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फिर बड़ा मौका

सम्पादकीय लेख / शौर्यपथ / संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में भारत की दस साल बाद वापसी जितनी सुखद है, उससे कहीं अधिक जरूरी है। ऐसे समय में भारत का निर्विरोध चुना जाना भी महत्व रखता है। बुधवार को हुए चुनाव में 193 सदस्यीय महासभा में भारत ने 184 मत प्राप्त किए और सबसे बड़ी बात यह कि एशिया प्रशांत क्षेत्र से भारत की दावेदारी पर पिछले साल जून में ही मुहर लग गई थी। तात्कालिक रूप से हमें आश्चर्यजनक जरूर लगेगा, पर तब भारत की इस दावेदारी का चीन और पाकिस्तान ने भी समर्थन किया था। हमारे प्रधानमंत्री ने संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद के गैर-स्थाई सदस्य के रूप में भारत के चुने जाने पर उचित ही गहरी कृतज्ञता व्यक्त की है। संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में रहते हुए भारत वैश्विक शांति, सुरक्षा और समानता को बढ़ावा देने के लिए सभी सदस्य देशों के साथ मिलकर काम करेगा और यही समय की मांग है।
भारत को सुरक्षा परिषद में तत्काल कोई जगह नहीं मिलेगी और एक जनवरी अर्थात अगले साल ही वह नए रूप में अपनी सक्रियता बढ़ाएगा। बड़ा सवाल यह है कि इस सदस्यता के मायने क्या हैं और भारत इससे किस हद तक लाभ उठा सकता है? भारत पहले भी सात बार सुरक्षा परिषद में अस्थाई सदस्य रह चुका है। गौर करने की बात है कि सुरक्षा परिषद में उसकी सबसे मजबूत स्थिति 1970 के दशक में थी, जब भारत की नीतियां ज्यादा स्पष्ट और मुखर थीं। बांग्लादेश के गठन से लेकर संयुक्त राष्ट्र के विभिन्न अभियानों में भारत की भूमिका को देखते हुए ही उस दशक में हमें दो बार (1972-73 और 1977-78) सुरक्षा परिषद में यह सदस्यता नसीब हुई थी। इस लिहाज से देखें, तो 1993 से 2010 तक एक लंबा दौर रहा, जब हम सुरक्षा परिषद में नहीं थे और हमारी नीतियां तेजी से उदार हो रही थीं। संभव है, इस लंबे अंतराल में भी सुरक्षा परिषद में अगर हमारी भूमिका बड़ी होती, तो हम आज बेहतर स्थिति में होते। अब फिर मौका हमारे हाथ लगा है, तो इसे अधिकतम सीमा तक इस्तेमाल करना हमारी जिम्मेदारी है। ध्यान रहे, पिछले दिनों डब्ल्यूएचओ के कार्यकारी बोर्ड की अध्यक्षता भी भारत को मिली है। इस गाढ़े समय में ये बडे़ मौके हैं, जिनका पूरा फायदा हम उठा सकते हैं।
हमें ध्यान रखना होगा कि राजनय की दुनिया में हमारी आधिकारिक सक्रियता बढ़ना सबसे जरूरी है। राजनय में सक्रियता के बिना हम अपनी पूरी ताकत, क्षमता, योग्यता, कौशल और विशालता का लाभ नहीं ले पाएंगे। चीन जिस तरह से हमें सॉफ्ट टारगेट समझ रहा है, उसकी गलतफहमी सिर्फ भारत की सक्रियता से ही दूर हो सकती है। अभी सभी देश खामोश हैं, क्योंकि हमें हस्तक्षेप या मध्यस्थता मंजूर नहीं है। लेकिन जब भारत आगे आकर सक्रिय होगा, तो उसे मित्र, शत्रु और तटस्थ देशों का अंदाजा होगा। राजनय के मोर्चे पर अभी चीन हमसे असमान रूप से आगे है, क्योंकि संयुक्त राष्ट्र में उसे वीटो पावर हासिल है। वह अपने खिलाफ होने वाली किसी भी कोशिश का पीछा कर सकता है। अत: भारत को विश्व स्तर पर किसी भी मंच पर शिथिलता से काम नहीं लेना चाहिए। एक-एक देश महत्वपूर्ण है। चीन के करीबी देशों को भी जमीनी हकीकत बताने में कोई हर्ज नहीं है। साथ ही, अपने अन्य निकटतम पड़ोसियों के साथ भी हमें तालमेल बढ़ाने की जरूरत है, तभी हम अपने विकास के लिए जरूरी सुकून जुटा पाएंगे।

 

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शौर्यपथ