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मेरी कहानी / शौर्यपथ / यह 90 के दशक की बात है, मुझे मैहर से ‘इन्विटेशन’ आया कि वहां गाना है। मैं मुंबई में गाकर ट्रेन से मैहर पहुंची। वह फ्लाइट का जमाना नहीं था। मैं एक रात पहले ही वहां पहुंची थी। हालांकि मैंने तार-चिट्ठी सब भेज दी थी कि फलां ट्रेन से पहुंच रही हूं, लेकिन कोई सूचना नहीं पहुंची। आयोजकों ने सोचा कि मेरा पता तो दिल्ली का है, सो मैं दिल्ली से ही आ रही हूं। रात के करीब सवा नौ बजे मैं वहां पहुंची। छोटा सा स्टेशन। ट्रेन से उस स्टेशन पर इकलौती मैं ही उतरी थी। वहां कोई नहीं था आयोजकों की तरफ से। उन दिनों मोबाइल नहीं था। मैं अकेली थी, तो थोड़ा डर भी लग रहा था। देखा, तो झाड़ू लगाने वाले एक व्यक्ति वहां से कुछ दूरी पर घूम रहे थे। वह आए, नमस्कार किया और उन्होंने पूछा कि आप कार्यक्रम के लिए आई हैं? मैंने कहा- जी। उन्होंने कहा कि आप बिल्कुल चिंता मत कीजिए। मैं अभी स्टेशन मास्टर के कमरे में जाकर उन लोगों को खबर भेजता हूं। तब तक आप आराम से बैठिए। 10-15 मिनट में कोई आ जाएगा। मुझे समझ में नहीं आया कि यह सज्जन जो इतनी मदद कर रहे हैं, आतिथ्य दिखा रहे हैं, मैं उसे स्वीकार करूं भी या नहीं? उन्होंने स्टेशन मास्टर का कमरा खोला, मुझे वहां बिठाया। थोड़ी देर में चाय आ गई। कुछ ही मिनट के भीतर आयोजकों की तरफ से भी कुछ लोग आ गए। उन लोगों ने कहा- अरे आप मुंबई से आ गईं, हम लोग तो सोच रहे थे कि आप दिल्ली से आएंगी। हम लोग वहां से सामान लेकर निकलने लगे, तो वह सज्जन वहीं खड़े थे। मैंने उनके पास जाकर कहा कि मुझे समझ में नहीं आ रहा कि मैं कैसे आपका धन्यवाद करूं? उन्होंने कहा कि नहीं-नहीं, ऐसा कोई धन्यवाद नहीं, आप यहां आईं, यही बड़ी बात है। बस एक गुजारिश है कि ‘परज’ बहुत दिनों से नहीं सुना है। वह सुना दीजिएगा कल। मैं हक्की-बक्की रह गई।
लेकिन मैं सड़क पर निकलूं और लोग पहचान जाएं, वह समय अली मोरे अंगना और अबकी सावन गाने के बाद आया। 1996 में अली मोरे अंगना गाया और 1999 में अबकी सावन । इसमें कोई दो राय नहीं है कि इसके बाद मुझे अलग ही पहचान मिली। दिल्ली में एक स्टूडियो है, जो जवाहर वत्तल चलाते थे। उन दिनों वह बहुत काम कर रहे थे। उस समय के जो इंडी पॉप के स्टार थे- बाबा सहगल हों, दलेर मेहंदी हों, बडे़-बड़े स्टार्स हों, उनके बहुत हिट एल्बम हुए। उनके स्टूडियो में मैं मल्हार की रिकॉर्डिंग कर रही थी। रिकॉर्डिंग के बीच कभी-कभार जब वह आते, तो उनसे ‘हाय-हैलो’ हो जाती थी। एक दिन वह ‘रिकॉर्डिंग’ के दौरान आए और कहने लगे कि आज जब आपकी ‘रिकॉर्डिंग’ खत्म हो जाए, तो एक कप चाय पीएं मेरे साथ। उन्होंने चाय पीते-पीते ही कहा कि मेरे दिमाग में एक विचार आया है कि शास्त्रीय संगीत के बेस पर कोई गीत बनाया जाए। उसमें आप तानपुरा वगैरह रखिए, लेकिन मैं उसमें ‘ड्रम्स’ और ‘की बोर्ड’ भी डालूंगा। मैंने कहा कि मैंने ऐसा कभी किया नहीं है और यह भी नहीं जानती कि मैं कर पाऊंगी या नहीं। मैंने उन्हें यह भी बताया कि ‘मल्टी ट्रैक रिकॉर्डिंग’ क्या है, मुझे पता तक नहीं है। मैं तो हमेशा साज-संगत साथ लेकर गाती हूं। खैर, झिझकते-झिझकते ‘फाइनली’ एक रोज उन्होंने एक गाना गवाया मुझसे- अली मोरे अंगना। मुझे ‘चैलेंजिंग’ भी लगा कि गाना याद किया और झट से गा दिया। साथ में कोई नहीं, बस हेडफोन से सब सुनाई दे रहा है। इस तरह से वह एलबम तैयार हुआ।
इसके बाद मेरी गायकी से ऐसे श्रोता भी जुड़े, जो शायद पहले शास्त्रीय संगीत नहीं सुनते थे। कुछ लोग ऐसे जरूर होंगे, जिनको शायद यह बात पसंद न आई हो कि मैंने ‘पॉपुलर’ गाना क्यों गाया? या हो सकता है कि उन्हें मेरा गाना ही पसंद न होे। मेरे ख्याल से शास्त्रीय संगीत के जानकारों को एक चिंता यह रही होगी कि जब मैं राग यमन गाने बैठूंगी, तो कहीं कुछ उलटा-सीधा न कर दूं। यह फिक्र जायज है। मैं ऐसे लोगों को सम्मान देती हूं। मैं खुद इस बात को लेकर बेहद सजग रहती हूं कि मैं पंडित रामाश्रय झा, विनय मुद्गल, वसंत ठकार, जितेंद्र अभिषेकी, पंडित कुमार गंधर्व और नैना देवी की शिष्या हूं। मैं जब शास्त्रीय संगीत गा रही होती हूं, तो उसमें कोई हल्की चीज गाने की कोशिश नहीं करती। मैं ‘पॉपुलर म्यूजिक’ गा रही हूं, तो उसमें जबर्दस्ती ‘राग दरबारी’ नहीं थोपती। मैंने कभी इस ‘आइडिया’ से ‘पॉपुलर म्यूजिक’ नहीं गाया कि मैं इससे शास्त्रीय संगीत को आम लोगों के बीच लेकर जाऊंगी। मुझे लगता है कि मुझसे कहीं ज्यादा सशक्त संगीत है। वह किस तरह से, किसके हृदय पर, किसके कानों पर, कब चढ़कर बोलेगा, मुझे नहीं पता। अगर मेरी आवाज से हो जाए, तो मैं धन्य हूं। संगीत के अलावा मुझे तकनीक का बड़ा शौक है, इसीलिए अनीश और मैंने 2003 में गुरुजी की 75वीं वर्षगांठ पर ‘अंडरस्कोर रिकॉड्र्स’ शुरू किया, जिसमें भारतीय संगीत के तमाम रूपों, साहित्य, आर्टिकल, सामग्री का वितरण होता है।
शुभा मुद्गल, गायिका
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