मेरी कहानी / शौर्यपथ / विदेश जाने की खुशी ऐसी थी कि पंख लग गए थे। मन सुने-सुनाए लंदन में पहुंचकर टहलने लगा था और तन को वहां पहुंचाने के लिए जल-जहाज का टिकट भी खरीद लिया गया था। बडे़ भाई साहब लंदन में ही रहते थे, तो उन्होंने छोटे को बुला भेजा कि आ जाओ, यहीं से इंजीनिर्यंरग पढ़ लो, जिंदगी संवर जाएगी। पिता भी फूले नहीं समा रहे थे। बड़ा बेटा पहले ही विलायत जा जमा था और अब दूसरा भी उसी नक्शेकदम पर चले, तो इससे अच्छा और क्या हो सकता है? पिता ने अंग्रेज शिक्षकों के स्कूल में बेटे को पढ़ाया भी यही सोचकर कि बेटा पठानों के इलाकाई खून-खराबे से अलग रहकर दुनिया के लायक बनेगा। एक तरह से पिता का सोचा हुआ ही साकार हो रहा था।
बेटे को इस बात की भी खुशी थी कि एक ठंडे देश में जाकर रहना-पढ़ना होगा। उन दिनों गरमी की छुट्टियां चल रही थीं। उस अलीगढ़ में कॉलेज बंद हो गया था, जहां बहुत गरमी थी। पेशावरी इलाके से अलग माहौल उसे बेचैन कर देता था। यह खुशी थी कि अब मंजिल अलीगढ़ नहीं, इंग्लैंड है। स्कूल में पढ़ाने वाले अंग्रेज शिक्षक रेवेरेंड विगरैम के भी आनंद का ठिकाना न था। आर्थिक रूप से सक्षम पिता बहराम खान कितनी खुशी से बेटे को लंदन भेज रहे थे, इसका पता इसी से चलता है कि जिस जमाने में दस ग्राम सोना 20 रुपये का भी नहीं था, तब पिता ने बेटे को 3,000 रुपये थमा दिए थे। अब न धन की कमी थी और न लंदन पहुंचकर ठौर-कौर की चिंता। देखते-देखते वह दिन भी आ गया, जब लंदन के लिए निकलना था। पूरा बिस्तर-सामान बंध चुका था। चंद मिनटों में घर से रवानगी थी। छह फुट से भी लंबा हो चला नौजवान बेटा लंबे-लंबे डग भरता मां के पास पहुंचा कि चलते-चलते आशीर्वाद ले लिया जाए।
झुककर अभिवादन करते हुए बेटे ने कहा, ‘मां, अब मैं चलूं’।
मां कुछ नहीं बोली। बेटे ने हाथ बढ़ाया और मां ने बेटे के हाथ को अपनी हथेलियों से घेर लिया। बेटा मां के पास बैठ गया। मां की हथेलियां बेटे की हथेलियों पर कसती गईं। बेटे की हथेलियां इतनी निर्मोही नहीं थीं कि मां की हथेलियों से खुद को छुड़ा लें। वैसे भी ऐसा नाजुक वक्त जब गुजरता है, तब थामने वाली हथेलियां सीधे दिल थामने लगती हैं। मां ने पूरे दिल से थाम लिया था। बेटे के दिल में भी नमी उमड़ने लगी थी, लेकिन वह बही पहले मां की आंखों से। मां के कांपते होंठों से गुहार फूटी, ‘नहीं, तुम नहीं।...मेरी आखिरी औलाद’।
फिर तो आंसू रोके न रुके। वह मां अड़ गई, जो बडे़ बेटे को पहले ही विलायत के हाथों गंवा चुकी थी। वह वहीं निकाह कर घर-बार बसा चुका था। परदेश को लोग इतना अपना क्यों मान लेते हैं कि अपना सगा घर-गांव पराया हो जाता है? बड़ा गया, अब छोटा भी चला जाएगा, तो फिर पीछे साथ कौन रह जाएगा? क्या यही इल्म है, जिसे हासिल करने जाने वाले लौटते नहीं हैं? कोई मां क्या इसलिए अपनी औलाद को अपने साये में पोसती है कि वह बच्चा जब सायादार हो जाए, तो किसी परदेश को फल-छांव दे और देश में बूढ़े मां-बाप सिर पर साये को मोहताज हो जाएं? एक पल को बेटे ने सोचा, क्या वह मां के बिना रह सकता है, और वह भी ऐसी मां, जो हथेलियां थामे जार-जार रो रही है? और ऐसी मां को यूं गंवाकर कौन-सी कमाई करने वह परदेश जा रहा है? यह वही मां है, जिसने खूंखार पठानी लड़ाइयों-झंझावातों से बचाकर सीने से लगाए पाला है।
फिर क्या था, फैसला हो गया। जो मन लंदन जा चुका था, वह मां की गोद में सिमट आया। तय हो गया, कहीं नहीं जाना, यहीं मां की निगहबानी में रहना है। मां की ही सेवा करनी है। अपनी मां, अपनी जमीन, अपना मुल्क, इनका भला क्या विकल्प है? मां ने रोक लिया। 3,000 रुपये पिता को वापस हो गए। भाई को खत चला गया कि अपना देश प्यारा है। फिर अलीगढ़ भी लौटना न हुआ। पढ़ाई छूट गई। वहीं अपने खेतों में पसीना लहलहाने लगा। तब तक जो इल्म हासिल हो चुका था, वह भी कम न था। महज 20 की उम्र में मां के उस दुलारे ने स्कूल खोलकर जननी जन्मभूमि की सेवा शुरू कर दी। पठानों के तमाम इलाकों में एक सेकुलर, सेवाभावी, एकजुट भारत के निर्माण के लिए उन्होंने स्वयंसेवकों का एक संगठन बनाया- खुदाई खिदमतगार। मातृभूमि की इतनी सेवा हुई कि अंग्रेजों को चुभने लगी। गिरफ्तारी के वारंट जारी होने लगे। अंग्रेज खोजने लगे कि कहां हैं वह अब्दुल गफ्फार खान, उर्फ बादशाह खान, उर्फ बच्चा खान? वही, जिन्हें दुनिया आज ‘सरहदी गांधी’ के नाम से जानती है। महात्मा गांधी के परमप्रिय, सत्य-अहिंसा के झंडाबरदार। विभाजन के दुर्भाग्य से पाकिस्तान के हिस्से में चले गए ऐसे पहले स्वजन-विदेशी, जो भारत रत्न हैं।
प्रस्तुति : ज्ञानेश उपाध्याय