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शौर्यपथ सम्पादकीय / भारतीय राजनीति में नेताओं द्वारा अमर्यादित, अपमानजनक और विवादास्पद भाषा का प्रयोग एक गंभीर समस्या के रूप में उभरता जा रहा है। यह प्रवृत्ति अब लगभग सभी प्रमुख दलों के नेताओं में दिखाई देने लगी है। इसके परिणामस्वरूप न केवल लोकतंत्र की गरिमा प्रभावित हो रही है, बल्कि समाज में वैमनस्य और ध्रुवीकरण भी बढ़ रहा है।
अमर्यादित भाषा: तथ्य और सत्यता
अमर्यादित भाषा या अपमानजनक टिप्पणियां अक्सर विपक्षी दलों, महिलाओं, जातियों, धर्मों या क्षेत्रीय समुदायों को निशाना बनाती हैं। बीते वर्षों में ऐसी घटनाओं की संख्या सैकड़ों में रही है, जिन पर मीडिया और सोशल मीडिया में तीखी आलोचना सामने आती है।
बीजेपी नेताओं द्वारा महिलाओं, विपक्षी नेताओं और समुदायों पर की गई टिप्पणियों की पुष्टि विभिन्न समाचार रिपोर्टों और सोशल मीडिया पोस्ट्स से होती रही है। कैलाश विजयवर्गीय, रमेश बिधुड़ी और अश्विनी चौबे की टिप्पणियां इसके उदाहरण हैं।
कांग्रेस नेताओं की भाषा भी कई बार प्रधानमंत्री, भाजपा नेताओं और महिलाओं को लक्ष्य बनाती रही है। राहुल गांधी की "वोटर अधिकार यात्रा" में पीएम मोदी व उनकी मां को लेकर विवादित टिप्पणी, बाबू जंडेल की धार्मिक टिप्पणी और अजय राय की सेक्सिस्ट टिप्पणी इसका हिस्सा रही हैं।
आम आदमी पार्टी (AAP) के नेताओं द्वारा भी जातिवादी और तीखी भाषा का प्रयोग सामने आया है। गोपाल इटालिया द्वारा "नीच" शब्द का इस्तेमाल, अमनतुल्लाह खान की टिप्पणियां और प्रवक्ताओं द्वारा पत्रकारों को धमकाने जैसी घटनाएं चर्चा में रही हैं।
अन्य दलों जैसे तृणमूल कांग्रेस (TMC), डीएमके (DMK), समाजवादी पार्टी (SP) आदि के नेताओं की अमर्यादित भाषा भी क्षेत्रीय, धार्मिक और जातीय अपमान या धमकियों के रूप में सामने आती रही है। महुआ मोइत्रा, दयानिधि मारन, शिवाजी कृष्णमूर्ति और संजय राउत इसके उदाहरण हैं।
मीडिया एवं समाज की प्रतिक्रिया
इन घटनाओं पर मीडिया ने लगातार आलोचना की है, वहीं सोशल मीडिया पर तीखी चर्चाएं होती रही हैं। विपक्षी दलों द्वारा कार्रवाई की मांग बार-बार उठती है, लेकिन राजनीतिक संस्कृति में इस प्रवृत्ति का सामान्यीकरण हो चुका है। यही कारण है कि ठोस कार्रवाई बहुत कम दिखाई देती है।
कानूनी और संस्थागत दृष्टिकोण
नीतिगत स्तर पर भारत सरकार और चुनाव आयोग ने चुनाव अभियान के दौरान अभद्र भाषा पर रोक लगाने के लिए दिशा-निर्देश बनाए हैं। सुप्रीम कोर्ट और अन्य संस्थाओं ने भी समय-समय पर संज्ञान लिया है, किंतु क्रियान्वयन और कानून के असर में अपेक्षित सुधार नहीं दिख रहा है।
आगे की राह
राजनीतिक दलों के प्रवक्ताओं और नेताओं को समाज की भावना, संविधान और लोकतांत्रिक गरिमा का सम्मान रखते हुए बयान देने चाहिए। आलोचना और विरोध लोकतंत्र का हिस्सा हैं, किंतु उन्हें मर्यादित भाषा में व्यक्त करना ही उचित है। यही दृष्टिकोण देशहित और सामाजिक सौहार्द बनाए रख सकता है।
इस प्रकार, भारतीय राजनीति में अमर्यादित भाषा का प्रयोग निरंतर बढ़ रहा है और यह लोकतांत्रिक ताने-बाने को कमजोर कर रहा है। सभी दलों के नेताओं को व्यक्तिगत मान-मर्यादा और संविधान की सीमाओं का सम्मान करना होगा, ताकि राजनीति की गरिमा संरक्षित रह सके।