नजरिया / शौर्यपथ / पिछले महीने और इस महीने भी, जब दुनिया भर के तमाम देश कोरोना वायरस से जूझने में जुटे हैं, हांगकांग में एक भी दिन ऐसा नहीं गुजरा, जब वहां चीन की सरकार के खिलाफ प्रदर्शन न हुए हों। बीते दिनों कई प्रदर्शनकारियों को गिरफ्तार किया गया है, पुलिस से लोगों की झड़पें हुई हैं। बीजिंग में बैठी सरकार ने हांगकांग की स्वायत्तता को खत्म करने के लिए नई-नई घोषणाएं की हैं और हांगकांग में जन-साधारण के लिए जो बातें पहले सामान्य मानी जाती थीं, उन सभी पर प्रतिबंध लगा दिया गया है। दरअसल, हांगकांग में पहले के लोकतंत्र समर्थक प्रदर्शनों को देखते हुए चीन ने पिछले सप्ताह अपनी संसद में हांगकांग से जुडे़ राष्ट्रीय सुरक्षा कानून का मसौदा पेश किया था, जो गुरुवार को पारित हो गया। इससे जनतंत्र समर्थक कानूनविद्, राजनेता और हांगकांग के 74 लाख लोग स्तब्ध हैं। उन्होंने सोचा न था कि चीन, जो 2047 में हांगकांग को पूरी तरह से नियंत्रण में लेने वाला था, वह दो दशक पहले ही इस प्रकार उसको डकार जाएगा।
कोरोना वायरस के कारण तमाम देशों में जिंदगी वैसे ही ठहर-सी गई है, लेकिन स्थानीय इलाकों पर धीरे-धीरे कब्जा करने की चीन की नीति में कोई बदलाव नहीं आया है। चीन ने हांगकांग की स्वायत्तता समाप्त करने की ऐसी ही कोशिश 2003 में भी की थी, लेकिन उस समय हुए जबर्दस्त जन-विद्रोह के कारण उसे पीछे हटना पड़ा था। मगर अब नए कानून के लागू हो जाने के बाद हांगकांग में लोकतंत्र समर्थक ताकतों पर रोक लगाने के साथ ही वहां बाहरी शक्तियों का आना भी रोक दिया जाएगा। हालांकि, हांगकांग बेशक चीन का भाग है, लेकिन उसके पास अब तक अपने कानून, अपनी अदालतें और पुलिस हैं। साफ है, चीन का यह कदम एक प्रकार से उसकी तानाशाही है। यह उस संयुक्त घोषणापत्र को पूरी तरह खत्म किए जाने के समान है, जिसके तहत इस पूर्व बिटिश उपनिवेश को 1997 में ‘एक देश, दो प्रणाली’ के साथ चीन को लौटाया गया था। यह घोषणापत्र हांगकांग को 2047 तक पश्चिम जैसी आजादी और अपनी कानून प्रणाली प्रदान करता है। अब राष्ट्रीय सुरक्षा कानून के बहाने चीन ने इस अद्र्ध-स्वायत्त क्षेत्र पर अपना नियंत्रण कर लिया है, जबकि वह अब तक हांगकांग से ऐसा कोई काम न करने का वादा करता आया था।
हांगकांग में ज्यादातर लोग चीनी नस्ल के हैं, लेकिन वे आमतौर पर चीन की पहचान नहीं रखना चाहते, खासकर युवा वर्ग। सिर्फ 11 फीसदी हांगकांगवासी खुद को चीनी कहते है, जबकि 71 फीसदी चीनी नागरिक होने पर गर्व महसूस नहीं करते। यही कारण है कि हांगकांग में हर रोज आजादी के नारे बुलंद होते रहते हैं। सन 1997 में जब हांगकांग को चीन के हवाले किया गया था, तब उसने कम से कम 2047 तक वहां के लोगों को स्वायत्तता और अपनी कानून-व्यवस्था बनाए रखने की गारंटी दी थी, लेकिन 2014 में वहां 79 दिनों तक चले ‘अंब्रेला मूवमेंट’ के बाद लोकतंत्र का समर्थन करने वालों के खिलाफ चीन सरकार कार्रवाई करने लगी। हांगकांग का अपना कानून है, साथ ही खुद की विधानसभा भी, लेकिन वहां मुख्य कार्यकारी अधिकारी को 1,200 सदस्यीय चुनाव समिति चुनती है, जिसमें ज्यादातर चीन समर्थक सदस्य ही होते हैं। यही नहीं, विधायी निकाय के सभी 70 सदस्य हांगकांग के मतदाताओं द्वारा सीधे नहीं चुने जाते हैं। मनोनयन वाली सीटों पर बीजिंग समर्थक सांसदों का कब्जा रहता है।
जाहिर है, चीन के ताजा कदम के बाद हांगकांग में अब और भी विरोध होना स्वाभाविक है। पिछले वर्ष की घटनाओं को देखते हुए आशंका यह भी है कि पुलिस अब और कडे़ कदम उठाएगी। बीजिंग को इस बात की कतई चिंता नहीं है कि उसके इस कार्य पर दूसरे देश क्या प्रतिक्रिया देते हैं। हालांकि, इस नए कानून के विरोध में दुनिया भर में आवाजें उठने लगी हैं।
कानूनी पर्यवेक्षकों और मानवाधिकार के पैरोकारों का मानना है कि इस कानून का सर्वाधिक दुरुपयोग मानवाधिकार कार्यकर्ताओं के बोलने की आजादी के विरुद्ध किया जाएगा। ऐसे मुखर लोगों को गिरफ्तार किया जाएगा और उन्हें जेल में बंद कर दिया जाएगा। फिर भी, माना यही जा रहा है कि प्रदर्शनकारी कहीं ज्यादा इसका विरोध करेंगे, क्योंकि पिछले वर्ष की अपेक्षा वे अधिक संगठित हुए हैं।
(ये लेखक के अपने विचार हैं)महेंद्र राजा जैन, वरिष्ठ हिंदी लेखक