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(आलेख : संजय पराते)
शौर्यपथ आलेख /नेशनल टेस्टिंग एजेंसी (एनटीए) की निष्पक्ष तरीके से विभिन्न प्रतियोगी परीक्षाओं को आयोजित कर पाने की असफलता ने न केवल इसमें घुसे भ्रष्टाचार को उजागर किया है, बल्कि हमारी समूची शिक्षा प्रणाली के ढहने की ओर भी इशारा किया है ; जिसे नई शिक्षा नीति से सबको संस्कारित करने और कानून के जरिए पेपर लीक जैसे मामलों पर लगाम लगाने के ढपोरशंखी दावे की आड़ में दबाने की कोशिश की जा रही है। पूरे मामले को 'नैतिकता' के आवरण में ढंका जा रहा है और इन मामलों में राजनीति न करने की अपील विपक्ष और देश की जनता से की जा रही है, जबकि शिक्षा प्रणाली का मुद्दा राजनीति से जुड़ा सीधा मसला है। असली मुद्दा यह है कि देश की शिक्षा प्रणाली को सार्वभौम और सार्वजनिक बनाया जाएगा या फिर अन्य क्षेत्रों की तरह ही उसका संपूर्ण निजीकरण किया जाएगा और उसे 'माल' बनाकर कुछ व्यक्तियों और समूहों की इजारेदारी कायम की जाएगी। इस मूल सवाल से भाजपा और उसके संगी-साथी बचकर निकल जाना चाहते हैं।
पहले नीट (एनआईआईटी) के बारे में। जिस परीक्षा के नतीजे 14 जून को आने वाले थे, उसके नतीजे 4 जून को घोषित करना और उस समय, जब पूरा देश लोकसभा चुनाव नतीजों के हो-हल्ले में फंसा हो, आश्चर्य की बात थी। इससे आसानी से नतीजा निकाला जा सकता है कि परीक्षा के नतीजों को किसी शोरगुल में दबाने की साफ साजिश थी। परीक्षा के नतीजों में जो गड़बड़ियां सामने आई, वह इस बात को प्रमाणित करने के लिए काफी हैं।
किन गड़बड़ियों से इस परीक्षा के नतीजों पर प्रश्न चिन्ह लगे हैं? (री-नीट के बाद) कम-से-कम 61 ऐसे उम्मीदवार हैं, जिन्हें 720 में से 720 अंक मिले हैं, जबकि पिछले वर्ष आयोजित परीक्षा में ऐसे केवल 2 लोग ही थे। कई ऐसे उम्मीदवार हैं, जिन्हें 718 और 719 अंक मिले थे। गणितीय दृष्टि से, इस प्रकार के अंक मिलना असंभव है, क्योंकि बहु वैकल्पिक प्रश्नों वाली परीक्षा में प्रत्येक सही उत्तर के लिए 4 अंक निर्धारित थे और प्रत्येक गलत उत्तर देने पर कुल सही प्राप्तांकों में से एक अंक कटना था। इस प्रकार, एक गलत उत्तर के साथ पूरा सही पेपर बनाने वाले उम्मीदवार को 715 अंक ही मिल सकते थे। एनटीए का स्पष्टीकरण है कि ऐसा 1563 उम्मीदवारों को ग्रेस मार्क्स मिलने के कारण हुआ है, जिन्हें परीक्षा के लिए निर्धारित समय से कम समय मिला था, या उन्हें गलत उत्तर देने के लिए इसलिए ग्रेस अंक मिले हैं, क्योंकि कक्षा बारहवीं की एनसीईआरटी की पाठ्यपुस्तक में अशुद्धियां थी और गलत जानकारी दी गई थी। लेकिन परीक्षा की मूल योजना में ग्रेस मार्क्स की कोई अवधारणा नहीं थी और इससे काफी पीछे के उम्मीदवार सामने आ गए थे। बाद में एनटीए ने सुप्रीम कोर्ट के आदेश पर ग्रेस मार्क्स वापस लेकर ऐसे उम्मीदवारों के लिए पुनः परीक्षा आयोजित की है। यह भी अब विवाद के दायरे में है कि ऐसे उम्मीदवारों के लिए परीक्षा आयोजित करना उचित था, क्योंकि उम्मीदवारों को कम समय मिलने की बात संबंधित परीक्षा केंद्रों के प्रभारियों ने नकार दी है। इससे यह सवाल सहज ही उठ खड़ा होता है कि क्या कुछ परीक्षा केंद्रों को कुछ विशेष उम्मीदवारों के लिए बनाया गया था, जहां उन्हें अनुचित लाभ दिलाया जा सके? यह आशंका इसलिए भी सही है कि कुछ परीक्षा केंद्रों के कुछ उम्मीदवारों को लाइन से ऐसे उच्च अंक मिले हैं। इसके साथ ही, सरकार के निर्देशन में एनसीईआरटी द्वारा तैयार हमारे पाठ्य पुस्तकों की सटीकता पर भी प्रश्न चिन्ह लग गया है। इस घपले-घोटाले के उजागर होने के बाद ताबड़तोड़ तरीके से एक के बाद एक दूसरी प्रतियोगी परीक्षाएं भी बिना किसी उजागर कारण के स्थगित की गई है, जिससे यह स्पष्ट अनुमान लगाया जा सकता है कि इन परीक्षाओं के पर्चे भी लीक हो चुके थे और कुछ उम्मीदवारों को नाजायज फायदा दिलाने की सेटिंग हो चुकी थी।
एनटीए जिन प्रतियोगी परीक्षाओं का आयोजन करता है, उनमें हर साल लगभग 1.25 करोड़ परीक्षार्थी शामिल होते हैं और नीट के घपले के साथ अन्य स्थगित परीक्षाओं से कम से कम 50 लाख विद्यार्थी प्रभावित हुए हैं और इसलिए देश का छात्र समुदाय नीट को पुनः आयोजित करने तथा एनटीए को खत्म किए जाने की मांग कर रहा है, तो इसमें गलत कुछ नहीं है। पूरे देश के स्तर पर आयोजित की जाने वाली परीक्षाओं में भ्रष्टाचार, अपारदर्शिता और प्रक्रियागत विफलता से केंद्र सरकार भी बरी नहीं हो सकती, इसलिए सभी प्रभावित छात्रों को केंद्र सरकार द्वारा मुआवजा दिए जाने और शिक्षा मंत्री के इस्तीफे की मांग भी जोर पकड़ती जा रही है। इस मामले में इंडिया समूह से जुड़े राजनैतिक दलों के छात्र संगठन भी एकजुट हो रहे हैं, जिन्होंने 3 जुलाई को जंतर मंतर में एक बड़ा विरोध प्रदर्शन करने के बाद 4 जुलाई को अखिल भारतीय छात्र हड़ताल का आह्वान किया है।
अब एनटीए के बारे में। वर्ष 2018 तक नीट और नेट जैसी परीक्षाएं सीबीएसई द्वारा आयोजित की जाती थी, जो केंद्र सरकार द्वारा नियंत्रित होती है और जिसकी सीधी जवाबदेही जनता के प्रति बनती है। 2018 के बाद इन परीक्षाओं के आयोजन की जिम्मेदारी एनटीए को सौंप दी गई, जो सोसायटी एक्ट के तहत मात्र एक पंजीकृत संस्था है। हालांकि इसके सदस्यों की नियुक्ति केंद्र सरकार करती है, लेकिन यह यह संस्था सरकार के किसी अधिनियम से शासित नहीं है और इसलिए आम जनता के प्रति इसकी कोई जवाबदेही भी नहीं बनती। अगस्त 2023 में प्रदीप जोशी नाम के व्यक्ति को इस संस्था के चेयरमैन पद पर मोदी सरकार ने बैठा दिया, जिनके पास विशिष्ट योग्यता यह थी कि वे आरएसएस के "खांटी स्वयंसेवक और पूर्व एबीवीपी नेता" थे, (नीट कांड के बाद अब इस महानुभाव को हटा दिया गया है)। इस संस्था के पास 'अपना' कहने वाले कर्मचारियों की संख्या केवल 25 हैं और अन्य निजी संस्थाओं (आऊट सोर्सिंग) के जरिए ही यह पूरे देश में परीक्षाओं का आयोजन करती है। ये संस्थाएं किस स्तर पर किस प्रकार की गड़बड़ियों, हेर-फेर और भ्रष्टाचार में शामिल है, इसका पता तब ही चलता है, जब लाखों परीक्षार्थियों का भविष्य बर्बाद हो चुका होता है और इसकी जिम्मेदारी लेने के लिए कोई सामने नहीं आता, सरकार भी नहीं। साफ है कि मोदी राज में एक सार्वजनिक और पारदर्शी परीक्षा प्रणाली का आऊट सोर्सिंग के जरिए पूरी तरह निजीकरण कर दिया गया है, जिसमें पारदर्शिता और उत्तरदायिता का तत्व पूरी तरह से गायब है।
'द इंडियन एक्सप्रेस' की एक रिपोर्ट के अनुसार, पिछले पांच सालों में 15 राज्यों में कम-से-कम 48 पेपर लीक के मामले सामने आए हैं और इसने लगभग 1.2 लाख पदों के लिए कम-से-कम 1.4 करोड़ आवेदकों के जीवन को प्रभावित किया है। इन सभी में राज्य स्तरीय परीक्षाओं का संचालन आऊट सोर्सिंग के जरिए किया गया था। साफ है कि निजीकरण की राह पर चलने वाली राज्य सरकारों ने भी स्वच्छ, निष्पक्ष और पारदर्शी परीक्षाओं के आयोजन की अपनी जिम्मेदारी को छोड़ दिया है। हर क्षेत्र का निजीकरण मोदी सरकार का मूल मंत्र है और एनटीए के जरिए परीक्षाओं का आयोजन इसी नीति का हिस्सा है। वैसे भी मोदी सरकार उच्च पदों पर भर्ती का अधिकार सीधे अपने हाथ में लेना चाहती है, तो प्रतियोगी परीक्षाओं की भी कोई प्रासंगिकता नहीं रहने वाली है।
अब एक श्रद्धांजलि ढहती शिक्षा प्रणाली के लिए। हालांकि शिक्षा एक विषय के रूप में संविधान की समवर्ती सूची में है, लेकिन मोदी सरकार द्वारा इस क्षेत्र में भी संघवाद का उल्लंघन करके राज्यों का अधिकार हड़पा जा रहा है। मोदी सरकार द्वारा लागू की जा रही नई शिक्षा नीति का मुख्य उद्देश्य शिक्षा का निजीकरण करना और पाठ्यक्रम में आरएसएस के सांप्रदायिक नजरिए को घुसाना, और इस प्रकार सार्वभौमिक और वैज्ञानिक शिक्षा प्रदान करने के लिए आवश्यक धर्मनिरपेक्ष वस्तुपरकता का त्याग करना है। नतीजन, पूरे देश में सरकारी स्कूल बंद हो रहे हैं और निजी स्कूलों की संख्या बढ़ रही है। मोदी सरकार के आंकड़ों के अनुसार ही, देश में वर्ष 2018-19 में स्कूलों की संख्या 15,50,476 थी, जो वर्ष 2021-22 में घटकर 14,89,115 रह गई थी। दो वर्षों में ही 61,361 स्कूलों के कम होने का अर्थ है, 5-6 करोड़ बच्चों का शिक्षा क्षेत्र से बाहर होना। निश्चित ही, ये बच्चे कमजोर सामाजिक-आर्थिक समुदाय से ताल्लुक रखते हैं और इनमें से अधिकांश ग्रामीण क्षेत्रों से होंगे। साफ है कि हमारे बच्चों को "संस्कारित" करने का दावा करने वाली यह शिक्षा नीति गरीब और पिछड़े समुदायों के बच्चों को अज्ञानता के अंधकार में ही ढकेलने वाली साबित होने जा रही है। यह नीति उच्च शिक्षा के स्तर से आम जनता को वंचित करने की सोची-समझी नीति है।
जिस प्रकार पौराणिक कथाओं और मिथकों को इतिहास के रूप में स्थापित करने की मुहिम चलाई जा रही है, वह देश के जन मानस को आधुनिक और वैज्ञानिक विश्व दृष्टि से दूर करने का ही काम करेगी। इसी संदर्भ में, एनसीईआरटी की पाठ्य पुस्तकों में त्रुटियों को नजरअंदाज नहीं किया जाना चाहिए। एक स्वस्थ और वैज्ञानिक शिक्षा हमारे देश की 'विविधता में एकता' को बढ़ावा देगी, लेकिन एक पोंगापंथी और सांप्रदायिक शिक्षा 'विविधता में एकता को छिन्न-भिन्न' करेगी, सौहार्द्र और सद्भाव की जगह नफरत का प्रचार करेगी। मोदी-शाह के नेतृत्व में संघी गिरोह शिक्षा नीति का एक ऐसे हथियार के रूप उपयोग करना चाहता है, जिसके जरिए धर्मनिरपेक्ष भारत को एक "संकीर्णतावादी और फासीवादी हिंदू राष्ट्र" में तब्दील किया जा सके।
शिक्षा नीति को एक सांप्रदायिक हथियार में ढालकर पूरी शिक्षा प्रणाली को बर्बाद करने और परीक्षा प्रणाली का निजीकरण करके चंद धनाढ्यों के लिए 'अवसर' सुनिश्चित करने की मोदी सरकार की साजिशों के खिलाफ आम जनता और इस देश के छात्र समुदाय को लड़ना होगा। 4 जुलाई को आहूत अखिल भारतीय छात्र हड़ताल इसकी अंगड़ाई है, आगे और लड़ाई है। यह संघर्ष मोदी सरकार के कुकर्मों को अनकिया करने तक जारी रहने की घोषणा है।
(लेखक : संजय पराते स्टूडेंट्स फेडरेशन ऑफ इंडिया, मध्यप्रदेश के पूर्व अध्यक्ष और अखिल भारतीय किसान सभा से संबद्ध छत्तीसगढ़ किसान सभा के उपाध्यक्ष)*
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