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विजय मिश्रा ‘‘अमित’’
पूर्वअति.महाप्रबंधक(जन.) सम्पादकीय लेख / शौर्यपथ /दुनिया में तरह-तरह के आदमी होते हैं। जिनमें से एक प्रकार ‘‘फोकट छाप पेपर पढ़ने वालों‘‘ का भी होता है । फोकट की चीज खाने-पीने के लिए हर घड़ी इनकी जीभलपलपाती रहती है। लाज-शरम से इन लोगों का दूर-दूर तक कोई नाता नहीं रहता। ऐसे लोगों के लिए ही कहावत चल पड़ी है कि ‘बेशरम सदा सुखी‘ ।
फोकट छाप पेपर पढ़ने वाले लोग रेलगाड़ी,बस और प्रतीक्षालयों में बहुतायत में पाये जाते हैं।
पिछले बुधवार की बात है, जब मैं दुर्ग से रायपुर जाने के लिए लोकल रेलगाड़ी में यात्रा कर रहा था । उस समय एक समाचार पत्र बेचने वाला आया। वह बेचारा पूरे डिब्बे घूम-घूम कर गला फाड़-फाड़ कर पेपर ले लो, पेपर चिल्लाता रहा। पर किसी भी यात्री के कान में जूं नहीं रेंगी।प्रतिदिन सुबह अखबार पढ़ने की मेरी आदत है। इसलिए मैने पॉकेट एक समाचार पत्र खरीद लिया।
बस, मैं पेपर क्या खरीदा फोकट छाप पेपर पढ़ने वालों की तो लाटरी लग गई। मैं अभी पेपर का पहला पन्ना पढ़ना शुरू किया था कि बाजू में बैठे सज्जन बोल पडे़-भाई साहब, बीच का पन्ना देंगे क्या ? उनका आग्रह सुनकर पेपर का एक पेज मैं उनके हवाले करने लगा। तभी मेरे सामने की सीट पर बैठे एक हीरोनुमा लड़के ने कहा-प्लीज अंकल, खेल पेज मुझे दे दीजिए।मेरा पेपर पढ़ना एक तरफ रह गया और मैं फोकट छाप पेपर पढ़ने वालों को एक एक पेज बांटते चला गया। अंत में मेरे हाथ एक भी पेज नहीं बचा,क्योंकि, जो एक पेज अपने पढ़ने के लिए रखा था, उसे भी सामने बैठी मेमसाहब लगभग झपटने के अंदाज में ले ली और बोली-मेरा स्टेशन आने वाला है, पहले मैं पेपर पढ़लेती हूं, आप तो बाद में आराम से पढ़ सकते है। रेलगाड़ीजैसे-जैसे आगे बढ़ते जा रही थी।उसी रफतार से मेरे पेपर के पन्ने फोकट छाप पेपर पढ़ने वालों के एक हाथ से दूसरे हाथ, दूसरे हाथ से तीसरे हाथ में चले जा रहे थे, अंत में यह स्थिति आ गई कि पेपर का असली मालिक कौन हैं? यह बताने वाला भी कोई नहीं बचा था ।एक फोकट छाप पेपर पढ़ने वाले ने तो अपनी सभी सीमायें लांघ दी। वह हरे चना बूट खा-खाकर मेरे पेपर के पन्नों में छिलकों को जमा करने लगा। उसकी यह हरकत देखकर मेरी भृकुटी तन गई। मैंने कहा-अरे भाई साहब, पेपर दे दीजिए, ये पढ़ने के लिए है न कि चना बूट का कचरा जमा करने के लिए।
मेरी बात सुनकर वह बिगड़ैल सांड की तरह मेरे ऊपर ही गरज उठा। वह बोला-देखो मिस्टर, मुझे समझाने की कोशिश मत करो, जिस आदमी से मैं पेपर लिया हूं, वह तो इसे छोड़कर पिछले स्टेशन में ही उतर चुका है। उसकी बात सुनकर मैं हैरान रह गया। मुझे लगा मानो मेरे हाथों से तोता उड़ गया हो। मन मार के हाथ मलते मैं मेरे पेपर के बाकी पेज की दशा-दुर्दशा देखने में जुट गया।
क्षक्षक्षमैंने देखा कि एक फोकटिया मेरे पेपर में छपे शिक्षाकर्मी की भर्ती के विज्ञापन को काट रहा है। तभी मुझे याद आया कि मेरी बेटी भी शिक्षाकर्मी के लिए आवेदन करने वाली है। मैंने झट से उसे रोका और बताया कि -भाई जी, ये विज्ञापन मेरे काम का हैं। इसे काटिए मत। मेरी यह बात सुनकर वह आंखे फाड़े मुझे घूरते हुए बोला- ठीक है न आपके काम का है तो अगले स्टेशन में इसकी फोटो कापी कराकर आपको दे दूंगा। कम से कम मानवता के नाते थोड़ा धीरज तो रखें। मैं चलती गाड़ी से कूद कर भाग नहीं जाऊंगा।
अगले स्टेशन पर गाड़ी रूकी तो वो फोकटिया पेपर की फोटो कापी करा के लाता हूं कहकर उतर गया। गाड़ी छूट गई पर वह लौटकर नहीं आया।मुझे मानवता सिखाने वाले उस फोकटिया के दिए धोखा की पीड़ा से उबरने के लिए मैं आंखें मीचें गश खाय चुपचाप बैठा रहा। थोड़ी देर बाद आंख खुली तो देखा कि एक संभ्रात महिला अपने रोते हुए बच्चों को मनाने लिए मेरे अखबार को चीर फाड़कर हवाई जहाज बनाने का उपक्रम कर रही है । ऐसा करने से मेरे रोकने पर वह खिसियाई बिल्ली की तरह गुर्राकर बोली-सड़ा सा दो पैसे के पेपर के लिए आपकी जान छूटी जा रही है। बच्चा कितना रो रहा हैं वह आपको दिखाई नहीं दे रहा है क्या ? उसके तेवर देखकर मेरी बोलती बंद हो गई । फोकट छाप पेपर पढ़ने वालो से अपना पेपर कैसे बचाऊं, यह सोच ही रहा थी तभी एक ओर नजारा देखने को मिला। मेरे पेपर की आड़़ में झाड़ काटते दो युवक-युवती दिखे। वे दोनों पेपर के बीच के पन्ने को खोलकर पेपर के एक एक छोर को एक-एक हाथ में पकड़कर ऐसे बैठे थे कि पेपर के पीछे वे क्या कर रहे हैं कोई भी देख पाने में असमर्थ था।
ये सब को देखते-देखते दोनों हाथ से सिर पकड़कर मैं सोचने लगा कि फोकट छाप पेपर पढ़ने वालों के लिए जब पेपर इतने काम की चीज है तो भगवान उन्हें पेपर खरीदने की सद्बुद्धि क्यों नहीं दे देता ? यही सोचते-सोचते गांठ बांध लिया कि अब कभी ट्रेन में समाचार पत्र खरीदने की भूल नहीं करूंगा ।
(ये लेखक के अपने विचार है )
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