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आत्मनिर्भरता मतलब, फिर भारतीयता की ओर

नजरिया / शौर्यपथ / प्रधानमंत्री ने कोरोना-19 महामारी से लड़ते हुए कई सूत्र दिए हैं। उन्होंने भारत को आत्मनिर्भर बनाने पर जोर देते हुए एक नारा दिया है, ‘लोकल के लिए बनो वोकल’। कहने का अभिप्राय कि भारतवर्ष में खूब संसाधन हैं, जिनसे विभिन्न प्रकार के उपयोगी सामान हम विश्व स्तर पर बना सकते हैं। भारत में असंख्य कुशल हाथ हैं, जिनका उपयोग करके प्राकृतिक संपदाओं से बहुत कुछ बनाया जा सकता है। वैसे भी भारत में बहुत कुछ सदियों से बनाया जाता रहा है। ऐसी-ऐसी चीजें बनाई जाती रही हैं, जिनके लिए बड़ी मशीनों की जरूरत नहीं होती। भारत का बना हुआ ढाका का मलमल, राजस्थान और गुजरात की कशीदाकारी, कश्मीर के कालीन और भी सामान देश ही नहीं, विदेश में भी बहुत प्रसिद्ध रहे हैं।
महात्मा गांधी ने आजादी की लड़ाई लड़ते हुए स्वदेशी अपनाने की बात मौखिक रूप से ही नहीं कही, बल्कि उन्होंने चरखे को स्वावलंबन का प्रतीक बना लिया था। देखते-देखते हर घर में चरखा चलने लगा था। सूत के कपडे़ बनने लगे थे, बाद में धागों को रंगकर डिजाइनदार कपड़े बनने लगे थे। स्वतंत्रता मिलने से पहले ही गांव-गांव में चरखा समितियां बनाई गई थीं और खादी की साड़ी पहन सिर पर पल्लू रख विशेष आत्मविश्वास से भरी महिलाएं घर-घर से निकलती थीं। सूत व कपड़े की रंगाई-धुलाई के काम में लगकर आमदनी बढ़ाती थीं। स्वदेशी अपनाने के क्रम में मिल में बना तेल लोग नहीं अपनाते थे। गांव के कोल्हू पर अपने खेत से निकले हुए राई, सरसों के तेल का उपयोग करते थे। स्वतंत्रता मिलने के बाद सरकार ने भी केंद्रीय और राज्य स्तर पर खादी भंडार का निर्माण कराया। चरखे चलते रहे, पर धीरे-धीरे मिल के कपडे़ घर-घर आने लगे और हम गांधी के आंदोलन को भूल गए। अब पुन: ‘लोकल के लिए वोकल’ की बात उठी है, तो स्वदेशी का नारा फिर जोर पकड़ने लगा है।
1998 से 2004 तक मैं केंद्रीय समाज कल्याण बोर्ड की अध्यक्ष थी। उन दिनों भी महिलाओं के हाथ में हुनर सिखाने एवं उनके हुनर से बने सामान बेचने की बात बहुत प्रसिद्ध थी। मैंने इस कार्य के लिए कई नारे दिए थे, जैसे- हुनर हो हर हाथ में, दिल में प्रेम का भाव। भेद मिटे हर द्वार से, जग में आए समभाव। और, जब आया हाथों में हुनर, हुलसा हिया, रंग गई चुनर। उन दिनों पूरे देश में बहुत-सी संस्थाओं द्वारा जूट, बांस, लाख ऐसे अन्यान्य प्रकार के उत्पादों का बाजार लगाया जाता था। कहीं-कहीं इसे ‘मेला’ भी कहा जाता था। आज ऐसे मेलों के तेज विकास की जरूरत है। ऐसे मेलों में खाने-पीने, पहनने-ओढ़ने से लेकर सजावट के तमाम सामान लोगों को उपलब्ध होने चाहिए। ऐसे सामान की मांग होगी, तो ऐसे सामान बनाने वालों की संख्या और आत्मनिर्भरता भी बढ़ेगी। महिलाओं और गरीब घरों की स्थिति सुधरेगी।
इस क्षेत्र के कार्यों में गति देने के लिए मैंने एक अभिनव कार्यक्रम बनाया था, जिसके तहत संस्थाओं को विभिन्न औषधीय वृक्ष लगाने का कार्य सौंपा गया था। अध्ययन करके हम इस निष्कर्ष पर पहुंचे थे कि पांच ऐसे पौधों को अपने घर के पास कम-से-कम जमीन में भी लगाया जाए, पांच वर्षों में उससे मिली आमदनी इतनी हो जाएगी, जिससे एक पांच सदस्यीय परिवार के भोजन, कपड़े का इंतजाम आसानी से हो जाएगा।
देश को आत्मनिर्भर बनाने के लिए हर शहर में हाथ के बने सामान बेचने के लिए विशेष बाजार या बिक्री केंद्र की व्यवस्था हो। बाजार या बिक्री केंद्र के कर्मचारी ही सामान गांव से लेकर आएं और उत्पादकों व संस्थाओं को कीमत भी दें। इन महिलाओं या पुरुषों को पैकेजिंग के लिए विशेष रूप से प्रशिक्षण दिया जाए, ताकि उनके सामान विदेशी बाजारों को भी आकर्षित कर सकें। इसी विशेष बिक्री केंद्र द्वारा ये जानकारियां दी जाएं कि कौन-कौन-से सामान की देश के बड़े शहरों व विदेश में मांग है? यदि इतनी सुविधा उत्पादकों, स्वयं सहायता समूहों, संस्थाओं को मिल जाए, तो इनकी आमदनी बढ़ जाएगी।
आज भारत ही नहीं, विश्व के विभिन्न देशों ने ‘पुन: भारतीयता की ओर’ यात्रा शुरू की है। भारत को आत्मनिर्भर बनाने की घोषणा पुन: भारतीयता की ओर आने का प्रयास ही है। कोविड-19 भारत के लिए भी संकट काल में वरदान साबित हो सकता है। आत्मनिर्भर व्यक्ति, परिवार व गांवों में आत्मविश्वास होता है, लेकिन दूसरों पर निर्भरता से स्वाभिमान की भी रक्षा नहीं होती।
(ये लेखिका के अपने विचार हैं)मृदुला सिन्हा, पूर्व राज्यपाल, गोवा

 

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शौर्यपथ