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नजरिया /शौर्यपथ /चीन की पीपुल्स लिबरेशन आर्मी (पीएलए) की टुकड़ियों के साथ वास्तविक नियंत्रण रेखा (एलएसी) पर हुई झड़पों में भारतीय सेना के एक कर्नल सहित 20 जवानों की मौत पर शोक व्यक्त करते हुए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने जोर दिया कि हमारे जवानों का बलिदान व्यर्थ नहीं जाएगा। हमारे लिए भारत की अखंडता और संप्रभुता सर्वोच्च है और इसकी रक्षा करने से हमें कोई रोक नहीं सकता। उन्होंने यह भी कहा कि ‘मतभेदों को विवाद नहीं बनने देना चाहिए’, लेकिन यही दिशा है, जिधर भारत-चीन संबंध अब बढ़ चले हैं। देश में रोष और पीड़ा की भावना के मद्देनजर यह विवाद आगे बढ़ सकता है।
सीमा पर संघर्ष में पीएलए के मारे गए सैनिकों की संख्या के बारे में खबरें अपुष्ट हैं। यह याद दिलाता है कि चीन अपने हताहत सैनिकों की कोई आधिकारिक संख्या जारी नहीं करता है। उदाहरण के लिए, भारत के साथ 1962 के युद्ध में चीनी हताहतों की संख्या भी पहले सामने नहीं आई थी। हताहतों की संख्या को पीएलए के आंतरिक सैन्य इतिहास के दस्तावेजों में 1990 के दशक के मध्य में ही साझा किया गया। यह ध्यान रखना अहम है कि भारत जैसे मजबूत लोकतंत्र के पारदर्शी दृष्टिकोण और चीन जैसे सत्तावादी शासन की अलहदा दृष्टि के बीच एक स्पष्ट अंतर है। गलवान में पीएलए ने जिन बर्बर तरीकों को अपनाया है, उसके कई कारण बताए जा रहे हैं। पीएलए द्वारा पूर्वी लद्दाख में घुसपैठ और सीमा बढ़ाने के कारणों की गहराई में जाना होगा, शायद उसी तरीके से, जैसे कारगिल समीक्षा समिति बनाई गई थी और ऐसा करते हुए नीतिगत कमियों को दूर करना होगा। फिलहाल हमारा ध्यान ‘क्यों’ पर नहीं, ‘आगे क्या’ पर होना चाहिए।
भारत को अपने विकल्पों को सामने रख सावधानी से सोचना होगा और दृढ़ रहना होगा। एक कर्नल का नुकसान किसी भी सेना के लिए बड़ा झटका होता है और भारतीय सेना जैसा उचित समझेगी, जवाब देगी। नाथू ला और चो ला की 1967 की लड़ाई में भारत ने 100 जानें गंवाईं, लेकिन अक्तूबर 1962 के अपमान के दाग को मिटा दिया था, वह जवाब पीएलए की सामूहिक यादों का हिस्सा होगा। हां, भारत के विकल्प सैन्य क्षेत्र से आगे निकल जाएंगे, और यह वास्तव में उन उद्देश्यों से तय होगा, जो नई दिल्ली खुद के लिए तात्कालिक और दीर्घकालिक, दोनों तौर पर तय करेगी। चीन को पूर्वी लद्दाख से वापस पहले की स्थिति में भेजना प्राथमिकता व उद्देश्य होगा, लेकिन जैसा कि जाहिर है, इस उद्देश्य को हासिल करना ही भारत के लिए चुनौती है। चीन अभी गलवान घाटी और अन्य क्षेत्रों में अधिक लाभदायक स्थिति में है, जहां वह आगे बढ़ा है या जहां कब्जा कर चुका है। जहां तक चल रही वार्ता का संबंध है, भारत के लिए यह स्थिति बहुत अनुकूल नहीं है।
क्षेत्र संबंधी विवाद को जान-बूझकर आगे बढ़ाने की कला में चीन माहिर है। वह भलमनसाहत में पीछे हटता दिखते हुए भी अंतत: यह सुनिश्चित करता है कि उस भूभाग पर उसका कब्जा सच्चाई में बदल जाए। डोका ला के मामले में भी यही दिखा था। क्षेत्रीय और सामरिक भूगोल के प्रति चीन की अंतर्निहित योजना के बारे में कोई भ्रम नहीं होना चाहिए। पर भारत ने रणनीतिक भूगोल या सैन्य इतिहास से सीखने को लेकर कोई संकल्प या कौशल नहीं दर्शाया है। लोकतांत्रिक उद्देश्य असंतोष और बहस से पनपते हैं, पर संकट के समय हमें राष्ट्रीय सर्वसम्मति से काम लेना चाहिए। चीन से मिली चुनौती एक अपील भी है कि सियासी दल परस्पर जूझना बंद कर दें। इस दिशा में आयोजित सर्वदलीय बैठक उत्साहजनक है। पिछले 60 वर्षों के इतिहास से संकेत मिलता है कि भारत के भीतर राजनीतिक व वैचारिक विभाजन का फायदा उठाने में चीन सक्षम रहा है, ताकि वह अशांत द्विपक्षीय संबंधों की कहानी अपने हिसाब से लिख सके।
ध्यान रहे, चीन 21वीं सदी के आर्थिक व तकनीकी तंत्र का हिस्सा रहेगा और भारत के विकल्प भी इससे अलग नहीं होंगे। चाहे महामारी दुनिया को दो-धु्रवीय बना दे या लोकतांत्रिक देशों का एक विवादित समूह बन जाए, इससे भारत का रुख तय होगा। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के लिए गलवान की चुनौती पंडित नेहरू और 1962 के आघात के समान हो सकती है या 1982 के मार्गरेट थैचर व फॉकलैंड विजय के समान। अगले कुछ महीने भारत व एशिया के लिए अहम होंगे।
(ये लेखक के अपने विचार हैं) सी उदय भास्कर, निदेशक, सोसाइटी ऑफ पॉलिसी स्टडीज
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