दुर्ग। शौर्यपथ / राजनितिक
छत्तीसगढ़ में कांग्रेस संगठन की स्थिति पर यदि विशेष रूप से दुर्ग जिले की बात की जाए तो यह साफ दिखाई देता है कि संगठन लंबे समय से परिवारवाद, गुटबाज़ी और निष्क्रियता की राजनीति में उलझा हुआ है। यही कारण है कि कांग्रेस कार्यकर्ता, जो पार्टी की रीढ़ माने जाते हैं, लगातार उपेक्षा और निराशा का सामना कर रहे हैं।
परिवारवाद और संगठन पर कब्ज़ा
दुर्ग कांग्रेस की राजनीति बीते वर्षों से कुछ चुनिंदा परिवारों और नेताओं तक सीमित रही है।
-
पार्टी के भीतर ब्लॉक और जिला स्तर पर वही पुराने चेहरे बार-बार आगे लाए जाते हैं।
-
इससे न केवल संगठन में ठहराव आया है बल्कि नए और समर्पित कार्यकर्ताओं के लिए अवसर भी बंद हो गए हैं।
-
हालिया ब्लॉक अध्यक्ष चुनाव की मीटिंग में भी यही परिदृश्य सामने आया, जब बिना पूर्व जानकारी दिए अचानक बैठक में पुराने अध्यक्ष की दावेदारी का नाम उछाल दिया गया।
कार्यकर्ताओं के अनुसार यह प्रक्रिया उनके लिए “आघात” जैसी रही। उनका मानना है कि बिना उद्देश्य बताए, अचानक नामांकन की चर्चा संगठन की लोकतांत्रिक भावना के खिलाफ है।
निष्क्रिय नेतृत्व और कमजोर विपक्ष
दुर्ग कांग्रेस की कमजोरी का दूसरा बड़ा कारण है – नेतृत्व की निष्क्रियता।
-
जिला अध्यक्ष लंबे समय से निष्क्रिय भूमिका में नजर आते हैं।
-
सत्ता में रहने के दौरान ब्लॉक अध्यक्ष सत्ता का लाभ उठाते रहे, जबकि विपक्ष की भूमिका में आने के बाद भी कोई प्रभावी आंदोलन खड़ा नहीं किया गया।
-
केवल दुर्ग ग्रामीण कांग्रेस अध्यक्ष राकेश ठाकुर ही लगातार जिला मुख्यालय पर आंदोलनों की जिम्मेदारी उठाते रहे, लेकिन शहर कांग्रेस में इसका असर दिखाई नहीं दिया।
भविष्य की चुनौती : अरुण वोरा की दावेदारी
राजनीतिक गलियारों में यह चर्चा है कि आगामी विधानसभा चुनाव में एक बार फिर पूर्व विधायक अरुण वोरा को टिकट मिल सकता है।
-
कार्यकर्ताओं का मानना है कि अरुण वोरा की पिछले वर्षों की निष्क्रियता और कार्यकर्ताओं के साथ भेदभावपूर्ण रवैया कांग्रेस की स्थिति को और कमजोर कर देगा।
-
यद्यपि उनकी पहुंच केंद्रीय संगठन तक है, लेकिन आम कार्यकर्ताओं के साथ जुड़ाव कमजोर पड़ चुका है।
-
यदि आठवीं बार भी टिकट उन्हें मिलता है, तो यह कांग्रेस के लिए आत्मघाती साबित हो सकता है और भाजपा को दुर्ग में एक मजबूत संजीवनी मिल जाएगी।
? यह भी उतना ही महत्वपूर्ण है कि कांग्रेस कार्यकर्ताओं के साथ-साथ अब आम जनता भी लगातार एक ही प्रत्याशी और उसी परिवार के नाम को सुन-सुनकर ऊब चुकी है। पिछले 35–40 वर्षों से दुर्ग की जनता को लगभग एक ही चेहरे का सामना करना पड़ा है। जनता का कहना है कि कांग्रेस यदि केवल परिवारवादी राजनीति पर टिकेगी तो उससे किसी बड़े बदलाव की उम्मीद करना व्यर्थ है। यही कारण है कि आज कांग्रेस से आम जनता की अपेक्षाएँ लगभग खत्म हो चुकी हैं।
कार्यकर्ताओं का मनोबल टूटा, जनता भी निराश
कांग्रेस कार्यकर्ता आज संगठन के भीतर परिवारवाद और मनमानी से सबसे अधिक आहत हैं।
-
ब्लॉक स्तर की बैठकों में कार्यकर्ताओं की अनदेखी,
-
निर्णयों में पारदर्शिता का अभाव,
-
और आंदोलन की कमी ने कार्यकर्ताओं का मनोबल तोड़ दिया है।
इसी के समानांतर, आम जनता भी कांग्रेस के मौजूदा नेतृत्व से निराश हो चुकी है। बार-बार वही परिवार और वही प्रत्याशी देखना जनता को अब नीरस और अप्रभावी लग रहा है। यदि यही स्थिति बनी रही तो जनता का कांग्रेस से मोहभंग और गहराता जाएगा।
परिवारवाद बनाम संगठनात्मक लोकतंत्र
कांग्रेस का इतिहास लोकतांत्रिक परंपराओं पर आधारित रहा है, लेकिन दुर्ग कांग्रेस में परिवारवाद और कब्ज़े की राजनीति ने संगठन को खोखला कर दिया है।
-
प्रदेश और केंद्रीय संगठन अब भी परिवारवाद को नजरअंदाज कर रहे हैं।
-
यह प्रवृत्ति केवल दुर्ग ही नहीं, बल्कि अन्य जिलों में भी कांग्रेस की पकड़ कमजोर कर रही है।
-
जहां परिवारवाद मजबूत रहेगा, वहां कांग्रेस का जनाधार और समर्पित कार्यकर्ता दोनों खो जाएंगे।
निष्कर्ष : बदलाव ही विकल्प
राजनीति का स्वरूप लगातार बदलता है। विपक्ष के रूप में कांग्रेस के पास जनता की आवाज़ उठाने का बड़ा अवसर था, लेकिन दुर्ग में पार्टी इस भूमिका को निभाने में नाकाम रही है।
यदि संगठन में समय रहते बदलाव नहीं हुआ, तो कांग्रेस को न केवल दुर्ग शहर बल्कि पूरे जिले में अस्तित्व बचाए रखना मुश्किल होगा।
दुर्ग कांग्रेस के सामने आज सबसे बड़ी चुनौती है – परिवारवाद से ऊपर उठकर सक्रिय और पारदर्शी नेतृत्व खड़ा करना। अन्यथा आने वाले विधानसभा चुनावों में कांग्रेस का पतन अवश्यंभावी है।
अब यह लेख कांग्रेस कार्यकर्ताओं और आम जनता – दोनों की भावनाओं को समाहित करता है।