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शौर्यपथ लेख
१. जीवन का सत्य- हम जन्म क्यों लेते हैं ? – प्रस्तावना
प्रायः हमसे यह प्रश्न पूछा जाता है, ‘जीवन का सत्य क्या है ?’ अथवा ‘जीवन का उद्देश्य क्या है ?’ अथवा ‘हम जन्म क्यों लेते हैं ?’ जीवन के उद्देश्य के संदर्भ में अधिकतर हमारी अपनी योजना होती है; किंतु आध्यात्मिक दृष्टि से सामान्यतः जन्म के दो कारण हैं । ये दो कारण हमारे जीवन के उद्देश्य को मूलरूप से परिभाषित करते हैं । ये दो कारण हैं :
विभिन्न लोगों के साथ अपना लेन-देन पूरा करने के (चुकाने के) लिए ।
आध्यात्मिक प्रगति कर ईश्वर से एकरूप होने का अंतिम ध्येय साध्य करने के लिए, जिससे कि जन्म-मृत्यु के चक्र से मुक्ति मिले ।
२. जीवन का सत्य – अपना लेन-देन चुकाना (पूर्ण करना)
अनेक जन्मों में हुए हमारे कर्म एवं क्रियाआें के परिणामस्वरूप हमारे खाते में भारी मात्रा में लेन-देन इकट्ठा होता है । ये लेन-देन हमारे कर्मों के स्वरूप के अनुसार अच्छे अथवा बुरे होते हैं । सर्वसाधारण नियमानुसार वर्तमान युग में हमारा ६५% जीवन प्रारब्धानुसार (जो कि हमारे नियंत्रण में नहीं है) और ३५% जीवन हमारे क्रियमाण कर्म अनुसार (इच्छानुसार नियंत्रित) होता है । हमारे जीवन की सर्व महत्वपूर्ण घटनाएं अधिकतर प्राब्धानुसार ही होती हैं, यही जीवन का सत्य है । इन घटनाआें में जन्म, परिवार (कुल), विवाह, संतान, गंभीर व्याधियां तथा मृत्यु का समय आदि अंतर्भूत हैं । जो सुख और दुःख हम अपने परिजनों को तथा परिचितों को देते हैं अथवा उनसे पाते हैं; वे हमारे पिछले लेन-देन के कारण होता है । ये लेन-देन निर्धारित करते हैं कि जीवन में हमारे सम्बंधों का स्वरूप, तथा उनका आरंभ और अंत कैसे होगा ।
वर्तमान जन्म में हमारा जो प्रारब्ध है, वह वास्तव में हमारे संचित का मात्र एक अंश है; जो अनेक जन्मों से हमारे खाते में जमा हुआ है ।
हमारे जीवन में यद्यपि पूर्व निर्धारित इस लेन-देन और प्रारब्ध को हम पूरा करते भी हैं; तथापि जीवन के अंत में अपने क्रियमाण (ऐच्छिक) कर्मों द्वारा उसे बढाते भी हैं । जीवन के अंत में यह हमारे समस्त लेन-देन में संचित के रूप में जोडा जाता है । परिणामस्वरूप इस नए लेन-देन को चुकाने के लिए हमें पुनः जन्म लेना पडता है और हम जन्म-मृत्यु के चक्र में फंस जाते हैं ।
संदर्भ : जन्म-मृत्यु के चक्र में हम कैसे फंस जाते हैं, इसका विवरण ‘जन्म-मृत्यु के चक्र से मुक्ति (मोक्ष)’ इस लेखमें प्रस्तुत है ।
३. जीवन का सत्य- आध्यात्मिक प्रगति
किसी भी साधना पथ पर आध्यात्मिक विकास का चरम है परमेश्वर में विलीन होना । इसका अर्थ है, हममें तथा हमारे सर्व ओर विद्यमान ईश्वर को अनुभव करना, जो हमारी पंचज्ञानेंद्रियों, मन तथा बुद्धि के परे है । यह १००% आध्यात्मिक स्तर पर संभव होता है । वर्तमान युग में अधिकतर लोगों का आध्यात्मिक स्तर २०-२५% है और उन्हें आध्यात्मिक विकास हेतु साधना करने में कोई रूचि नहीं रहती । उनका अधिकाधिक तादात्म्य अपनी पंच ज्ञानेंद्रियों, मन और बुद्धि से रहता है । इसका प्रभाव हमारे जीवन में व्यक्त होता है, उदाहरणार्थ, जब हम अपने सौंदर्य पर अधिक ध्यान देते हैं अथवा हमें अपनी बुद्धि अथवा सफलता का अहंकार होता है ।
साधना द्वारा हमारा जब समष्टि आध्यात्मिक स्तर ६०% अथवा व्यष्टि आध्यात्मिक स्तर ७०% हो जाता है, तब हम जन्म-मृत्यु के चक्रसे मुक्त हो जाते हैं । इसके उपरांत हम अपने शेष लेन-देन को महर्लोक और आगे के उच्च सूक्ष्म लोकों में चुका सकते हैं (पूर्ण कर सकते हैं) । ६०% (समष्टि) अथवा ७०% (व्यष्टि) आध्यात्मिक स्तर के आगे पहुंचे कुछ जीव मानवता का आध्यात्मिक मार्गदर्शन करने के लिए पृथ्वी पर जन्म लेने में रूचि रखते हैं ।
अध्यात्म के छः मूलभूत सिद्धांतों के अनुसार साधना करने पर ही आध्यात्मिक विकास संभव है । जो आध्यात्मिक मार्ग इन छः मूलभूत सिद्धांतों का अवलंब नहीं करते, उनके अनुसार साधना करने वालों का विकास बाधित हो जाता है ।
४. हमारे जीवन के लक्ष्यों के संदर्भ में जीवन का सत्य क्या है ?
हममें से अधिकतर लोगों के जीवन के कुछ लक्ष्य होते हैं, उदाहरणार्थ डॉक्टर बनना, धनवान बनना और प्रतिष्ठा कमाना अथवा किसी विशिष्ट क्षेत्र में अपने राष्ट्र का प्रतिनिधित्व करना । लक्ष्य जो भी हो, अधिकांश लोगों के लिए वह प्राय: एवं प्रमुखत: सांसारिक ही होता है । हमारी संपूर्ण शिक्षा प्रणाली इस प्रकार से विकसित की गई है कि हम इन सांसारिक लक्ष्यों का अनुसरण कर सकें । अभिभावक होने के नाते हम भी अपने बच्चों के सामने ये सांसारिक लक्ष्य रखकर उन्हें शिक्षित करते हैं, तथा ऐसे व्यवसायों के लिए प्रोत्साहित करते हैं जिनसे उन्हें हमसे अधिक आर्थिक लाभ मिले ।
किसी के मन में यह प्रश्न उभर सकता है कि इन सांसारिक लक्ष्यों का, जीवन के आध्यात्मिक ध्येय एवं पृथ्वी पर जन्म लेने के कारणों के साथ सामंजस्य कैसे हो सकता है ? उत्तर बहुत ही सरल है । हम सांसारिक लक्ष्यों के पीछे इसलिए भागते रहते हैं कि हमें संतोष एवं आनंद (सुख) प्राप्त हो । सामन्यतः अप्राप्य ऐसे सर्वोच्च और चिरंतन सुख की अभिलाषा ही हमारे प्रत्येक कृत्य की अंगभूत प्रेरणा होती है । किंतु वास्तव में सांसारिक लक्ष्यों की पूर्ति होने पर भी प्राप्त सुख और संतोष अल्पकाल के लिए ही टिकता है । हम कोई अन्य सुख पाने का स्वप्न देखने लगते हैं ।
‘परम और चिरस्थायी सुख’ की प्राप्ति केवल साधना द्वारा ही संभव है, जो छः मूल सिद्धांतों पर आधारित है । सर्वोच्च श्रेणी के सुखको आनंद कहते हैं, जो ईश्वर का गुणधर्म है । जब हम ईश्वर से एकरूप हो जाते हैं तब हमें भी उस चिरस्थायी आनंद की अनुभूति होती है । इसका अर्थ यह नहीं है कि हम अपने दैनिक जीवन में जो कुछ कर रहे हैं, वह छोडकर केवल साधना पर ही ध्यान केंद्रित करें । अपितु इसका आशय यह है कि सांसारिक जीवन के साथ साधना के संयोजन से परम और चिरस्थायी सुख की प्राप्ति संभव है। यही जीवन का सत्य है। साधना के लाभ का विस्तृत विवेचन ‘चिरस्थायी सुख के लिए आध्यात्मिक शोध‘ के स्तंभ में दिया है ।
संक्षेप में हमारे जीवन के लक्ष्य, आध्यात्मिक प्रगति के आशय से जितने अनुरूप होंगे, उतना ही हमारा जीवन अधिक समृद्ध होगा और उतना ही हमें कष्ट अल्प होगा। यही जीवन का सत्य है। निम्नलिखित उदाहरण से यह स्पष्ट होगा कि आध्यात्मिक विकास एवं परिपक्वता के फलस्वरूप, जीवन के प्रति हमारा दृष्टिकोण कैसे परिवर्तित होता है ।
५. सांसारिक जीवन और आध्यात्मिक उद्देश्य के बीच सामंजस्य के उदाहरण
एस.एस.आर.एफ. में हमारे साथ ऐसे कई स्वयंसेवक हैं, जो यथाक्षमता अपना समय तथा कुशलता ईश्वर की सेवा में अर्पित कर रहे हैं । उदाहरणार्थ,
हमारे एक सदस्य सूचना प्रौद्योगिकी (आइ.टी) के परामर्शदाता हैं और वे अपने अवकाश में हमारे जालस्थल के तकनीकी कार्य संभालते हैं ।
संपादकीय विभाग की एक सदस्या मनोरोग-चिकित्सक हैं और वे अपलोड की जानेवाली जानकारी चिकित्सकीय तथा आध्यात्मिक दृष्टि से जांचने में सहायता करती हैं ।
एस.एस.आर.एफ. की एक अन्य सदस्या अपने व्यवसाय के लिए विविध देशों में यात्रा करती हैं । वे अपने अवकाश में उस देश के समविचारी संगठनों को एस.एस.आर.एफ. के जालस्थल की जानकारी देती हैं ।
एक गृहिणी आध्यात्मिक कार्यक्रमों में आनेवालों के लिए खाद्यपदार्थ बनाने में सहायता करती हैं ।
अपनी दिनचर्या का अध्यात्मीकरण करने से एस.एस.आर.एफ. के सदस्यों के जीवन में भारी सकारात्मक परिवर्तन हुए हैं । आनंद में वृद्धि होना और दुःख की मात्रा अल्प होना, ये महत्वपूर्ण परिवर्तन हैं । जीवन के किसी दुःखभरे प्रसंग में अथवा दर्दनाक स्थिति में वे अनुभव करते हैं, मानो किसी ने उनके आस-पास सुरक्षा कवच बना दिया है ।
६. जीवन का सत्य – बार-बार जन्म लेने में अनुचित क्या है ?
कभी-कभी लोग सोचते हैं कि बार-बार जन्म लेने में अनुचित क्या है ? जैसे ही हम वर्तमान कलियुग में (संघर्ष के युग में) आगे बढेंगे, वैसे जीवन समस्याआें तथा दुःखों से घिर जाएगा । आध्यात्मिक शोध द्वारा यह पता चला है कि विश्वभर में औसतन ३०% समय मनुष्य खुश रहता है तथा ४०% समय वह दुखी ही रहता है । शेष ३०% समय मनुष्य उदासीन रहता है । इस दशा में उसे सुख-दुख का अनुभव नहीं होता । उदा. जब कोई व्यक्ति रास्ते पर चल रहा होता है अथवा कोई व्यावहारिक कार्य कर रहा होता है तब उसके मन में सुखदायक अथवा दुखदायक विचार नहीं होते, वह केवल कार्य करता है ।
इसका प्राथमिक कारण है कि अधिकतर व्यक्तियों का आध्यात्मिक स्तर अल्प होता है । इसीलिए अनेकों बार हमारे निर्णय एवं आचरण से अन्यों को कष्ट होता है । साथ ही, वातावरण में रज-तम फैलाता है । फलस्वरूप नकारात्मक कर्म और लेन-देन का हिसाब बढता है । इसीलिए अधिकतर मनुष्यों के लिए वर्तमान जन्म की अपेक्षा आगे के जन्म दुखदायी होते हैं ।
यद्यपि विश्व ने आर्थिक, वैज्ञानिक और तकनीकी प्रगति की है, तथापि सुख (जो हमारे जीवन का मुख्य ध्येय है) के संदर्भ में, हम पिछली पीढियों की अपेक्षा निर्धन हैं ।यही जीवन का सत्य है ।
हम सब सुख चाहते हैं; परंतु प्रत्येक का अनुभव है कि जीवन में दुख आते ही हैं । ऐसे में अगले जन्म में और भविष्य के जीवन में सर्वोच्च तथा चिरंतन सुख प्राप्त होने की निश्चिति नहीं है । जीवन का सत्य है, केवल आध्यात्मिक उन्नति और ईश्वर से एकरूपता ही हमें निरंतर और स्थायी सुख दे सकते हैं।
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