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दुर्ग कांग्रेस की 'वीरगाथा': सेनापति ने ही डाले हथियार, फ़ौज चली जंग लड़ने— अस्तित्व खतरे में! Featured

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(विशेष व्यंग्य): लेखक- शरद पंसारी, संपादक- शौर्यपथ दैनिक समाचार

दुर्ग। 'सेनापति का पता नहीं और फ़ौज चली जंग लड़ने,' यह कहावत इन दिनों दुर्ग कांग्रेस पर इतनी सटीक बैठती है कि खुद कहावत को भी इस पर नाज़ हो रहा होगा। दुर्ग शहर कांग्रेस का हाल यह है कि यहाँ अध्यक्ष महोदय (गया पटेल) ने पिछले साल ही त्यागपत्र रूपी 'श्वेत ध्वज' प्रदेश संगठन के सामने फहरा दिया था। भले ही संगठन ने कागज़ी तौर पर इस्तीफ़ा स्वीकार नहीं किया है, लेकिन ज़मीनी हकीकत यही है कि दुर्ग कांग्रेस एक साल से 'सेनापति विहीन' यानी बिना मुखिया के ही 'विपक्ष की जंग' लड़ने का नाटक कर रही है।

फ़िलहाल स्थिति यह है कि दुर्ग कांग्रेस की लंका में हर छोटे-बड़े 'नामधारी' नेता स्वयं को राम, लक्ष्मण और हनुमान तीनों समझ रहा है। लेकिन सबसे बड़ी समस्या बाहर के 'शत्रु' नहीं, बल्कि भीतर के 'विभीषण' और 'शकुनि' हैं। कुछ नेता अपनी छोटी-छोटी राजनीतिक रोटियाँ सेंकने के लिए संगठन के भीतर ही षड्यंत्रों का ताना-बाना बुन रहे हैं, ठीक वैसे ही जैसे महाभारत में शकुनि ने किया था। और कुछ 'विभीषण' बनकर भाजपा की जीत की पटकथा अंदरखाने से लिख रहे हैं।

प्रदेश नेतृत्व की 'महा-अनदेखी' और केंद्रीय नेतृत्व का 'हास्यास्पद प्रयास'

दुर्ग कांग्रेस के अस्तित्व पर मंडराता सबसे बड़ा खतरा आपसी कलह से भी बड़ा है: प्रदेश कांग्रेस नेतृत्व की उदासीनता। ऐसा लगता है जैसे प्रदेश कांग्रेस ने दुर्ग शहर इकाई को लगभग 'भूल' ही दिया है। एक साल से अध्यक्ष का इस्तीफा लटका है, गुटबाजी चरम पर है, लेकिन रायपुर से कोई प्रभावी दखल नहीं।

इस बीच, जब लगा कि आग बुझाने के लिए कोई तो आएगा, तब केंद्रीय नेतृत्व ने पर्यवेक्षक भेजे। मगर कमाल देखिए! गुटों की लड़ाई इतनी ज़ोरदार निकली कि केंद्रीय नेतृत्व को अपना भेजा हुआ पर्यवेक्षक ही वापस बुलाना पड़ा। इस कदम ने आग बुझाने के बजाय, जली हुई गाड़ी पर पेट्रोल छिड़कने का काम किया है। यानी, शीर्ष नेतृत्व ने खुद ही यह मान लिया कि दुर्ग कांग्रेस के मामले इतने पेचीदा हैं कि उनसे सुलझ नहीं पाएंगे।

यह 'महा-अनदेखी' और केंद्रीय नेतृत्व का यह 'हास्यास्पद प्रयास' ही है जिसने दुर्ग कांग्रेस को संगठनात्मक शून्य में धकेल दिया है।

आपसी कटाक्ष और भाजपा का 'चटकारे' वाला जश्न

कांग्रेस की फ़ौज ने अपना सारा 'युद्ध कौशल' एक-दूसरे पर 'तीरंदाजी' में झोंक रखा है। एक-दूसरे पर छींटाकशी करना, आरोप-प्रत्यारोप लगाना और नीचा दिखाना यहाँ की सबसे बड़ी 'संगठनात्मक गतिविधि' बन चुकी है। अभिव्यक्ति की आज़ादी का आलम यह है कि हर नेता, जिसे मंच पर बैठने के प्रोटोकॉल का आनंद लेने की आदत है, आज स्वयं को ज़मीनी नेता घोषित कर रहा है, जबकि उनके पद की गरिमा सिर्फ़ मंच की हद तक ही सीमित है।

यह अच्छा भी है! आखिर 'घर के घर में ही जंग' हो तो कम से कम बाहर नुकसान होने का डर तो नहीं रहता।

दुर्ग कांग्रेस की इस 'महाभारत' ने विपक्षी भाजपा के लिए एकदम 'अनुकूल परिस्थिति' का निर्माण कर दिया है। भाजपा कार्यालय में नेतागण बड़े आराम से बैठकर कांग्रेस का यह 'तमाशा' देख रहे हैं और 'चटकारे' ले रहे हैं। उन्हें तो अब किसी भी विरोध का सामना करने की ज़रूरत ही नहीं पड़ रही।

लब्बोलुआब यह है कि सेनापति ने पहले ही हथियार डाल दिए हैं, प्रदेश नेतृत्व ने आँखें मूंद ली हैं, केंद्रीय नेतृत्व ने पर्यवेक्षक को वापस बुलाकर अपनी लाचारी दिखा दी है, और 'सेना' सिर्फ बड़े पद की लालसा में एक-दूसरे को नीचा दिखाने में व्यस्त है। यदि शीर्ष नेतृत्व ने जल्द ही इस 'विभीषण-शकुनि' युक्त और अध्यक्षविहीन इकाई को नहीं संभाला, तो दुर्ग में कांग्रेस का अस्तित्व सिर्फ 'यादों' में सिमट कर रह जाएगा।

वाह रे दुर्ग कांग्रेस! तुम्हारी यह वीरगाथा इतिहास के पन्नों में सुनहरे अक्षरों से नहीं, बल्कि 'व्यंग्य' की स्याही से लिखी जाएगी!

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