शौर्यपथ / कोरोना के खतरे के बावजूद चिकित्सक, पुलिसकर्मी, नर्स, स्वास्थ्यकर्मी, किराना व्यापारी, दवा विक्रेता जैसे लोग जनता की सेवा में लगे हुए हैं। किंतु यह अफसोस की बात है कि कुछ सिरफिरों द्वारा इन पर, खासतौर से पुलिसकर्मियों पर हमला किया जाता है। यह अपने आप में बहुत ही शर्मनाक विषय है। ऐसी प्रवृत्ति वाले लोगों पर सिर्फ मुकदमा दर्ज करने से कुछ नहीं होगा, बल्कि फास्ट ट्रैक कोर्ट में पेश करते हुए उन्हें सख्त से सख्त सजा देने की व्यवस्था होनी चाहिए। तभी इस प्रकार की घटनाओं को हम रोक सकेंगे। हमें अपने कोरोना योद्धाओं का सम्मान करना चाहिए और दूसरों को भी ऐसा करने के लिए अवश्य प्रोत्साहित करना चाहिए।
प्रमोद अग्रवाल गोल्डी, हल्द्वानी
लाल फीताशाही
पिछली सदी के आखिरी दशक तक नौकरशाह खुद को सेवक नहीं, मालिक समझते थे। इसका दुष्प्रभाव हमने देखा भी। आज बेशक वह व्यवस्था कायम नहीं है, लेकिन सोच अब भी बहुत ज्यादा नहीं बदली है। ऐसे में, केंद्र सरकार ने जिस आर्थिक पैकेज की घोषणा की है, उसको जमीन पर लागू करने की भी उसे संजीदा कोशिश करनी होगी, ताकि वह लाल फीताशाही का शिकार न बने। जरूरी है कि केंद्र और राज्य सरकारों के बीच बेहतर समन्वय हो, अन्यथा ‘एक देश एक राशनकार्ड’ जैसी योजना को जमीन पर उतारना और लाभार्थियों को समुचित मदद करना मुश्किल होगा। असल में, हमारे नौकरशाह अमूमन परंपरागत तौर-तरीकों के आदी हैं। उनकी कार्यशैली जटिल है, जिसे वे बदलना नहीं चाहते। वे आमतौर पर सब कुछ अपने नियंत्रण में रखना चाहते हैं। इस सोच को बदलना जरूरी है। सरकार उन लोगों तक खुद पहुंचे, जिनके लिए नीतियां बनाई जाती हैं।
शादाब हुसैन खान, मांझी, छपरा
गांव लौटते मजदूर
जो संकट आज हम सड़कों पर देख रहे हैं, उसे जल्द भूल पाना आसान नहीं होगा। ये मजदूरों का पलायन नहीं, बल्कि मानव पूंजी का पलायन है, क्योंकि यही लोग हमारे देश की अर्थव्यवस्था के स्तंभ हैं। गांव लौटना इनको उचित इसलिए लगा कि वहां लोग उन्हें भूख से मरने नहीं देंगे। मुमकिन है कि इनमें से ज्यादातर अब फिर से गांव छोड़ना नहीं चाहें, क्योंकि उन्होंने सड़कों पर कई-कई दिनों तक तपती हुई दोपहर में जिंदगी और मौत की लड़ाई लड़ी है। साफ है, इनके दोबारा न लौटने से शहरों में कामगारों की कमी महसूस होगी, जिससे उत्पादन पर भी नकारात्मक असर पड़ेगा। हमारी अर्थव्यवस्था में रोबोट या ऑटोमेशन, या यूं कहें कि आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस की भूमिका बहुत सीमित है, इसलिए कामगारों पर उद्योगों की निर्भरता बनी हुई है। ऐसे में, इनका हमेशा के लिए पलायन चिंतनीय हो सकता है।
नीलम वर्मा, अलीगंज, लखनऊ
प्रवासी सोचकर कदम बढ़ाएं
हर भारतीय का यह अधिकार है कि वह अपनी इच्छा के अनुसार कहीं भी जाकर अपने सपनों को पूरा करे। पलायन कोई आज की परिघटना नहीं है, पर क्या यह न्यायोचित है कि जब संकट विकराल हो, तो सावधानियों को ताक पर रखकर लोग ऐसा करें? भविष्य की चिंता, पैसे की तंगी, परिवार का भरण-पोषण, बीमारी का डर, अशिक्षा, राजनीति आदि कारणों से श्रमिक वर्ग ने पलायन का रास्ता चुना। वरना यह कैसे संभव है कि कोई इंसान वर्षों से जहां रह रहा हो, वहां सिर्फ एक संकट आने पर वह पलायन की सोच ले। सड़कों पर उमड़ा जन-सैलाब संवेदनशील तबके का है। केवल स्थान बदलने से उनकी मुश्किलों का हल नहीं होगा, बल्कि गांव लौटने वाले लोग खतरा बढ़ाएंगे। इसलिए प्रवासियों को आगे कदम बढ़ाने से पहले यह सोचना चाहिए कि वे अपने साथ कितनी जान जोखिम में डाल रहे हैं? उन्हें थोड़ा इंतजार करना चाहिए, ताकि परिस्थिति बदलते ही वे अपने गंतव्य की ओर रवाना हो सकें।
मृदुल कुमार शर्मा, गाजियाबाद