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सम्पादकीय लेख /शौर्यपथ /अब भाषा पर गौर फरमाइए। व्यक्ति लालची नही है। Dr लालची है। एक पद, एक टाइटल एक नाम। जब कोई आतंकी पकड़ा या मारा जाता है तो दुनिया भर के सेक्युलर आकर दुहाई देते हैं कि आतंकवाद की कोई जाति नही होती। कोई नेता भ्रष्टाचार के आरोप में अंदर हो जाता है तो संसद भवन बन्द कराने की मांग नही की जाती पर डॉक्टर लालची हो जाता है।
घर में जब कोई बच्चा पैदा होता है उस दिन से माँ बाप का सपना या तो उसे Dr बनाने का होता है या इंजीनियर। अगर औलाद वाकई काबिल हो तो कभी कभी ये सपना पूरा भी हो जाता है। भारत में जहां एक सीट पर लाखों के सपने सजे होते हैं वहां 67% तक पहुच चुके आरक्षण के बीच कोई विरला ही इस मुकाम को अपनी अथक मेहनत से हासिल कर पाता है।
इस कलियुग में Dr को जान बचाने वाला और धरती पर भगवान का रूप माना जाता है। लेकिन इतिहास गवाह है कि कोई भी पद, प्रतिष्ठान बिना व्यक्ति के लिए नही चल सकता और कोई व्यक्ति सम्पूर्ण नही हो सकता। ईमानदारी वो बीमारी है जो आजकल संक्रामक नही है। जितना मुश्किल इस देश मे डॉक्टर बनना है उतना ही मुश्किल ईमानदार रह पाना।
सेलेक्शन के बाद भी महंगे कॉलेज की मोटी फीस, 5 साल की डिग्री के बाद 3 साल की pg डिग्री लेकर एक युवा जब भारत के हेल्थ सिस्टम में उतरता है तब खुद को युवा नही पाता। कभी कर्जे से डूबा युवा अचानक इस बाजार में खुद को पाकर उस प्यासे की तरह हो जाता है जिसे अचानक रेगिस्तान में झील मिल गई हो। कुछ वाकई जल्दी सफल डॉक्टर होने की लालसा में अच्छा इंसान बनने में असफल हो जाते हैं।
एक प्रयोग की याद आती है। एक व्यक्ति ने तीन नई वस्तुएं 1 टायर ट्यूब एक टीवी और एक फ्रीज लिया। फिर तीनों को लेकर उनके उनके रिपेयरिंग शॉप्स पर लेकर गया और बताया कि इन सभी उपकरणों में शायद कोई समस्या आ रही है। फ्रीज वाले ने बताया भाई कंडेनसर खराब है 10000 लगेगा, टीवी वाले ने 5000 और टायर टयूब वाले ने 80 रुपये दो पंचर के बताए।
सभी का मेहनताना अदा करने के बाद जब व्यक्ति सभी उपकरणों के सही होने की जांच के कागजात लेकर सभी के पास पंहुचा तो सभी ने अपने काम मे कोई भी गड़बड़ी होने की संभावना से इनकार कर दिया। एक ने तो अमुक कंपनी को चीनी- फर्जी बता दिया दूसरे ने कस्टमर को झूठा कह दिया। टायर वाले ने थोड़ी ईमानदारी दिखाई और गलती मानीं पर साथ ही उंसने ये भी कह दिया कि वो ईमानदार है क्योकि उंसने दो पंचर गिनाए पर वो 4 भी बता सकता था। इस घटना से हमको इस बाद का पता चलता है कि भ्रष्टाचार का व्यक्ति की जरूरतों से नही उसकी इच्छाओं, उसके लालच उसके जल्द सफल होने की भावना से संबंध होता है। जो 10 रुपये का भ्रष्टाचार कर सकता है वो 10 का ही करता है क्योकि मौका उतना ही मिल पाता है। पर यदि इसे मौका मिला तो बड़े लेवल का भ्रष्टाचार भी जरूर करना चाहेगा। यदि अधिकारी होता तो लाखों का करता नेता बन पाता तो सपने करोडों के होते।
इससे एक बात सिद्ध होती है। भ्रष्टाचार की पहुच ऊपर से नीचे नही नीचे से ऊपर है। पैसे देखकर दिमाग नही फिरता, फिरे दिमाग को पैसा ही दिखता है।
आजकल बाबाजी के विवादित बयान के बाद एक अजीब जंग छिड़ी हुई है एलोपैथी और आयुर्वेद के बीच। आयुर्वेद समर्थक आयुर्वेद को इसलिए श्रेष्ठ बता रहे क्योकि आज तक किसी आयुर्वेदाचार्य ने किसी मरीज की किडनी नही बेची। सस्ते दरों पर काम किया और लाखों का बिल नही थमाया। पहली नजर में ये बात तो सही लगती है पर जब हम टायर वाले उदाहरण पर ध्यान देते हैं तब हमें अहसास होता है कि चोरी छोटी बड़ी तो हो सकती है लेकिन चोरी की नीयत एक समान ही होती है। जो जितना भ्रष्ट उतना सफल भ्रष्टाचारी।
कहने का मतलब ये बीमारी किसी पैथी विशेष से जुड़ी हुई नही है। अपनी योग्यता अनुसार ही कोई व्यक्ति भ्रष्टाचार कर सकता है। न एलोपैथी कोई गंदा नाला है न आयुर्वेद कोई बहती गंगा। अच्छे बुरे दोनो तरह के लोग दोनो ही विधा में पाए जाते हैं। पर आयुर्वेद का बाजार आज भारत मे तुलनात्मक रूप से कमजोर नजर आता है जिसमे हालिया कुछ वर्षों में जरूर सुधार हुआ है और स्वदेशी पद्धति का तमगा मिलने के चलते लोग खुद को आयुर्वेद से जोड़कर सपोर्ट करते नजर आ रहे।पर बड़े आश्चर्य की बात है कि एलोपैथी शब्द हमें एलोपैथी की किसी भी किताब में नही मिलता। विदेशी माने जाने वाली एलोपैथी का नाम विदेशियों ने भी कम ही सुना है। असल मे भारत पाकिस्तान और बांग्लादेश में ये शब्द ज्यादा प्रचलित है।
किताबें तो इन्हें मॉडर्न मेडिकल साइंस ही कहती है जिसमें कोई पैथियों का बंधन ही नही है। यहां तक कि माईग्रेन जैसी बीमारियों में किताबें योगा की अनुशंसा करती है।
आधुनिक मेडिकल साइंस एक एविडेंस बेस्ड सिस्टम है जिसने यूरोपीय चिकित्सा पद्धति, यूनानी चिकित्सा पद्धति, होमियोपैथी और हमारे आयुर्वेद सभी से कुछ न कुछ लिया है। बल्कि उसे और परिष्कृत किया है।
उदाहरण के तौर पर सिनकोना की छाल का उपयोग मलेरिया की दवा के तौर पर सदियों से किया जा रहा है जो घरेलू पद्धति है। इसी दवा को कुनैन के रूप में खोजकर उसे अलग कर इलाज करने में आधुनिक चिकित्सा ने सफलता प्राप्त की। अलग इसलिए किया गया क्योंकि सिनकोना की छाल में इस कुनैन के अलावा भी दूसरे अल्कालोइड होते थे जो नुकसान पहुचाते थे।जब कुनैन का असर कम होने लगा तब चीनी चिकित्सा पद्धति की सहायता से नई दवाएं खोजी गई। ये सभी पद्धतियों की एकता का एक खूबसूरत उदाहरण है। क्योकि यहां शत्रु कोरोना जैसी बीमारियां है न कि चिकित्सा पद्धतियां।
अब तो दूसरी पद्धति की टांग खिंचकर उसे स्टुपिड साइंस तक कहने तक हमारा पतन हो चुका है।
कोई राजनीतिक पार्टी इसलिए वैक्सीन का विरोध कर रही क्योंकि उसको राजनीतिक टांग खिंचाई करनी है। उसके अपने स्वार्थ हैं। कोई इसलिए कर रहा क्योकि अपनी दवा बेचना चाहता है पर इस लड़ाई में पीस तो वो जनता रही है जिसे न आयुर्वेद का पता है न एलोपैथी का।क्या आधुनिक चिकित्सा पद्धति को एलोपैथी नाम देकर उस भारतीय योगदान को भुलाने का षड्यंत्र रचा गया है जिसकी शुरु
वात आधुनिक चिकित्सा पद्धति के जनक चरक और आधुनिक शल्य चिकित्सा के प्रणेता सुश्रुत ने की थी। यदि नालंदा विश्वविद्यालय न जलाया गया होता खिलजी द्वारा तो संभव था आधुनिक चिकित्सा पद्धति में आयुर्वेद का स्थान बहुत ज्यादा होता।
ये जो लड़ाइयां चल रही कि तुम्हारा कुत्ता, कुत्ता,मेरा कुत्ता टॉमी ये बचकाने सोच की मिसाल है। सच तो यही है कि सभी पद्धतियों को आज कोरोना के खिलाफ खड़े होने की जरूरत है न कि आपस मे लड़ने की, वरना जो गलती पुराने हिन्दू राजाओं ने की वही फिर दोहराई जाएगी। युद्ध गौरी(कोरोना) से है तो जयचंद बनकर पृथ्वी की तबाही का कारण न बनें बल्कि कोरोना वारियर्स का सम्मान करें, उनकी मृत्यु का मज़ाक न बनाएं बल्कि उनका हौसला बढ़ाएं और मिलकर देश को कोरोना मुक्त बनाएं।
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