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नई दिल्ली /शौर्यापथ/
काशी के कार्यक्रम पर भारीभरकम खर्च यूपी के आगामी चुनाव के प्रचार का हिस्सा है और बीजेपी यह मानती है कि इससे वोटों को अपने पाले में खींचने में कामयाब रहेगी, जैसा कि पहले भी उसने किया है.
अगर किसी को इस बात का सबूत चाहिए कि बीजेपी ने किस तरह भारतीय राजनीति को पूरी तरह बदल दिया है तो उसे सिर्फ प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के ताजा बनारस दौरे का सजीव टीवी प्रसारण देखना चाहिए. हर-हर महादेव के गूंजते नारों के बीच उन्होंने काशी विश्वनाथ धाम प्रोजेक्ट का लोकार्पण किया, गंगा में डुबकी लगाई और काल भैरव मंदिर में पूजा अर्चना की. उन्होंने प्रेम और आशीर्वाद के लिए गंगा को धन्यवाद देते हुए ट्वीट किया. जब तक मोदी का आगमन नहीं हुआ था, तब तक ऐसा नहीं हुआ कि किसी प्रधानमंत्री ने किसी पूजा अर्चना के कार्य के लिए भारी सैटेलाइट टीवी को जुटाया गया, ताकि जनता को भव्यता का पूरा दर्शन कराया जा सके. यहां तक कि बीजेपी-हिन्दुत्व की पार्टी- भी मोदी युग के पहले राजनीति में धर्म के मिश्रण को लेकर इतनी जोशोखरोश में नहीं थी.
आप यह तर्क दे सकते हैं कि पीएम मोदी की यह इच्छा रही है कि उनके आसपास वो धार्मिक आभामंडल बना रहे. लेकिन जिस बात से आप इनकार नहीं कर सकते हैं, वो उनका कामकाज है. काशी के कार्यक्रम पर भारीभरकम खर्च यूपी के आगामी चुनाव के प्रचार का हिस्सा है और बीजेपी यह मानती है कि इससे वोटों को अपने पाले में खींचने में कामयाब रहेगी, जैसा कि पहले भी उसने किया है.
इस कामयाबी का एक नतीजा ये निकलता है कि दूसरे दल भी यही खेल खेलने को मजबूर हुए हैं. अखिलेश यादव ने कहा है कि काशी विश्वनाथ कॉरिडोर (Kashi Vishwanath Corridor) का श्रेय उन्हें ही जाता है और यह प्रोजेक्ट उनकी सरकार ने स्वीकृत किया था. इससे थोड़े वक्त पहले ही अरविंद केजरीवाल की आम आदमी पार्टी ने दिल्ली-अयोध्या की बुजुर्गों के लिए मुफ्त यात्रा का प्रचार करने में कोई कसर नहीं छोड़ी. इसमें पूरी तरह से धार्मिक प्रतीकों का इस्तेमाल किया गया, यहां तक कि एक चित्र में एक ऐसे संत की तस्वीर थी, जो नरेंद्र मोदी की तरह ही दिखता था.
प्रधानमंत्री के काशी के कायाकल्प से जुड़े भव्य आयोजन के पहले राहुल गांधी ने राजस्थान की एक रैली में बताया था कि कैसे हिन्दू एक महान धर्म है. वहीं ममता बनर्जी भी हालिया बंगाल विधानसभा चुनाव के प्रचार में हिन्दू प्रतीकों का इस्तेमाल करते हुए खुश दिखाई पड़ीं. मोदी ने नियमों को इस कदर बदल दिया है कि ये दल, जो अभी तक हिन्दू पहचान वाली राजनीति को लेकर बीजेपी पर हमला करते रहते थे, अब वो खुद हिन्दू धर्म के बारे में जोशोखरोश से अपनी बात रख रहे हैं.
इसकी एक वजह है कि उन्हें भय है कि कहीं उन्हें हिन्दू विरोधी के रूप में पेश न किया जाए.
कांग्रेस का आंतरिक सर्वे बताता है कि बहुत से मतदाता उसे मुस्लिम समर्थक पार्टी मानते हैं, जो हिन्दुओं की परवाह नहीं करती. कांग्रेस प्रमुख सोनिया गांधी ने खुले तौर पर इस नजरिये को सुधारने की जरूरत पर बल दिया था, जिसमें कांग्रेस को हिन्दू विरोधी माना जाता है. हिन्दुओं के प्रति कोई पूर्वाग्रह न होने की छवि बनाने के लिए कांग्रेस ने जो भी प्रयास किए हैं, उसके पीछे उसकी ये सोच है कि बीजेपी ने उसकी इमेज खराब की है. उसने बेहद कामयाबी से सेकुलर राजनीति को मुस्लिम समर्थक की तरह पेश कर मतदाताओं के बीच गलत धारणा बनाई गई. दिल्ली में पिछले चुनाव में आप ने ज्यादातर मुस्लिम वोट हासिल कर चुनाव जीता था, लेकिन उसका यकीन है कि उसे अब हिन्दुओं के बीच पैठ बढ़ाने की जरूरत है.
दूसरी वजह है कि बहुत से विपक्षी नेता जो खुद हिन्दू धर्म के अनुयायी हैं, वो वोट पाने के लिए हिन्दू धर्म को हाईजैक करने के प्रयास से इत्तफाक नहीं रखते. वो मानते हैं कि धर्म निजी मसला है और बीजेपी की वोटों को पाले में लाने के नजरिये से बेहद व्यथित हैं. हालांकि निजी तौर पर वो साफ तौर पर राजनीतिक हिन्दूवाद और धार्मिक हिन्दूवाद में अंतर करते हैं. देरी से, राहुल गांधी ने जनता के बीच इस मुद्दे को लेकर गए हैं और वो हिन्दू धर्म और हिन्दुत्व के बीच फर्क बताने का प्रयास कर रहे हैं. उन्होंने पार्टी के मंच से ये बात कही. राजस्थान की रैली में उन्होंने कहा, गांधीजी हिन्दू थे, लेकिन जिस व्यक्ति ने उनकी हत्या की, वो हिन्दुत्ववादी था.
यह अंतर सही है, लेकिन इस रणनीति पर दांव लगाना कई सारी चुनौतियां पैदा करता है. पहला तो ये कि क्या जब एक राजनीतिक रैली में ये बातें बोलते हैं तो क्या जनता इसका अंतर वास्तव में समझ पाती है क्या? राहुल के भाषण के बाद सोशल मीडिया में कांग्रेस समर्थकों की यह चिंता दिखाई दी कि हिन्दुत्ववादी बहुत जटिल शब्द है, जो एक रैली में जनता के बीच कहा जाता है. क्या वो सिर्फ सिंघी नहीं कह सकते थे?
दूसरी समस्या है कि जब आप हिन्दुत्व पर हमला करते हैं तो आपको हिन्दू होने का अहसास कराने के लिए ज्यादा शिद्दत दिखनी पड़ती है, ताकि आपको हिन्दू विरोधी के तौर पर चित्रित न किया जाए. इस कवायद में जोखिम रहता है कि आप खुद को हिन्दू राष्ट्रवादी के तौर पर न पेश कर दें. लेकिन विपक्ष मूलतः यह मानता है कि उसे हिन्दूवाद को बीजेपी से वापस लेना है. उसका तर्क है कि जब तक अन्य राजनीतिक दल धर्म को परे रखकर प्रचार करते रहेंगे, तब तक बीजेपी का हिन्दू को लेकर पकड़ कायम रहेगी. और अगर सभी हिन्दू धर्म और हिन्दू परंपराओं को सार्वजनिक तौर पर मानने लगेंगे तो बीजेपी के लिए इस तर्क को भुनाना मुश्किल हो जाएगा कि वो ही सिर्फ ऐसी पार्टी है, जो हिन्दुओं का ख्याल रखती है.
इन सभी तर्कों में कुछ न कुछ दम है. लेकिन खतरा भी है. हिन्दुत्व सिर्फ मंदिरों में पूजा अर्चना नहीं है. मौजूदा राजनीतिक अवधारणा के केंद्र में मुस्लिमों के प्रति घृणा की मजबूत लकीर है. प्रधानमंत्री के स्तर पर, यह पूरी तरह उनके भाषणों से गायब रहता है, लेकिन इसके लिए आपको योगी आदित्यनाथ और अन्य बीजेपी नेताओं को सुनना होगा कि कैसे मुस्लिमों के प्रति घृणा से प्रेरित बयान इस हिन्दुत्ववादी प्रोजेक्ट का अभिन्न हिस्सा हैं.
प्राचीन वैदिक परंपरा के नाम पर वोटों को खींचने की क्षमता सीमित है. लेकिन दुखद है, ऐसा प्रतीत होता है कि जब आप सांप्रदायिक माहौल को गरमा कर मुस्लिमों को ऐसे खतरनाक कट्टरपंथियों के तौर पर पेश करते हैं-जो हिन्दुओं और हिन्दू हितों के खिलाफ काम करता है- तो वोटों को पाले में खींचने की कोई सीमा नहीं रह जाती. यही विपक्षी दलों की सबसे बड़ी दुविधा है, जब वो हिन्दू धर्म की प्रशंसा की रणनीति पर आगे बढ़ते हैं. ऐसे वक्त जब भारत की सबसे बड़े धार्मिक अल्पसंख्यक आबादी खतरे में है तो क्या मुस्लिमों के बीच सेकुलर देश में उनकी अहमियत को लेकर भरोसा देने की जरूरत नहीं है? या आप सारी ऊर्जा हिन्दुओं के बीच यह सुनिश्चित करने में लगा देते हैं कि आप उनके साथ हैं.
यही नहीं, बीजेपी प्रायः तब ज्यादा वोट पाती है, जब हिन्दू और मुस्लिमों के बीच रिश्तों में तनाव होता है. लेकिन ऐसे वक्त आप क्या करेंगे, जब सांप्रदायिक तनाव चरम पर हो. ऐसे मौके पर सभी नरम हिन्दूवादी राजनीतिक बातें नाकाम हो जाती हैं. आपको एक भी हिन्दू वोट नहीं मिलेगा, जब हिन्दू धर्म की सहिष्णुता की परंपरा की बातें करते हैं, तो क्या आप इस रुख से हटकर क्या धर्मनिरपेक्षता औऱ अल्पसंख्यकों की सुरक्षा के हक में दोबारा खड़े होंगे.
क्योंकि बीजेपी चुनाव जीतने की ओर देख रही है, उसने यह समझ लिया है कि वो सिर्फ केंद्र सरकार के रिकॉर्ड के आधार पर प्रचार नहीं कर सकती. इसका रिकॉर्ड ज्यादा अच्छा नहीं है और चुनाव में भारी जीत के लिए दमदार हथियार नहीं है. लगातार जीतने के लिए उसे हिन्दुत्व के कोर मुद्दे पर ध्यान देने की जरूरत है, उसे ऐसी विचारधारा के तौर पर जो मुस्लिमों और आक्रमणकारियों के खिलाफ हिन्दुओं की रक्षा करती है.
विपक्ष भी मजबूर है. वो हिन्दू धर्म की प्रशंसा कर सकता है, लेकिन उस हद तक नहीं जा सकता, जितनी कि बीजेपी. दूसरी ओर, हिन्दू बहुल देश में वो आसानी से चुनाव नहीं जीत सकते, अगर उन्हें हिन्दू विरोधी समझा जाए. यह एक रास्ता है, जिसमें मोदी ने नियमों को बदल दिया है. यही एक रास्ता है, जहां बीजेपी भारतीय राजनीति में बदलाव से फायदा उठा रही है.
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