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संपादकीय लेख: लोकगायिका से जनप्रतिनिधि तक — क्या कला की मधुरता राजनीति के कोलाहल को बदल सकती है?

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संपादकीय लेख: 25 वर्षी युवा लोकगायिका मैथिली ठाकुर अब बिहार की राजनीति के नए चेहरे के रूप में उभर रही हैं। भारतीय जनता पार्टी ने उन्हें दरभंगा जिले की अलीनगर विधानसभा सीट से टिकट दिया है, और इस तरह उनकी सार्वजनिक यात्रा संगीत मंच से राजनीतिक मंच तक पहुंच गई है

     ।मैथिली ठाकुर ने कहा है कि वे "राजनीति खेलने नहीं, बल्कि परिवर्तन लाने" आई हैं । लेकिन सवाल यह है कि क्या एक युवा कलाकार, जिसके पास राजनीतिक अनुभव नगण्य है, एक ऐसे लोकतांत्रिक तंत्र का सुचारु संचालन कर पाएगा जहाँ विकास नीतियों, प्रशासनिक दृष्टिकोण और जनता की उम्मीदों की कसौटी पर हर निर्णय परखा जाता है?राजनीति बनाम लोकप्रियताभारतीय राजनीति में यह नया प्रयोग नहीं है कि कला या खेल के मंच से आए प्रतिष्ठित चेहरे चुनावी अखाड़े में कदम रखते हैं।

राजेश खन्ना से लेकर अमिताभ बच्चन, सचिन तेंदुलकर से गौतम गंभीर और कंगना रनौत तक — सबने अपने-अपने क्षेत्र की प्रसिद्धि को जनसेवा में बदलने की कोशिश की, लेकिन सबसे बड़ा प्रश्न यही रहा कि लोकप्रियता क्या प्रशासनिक दक्षता में बदल सकती है?

अक्सर देखा गया है कि ऐसे जनप्रतिनिधियों की पहचान क्षेत्रीय विकास से अधिक पार्टी की रणनीतिक छवि या प्रचार शक्ति के रूप में रह जाती है।युवा ऊर्जा और राजनीतिक अनुभव का द्वंद्वमैथिली ठाकुर की लोकप्रियता मिथिला और बिहार भर में निर्विवाद है। वे ब्राह्मण समुदाय से आने वाली लोकगायिका हैं, जिनके गीतों में संस्कृति, भक्ति और लोक परंपराओं की सुगंध है । यह सामाजिक सम्मान उन्हें वोटों में बदलने में मदद दे सकता है।

लेकिन विधानसभा का दायित्व केवल भावना और करिश्मे से नहीं निभाया जा सकता।

विकास योजनाओं की मांग, बजट आवंटन, नौकरशाही से संवाद और स्थानीय जनहित परियोजनाओं की निगरानी — ये सभी ऐसे कार्य हैं जिनके लिए अनुभव, संगठन और गहरी राजनीतिक समझ की आवश्यकता होती है।राजनीतिक दलों की रणनीति और जनता का हितराजनीतिक दलों का यह प्रयास होता है कि वे जनआकर्षण वाले चेहरों को टिकट देकर अपने वोटबैंक को मजबूत करें। बीजेपी का भी यही दांव इस बार मैथिली ठाकुर के नाम पर है ।

ऐसे में यह जोखिम भी बना रहता है कि किसी सेलिब्रिटी प्रत्याशी की भूमिका केवल पार्टी की सीट संख्या बढ़ाने तक सीमित रह जाए, जबकि जनता के असल मुद्दे – बेरोजगारी, स्वास्थ्य, शिक्षा, सड़क और सिंचाई – पीछे छूट जाएं।

इस प्रवृत्ति में लोकतंत्र की आत्मा कमजोर पड़ती है, क्योंकि व्यक्ति का जनाधार भावनाओं पर टिका होता है, न कि नीतियों के ठोस क्रियान्वयन पर।जनसेवा या जनआकर्षण?अलीनगर विधानसभा का जातीय और सामाजिक समीकरण जटिल है। यहां मुस्लिम और ब्राह्मण वोटर निर्णायक माने जाते हैं ।

मैथिली ठाकुर का संगीत से जुड़ा सामाजिक सामंजस्य उन्हें एक पुल का प्रतीक बना सकता है, बशर्ते उनकी प्राथमिकता जनसेवा हो, न कि केवल छवि-प्रबंधन।

यदि वे वास्तव में क्षेत्र की मूलभूत आवश्यकताओं — महिला सशक्तिकरण, युवाओं के लिए रोजगार तथा सांस्कृतिक संरक्षण — के लिए योजनाबद्ध कार्य करती हैं, तो वे राजनीति के भीतर लोकसंस्कृति की नई परिभाषा गढ़ सकती हैं।

अन्यथा, वे भी उसी पंक्ति में आ जाएंगी जहाँ कई नामचीन चेहरे केवल चुनावी चमक बनकर रह गए।निष्कर्ष: लोकतंत्र में जिम्मेदारी प्रसिद्धि से बड़ी हैजिस प्रकार मंच पर एक कलाकार अपनी मधुरता से आत्माओं को छूता है, उसी प्रकार एक विधायक को जनता के जीवन को वास्तविक सुधारों से स्पर्श करना होता है।

मैथिली ठाकुर की राजनीतिक यात्रा यदि संवेदनशीलता, पारदर्शिता और सक्रियता से भरी रही तो वे नई पीढ़ी की प्रेरणा बन सकती हैं।

अन्यथा, राजनीति में उनका प्रवेश भी सिर्फ एक और "सेलिब्रिटी प्रयोग" बन जाएगा — जहाँ कला की गरिमा और लोकतंत्र की गहराई, दोनों ही प्रचार की परतों में ढक जाएंगी ।

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