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कोरोना से जीतते बताएंगे इलाज की राह

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            शौर्यपथ / मानव जाति के इतिहास में छठी शताब्दी में जस्टिनियन प्लेग से लेकर 1918 में स्पेनिश फ्लू तक कई महामारियां देखी गई हैं। 21वीं सदी में खासकर तीन कोरोना वायरस प्रकोप देखे गए हैं। मर्स, सार्स के बाद हम कोविड-19 का प्रकोप देख रहे हैं। चिकित्सा विज्ञान की तरक्की के बावजूद यह अनुमान लगाना नामुमकिन है कि अगली संक्रामक बीमारी का प्रकोप कब होगा, इसलिए हमें पूरी तरह सचेत रहने की जरूरत है।
संक्रमण के कुल मामलों में जब भारत चीन को पार कर चुका है, तब दोनों की तुलना दिलचस्प होगी। मध्य मार्च के बाद से भारत में जहां संक्रमण के मामलों में क्रमिक वृद्धि देखी गई, वहीं चीन में जनवरी-फरवरी में ही बहुत तेजी देखी गई थी। वहां का प्रशासन मजबूर हो गया था और भारत से करीब दो महीने पहले 23 जनवरी को ही वुहान में सख्त लॉकडाउन लागू हो गया था। वहां 70 दिन चले लॉकडाउन से संक्रमण काबू में आया और अब स्थिर है। चीन जैसी ही तेज बढ़त अमेरिका और यूरोप में देखी गई, इस मामले में भारत कुछ अलग है।
गौरतलब है, भारत में चीन की तुलना में 45 प्रतिशत कम मौतें हुई हैं, हालांकि कुल संक्रमित लोगों में सक्रिय संक्रमित 60 प्रतिशत से ज्यादा रहे हैं, जबकि चीन में सक्रिय संक्रमितों की संख्या शून्य के करीब पहुंच गई है। भारत में 38 प्रतिशत लोग स्वस्थ हो रहे हैं। ठीक होने वालों की संख्या भारत में ज्यादा है। वैसे अभी भी भारत में जर्मनी, स्पेन और इटली इत्यादि हॉटस्पॉट बने देशों की तुलना में ठीक होने की दर कम है।
इसके अलावा, यह बीमारी चीन में मुख्य रूप से हुबेई प्रांत में सीमित थी और वहां भी विशेष रूप से वुहान में, जबकि भारत में चार राज्यों- महाराष्ट्र, तमिलनाडु, गुजरात और दिल्ली में संक्रमण के ज्यादा मामले देखे जा रहे हैं। इन चार राज्यों में भारत के कुल दो-तिहाई मामले मिले हैं। कुल मिलाकर, भारत में ठीक होने की उच्च दर इशारा करती है कि कोरोना के खिलाफ रोग प्रतिरोधक क्षमता का विकास यहां कारगर रहा है। आज अहम सवाल यह है कि जो लोग सार्स और कोविड-19 के संक्रमण को हरा सकते हैं, क्या वे भावी वायरस हमलों को भी धता बता पाएंगे? जब हम इसका जवाब खोजेंगे, तब हमें कोविड-19 की वैक्सीन खोजने में मदद मिलेगी।
हमारे शरीर में दो चीजें हैं, एचएलए सिस्टम और केआईआर जींस, दोनों ही कोरोना बीमारी के माइक्रोब्स के खिलाफ रोग प्रतिरोध की दीवार खड़ी कर रही हैं। एचआईवी सहित अन्य संक्रामक रोगों और स्वत:रोग प्रतिरोधी क्षमता के संबंध में एचएलए और केआईआर की जेनेटिक प्रवृत्ति के पर्याप्त डाटा मौजूद हैं। ये दोनों जेनेटिक सिस्टम शरीर के दो रोग-प्रतिरोधी योद्धाओं को चलाते हैं- एक, साइटोक्सिक टी-सेल्स और दूसरा, नेचुरल किलर सेल्स, ये दोनों ही मिलकर वायरस को निशाना बनाते हैं और ठिकाने लगाने में मदद करते हैं। इनका गहन अध्ययन जरूरी है, ताकि कोविड-19 की जांच के कारगर उपकरण बनाए जा सकें। इससे अलग-अलग लोगों में अलग-अलग उपचार रणनीति बनाने में भी मदद मिलेगी। संक्रमित लोगों में एचएलए विविधता की पहचान करने से संक्रमण की गंभीरता का अनुमान लगाने में मदद मिल सकती है और यह तय किया जा सकता है कि आखिरकार टीके से किसको फायदा होगा। भारतीय संदर्भ में वैज्ञानिकों को दो अहम अवलोकनों के जवाब खोजने होंगे। पहला, मुख्य रूप से स्पर्श से हो रही बीमारी के क्लिनिकल कोर्स को देखना होगा और दूसरा, भारत में अभी तक गंभीर और अति-गंभीर मामलों की सीमित संख्या पर भी गौर करना होगा।
एक सवाल यह भी है कि किसी संक्रामक का कारगर उपचार विकसित करने में कितना समय लगता है? ऐतिहासिक रूप से चेचक और पोलियो का प्रभावी टीका खोजने में हजारों साल लगे हैं। इन दिनों विश्व वैज्ञानिक समुदाय ने जिस एकजुटता के साथ कोरोना वायरस को हराने के विलक्षण कार्य में ज्ञान और जानकारी साझा की है, यह वास्तव में अभूतपूर्व है। अकेले विज्ञान ही भविष्य में स्वास्थ्य रक्षकों को अपनी पूरी क्षमता से काम करने, भविष्य के संक्रामकों को रोकने और उनका इलाज करने के लिए जीवन रक्षक उपकरण बनाने के लिए प्रेरित कर सकता है। बेशक, वैश्विक आपात स्थितियों से निपटने के लिए नई प्रौद्योगिकियों की तत्काल जरूरत है।
(ये लेखक के अपने विचार हैं)

 

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शौर्यपथ