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दुर्ग। शौर्यपथ । गाय को गऊ माता का दर्जा देने वाली सरकार और नगर निगम की जिम्मेदारी पर बड़ा सवाल खड़ा हो रहा है। धार्मिक दृष्टिकोण से गऊ माता को 33 कोटि देवी–देवताओं का वास माना जाता है, मगर व्यावहारिक स्तर पर उनकी दुर्दशा सड़कों पर खुलेआम दिखाई देती है। शहर की प्रमुख गलियों से लेकर कॉलोनियों तक आवारा मवेशियों का डेरा है। यह नजारा सिर्फ दुर्ग का ही नहीं, बल्कि प्रदेश के अधिकांश शहरों में आम हो चला है।
शहर की सड़कों पर आवारा पशुओं के झुंड दुर्घटनाओं को न्यौता दे रहे हैं। आए दिन राहगीर और वाहन चालक हादसों का शिकार हो रहे हैं। रात में बंद पड़ी स्ट्रीट लाइट और गड्ढों से भरी सड़कें खतरे को और बढ़ा देती हैं। नागरिक सवाल कर रहे हैं कि आखिर शहरी सरकार कब जागेगी?
### निगम प्रशासन पर आरोप
दुर्ग नगर निगम की वर्तमान महापौर **श्रीमती अलका बाघमार** और उनकी टीम की निष्क्रियता को लेकर शहर में चर्चा तेज है। नगर निगम का यह कार्यकाल इतिहास में सबसे अधिक अनुभवहीन और निष्क्रिय शहरी सरकार के रूप में दर्ज हो रहा है। पिछले छह महीनों में शहर की स्थिति और भी बदहाल होती गई है। सफाई व्यवस्था चरमराई हुई है, नाली–नालों की हालत खराब है और नागरिक सुविधाएं पूरी तरह से उपेक्षित पड़ी हैं।
### जनता का सवाल – “गऊ माता” सिर्फ राजनीतिक नारा?
लोगों का कहना है कि गाय को “गऊ माता” कहकर सम्मान देना आसान है, मगर उनकी सुरक्षा और देखभाल पर ठोस नीति बनाना कठिन साबित हो रहा है। दुर्ग की सड़कों पर बैठी और घूमती गऊ माता न सिर्फ यातायात बाधित कर रही हैं, बल्कि उनकी दुर्दशा शहर की बदइंतजामी का आईना भी दिखाती है।
### समाधान की ओर
शहरवासियों का मानना है कि यदि सरकार और निगम प्रशासन वास्तव में गऊ माता की महिमा और सम्मान में विश्वास रखते हैं, तो उन्हें सड़कों पर छोड़कर मरने के लिए नहीं, बल्कि सुरक्षित गौशालाओं और योजनाओं में स्थान मिलना चाहिए। इसके साथ ही शहरी सरकार को आवारा पशुओं के प्रबंधन, सड़क मरम्मत और स्ट्रीट लाइट व्यवस्था जैसी बुनियादी जिम्मेदारियों को प्राथमिकता पर लेना होगा।
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