह विकास तब होता है, जब व्यापार दो समान धरातल वाले देशों के बीच हो। भारत और चीन के कारोबारी रिश्ते का भी यही सच है। चीन कई मामलों में हमसे विकसित है। इसकी बड़ी वजह यही है कि उसने तकनीक और प्रौद्योगिकी की तरफ खासा ध्यान दिया। भूमंडलीकृत दुनिया में तकनीक और प्रौद्योगिकी संपन्न देश ही आगे बढ़ते हैं। हम इस मामले में पिछड़ गए, क्योंकि कहीं न कहीं हमारी राजनीतिक इच्छाशक्ति कमजोर रही। कोठारी आयोग ने अरसे पहले सार्वजनिक शिक्षा पर सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) का छह प्रतिशत खर्च करने की सिफारिश की थी, लेकिन आज तक हम ऐसा नहीं कर पाए हैं। आज भी बमुश्किल चार प्रतिशत ही सार्वजनिक शिक्षा पर खर्च होता है। यही हाल स्वास्थ्य और अनुसंधान व विकास (आरऐंडडी) का भी है। बेशक अपने यहां बड़ी संख्या में इंजीनियर और डॉक्टर डिग्री पाते हैं, लेकिन विश्व पटल पर जरूरी योग्यता का अभाव उनमें देखा जाता है।
जाहिर है, दीर्घकालिक योजना बनाए बिना हम चीन का मुकाबला नहीं कर सकते। मगर तात्कालिक नुकसान उसे तभी पहुंचाया जा सकता है, जब आम जनता में इसके लिए एकजुटता दिखे। हालांकि, इसमें भी एक बड़ी दिक्कत यह है कि सरकार की नीतियों में सभी लोगों का विश्वास नहीं है। ऐसा इसलिए है, क्योंकि राजनेता खुद अपनी नीतियों के प्रति ईमानदार नहीं दिखते। अगर वाकई हम चीन का आर्थिक मुकाबला करना चाहते हैं, तो सबसे पहले हमारी सरकारों को संवेदनशील होना होगा। उनको आम जनता के दुख-दर्द में शामिल होना होगा। क्या हमारे हुक्मरान इसके लिए तैयार हैं?
(ये लेखक के अपने विचार हैं) अरुण कुमार,अर्थशास्त्री

 

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