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ओपिनियन /शौर्यपथ / कुछ दिनों से इस्लामोफोबिया की तोप की दिशा भारत की ओर है और भांति-भांति की कहानियां गढ़ी जा रही हैं। विशेष रूप से जब से कोरोना महामारी ने देश को अपनी चपेट में लिया है, उसके पश्चात एक जमाअत से चूक क्या हुई कि अनेक लोगों ने पूरे समुदाय विशेष को दोष देना शुरू कर दिया। कुछ राजनेताओं की ओर से भी प्रतिकूल टिप्पणियां आने लगीं। कुछ लोगों ने इस बात को भी हवा दी कि समुदाय विशेष के लोग बहुसंख्यक समुदाय की कॉलोनियों में जाकर कोरोना फैलाने की कोशिश कर रहे हैं। नतीजा यह हुआ कि समाज के कुछ लोगों ने कॉलोनियों में सब्जी-फल ठेले और दुकान वालों की पहचान देखना शुरू कर दिया। यहां तक कि कुछ जगह राहत और बचाव कार्यों में भी जरूरतमंदों की मजहबी पहचान देखने की कोशिश हुई। हमें सावधान हो जाना चाहिए, यदि यही दशा रही, तो आने वाला कल काफी भयावह हो सकता है।
यह बात नहीं भूलनी चाहिए कि हमारे भारत देश में कुछ शक्तियां ऐसी हैं, जो सदा से समुदायों के बीच दूरी एवं द्वेष पैदा करके उन्हें बांटने की कोशिश करती रही हैं। यही शक्तियां इन दिनों समाज में अलग-अलग तरह से भय एवं अराजकता फैलाने पर तुली हैं। वस्तुत: यह एक ऐसी भयावह मुहिम है, जिसके विरुद्ध पूरे देश को एकजुट होकर सामने आना चाहिए। भारत के इस बदलते परिदृश्य में राजनीतिक पार्टियों से उम्मीद अपनी जगह है, लेकिन आम लोगों के लिए यह जरूरी हो गया है कि ऐसे हालात में देश के सजग और शांतिपूर्ण सह-अस्तित्व में विश्वास रखने वाले लोग सामने आएं। अपनी कोशिशों से इस साझी संस्कृति, समाज में विष घोलने वाले मुट्ठी भर लोगों के षड्यंत्रों को नाकाम कर दें।
वस्तुत: वर्तमान युग में समाज के टूटते-फूटते रिश्ते, कट्टरता, असहिष्णुता, मतभेद, बिखराव के कारण शांतिपूर्ण सह-अस्तित्व का मामला जटिल होता जा रहा है, लेकिन इसका इलाज साफ नहीं दिखाई दे रहा है। ऐसे में सभी विद्वानों, समाजशास्त्रियों और मानव हितैषियों का एक ही मत है कि शांतिपूर्ण सह-अस्तित्व की नींव को धार्मिक ग्रंथों, इतिहास की सकारात्मक घटनाओं, जियो और जीने दो जैसी उत्तम विचारधारा में ढूंढ़ा जाए। साथ ही, उनसे आम लोगों को अवगत कराया जाए।
सांप्रदायिकता के इस घटाटोप अंधकार में एकता एवं अखंडता के दीप वह संप्रदाय जला सकता है, जिसका धार्मिक दायित्व ही एकता, भाईचारा एवं न्याय है। जिसे आदेश दिया गया है कि भलाई की ओर बुलाओ और बुराई से रोको। मेरा मानना है कि इस देश के मुसलमानों को ही भटके हुए लोगों को यह याद दिलाना चाहिए कि भारत बहुलता में एकता की गौरवशाली परंपराओं का संरक्षक रहा है। सभी धार्मिक इकाइयों के समक्ष यह बात प्रस्तुत करनी चाहिए कि हम एक ऐसे देश में रहते हैं, जहां दर्जनों धर्म, सैकड़ों विचारधाराओं एवं परंपराओं को मानने वाले सदियों से रहते आए हैं। इसके बाद भी इस देश की खासियत रही है कि यहां शांतिपूर्ण सह-अस्तित्व की कोमल हवा का झरना निरंतर बहता रहा है। क्यों न हम अपनी गौरवशाली परंपरा की ओर लौट आएं और आपसी एकता, अखंडता को अपनाते हुए एक-दूसरे के धर्म, विश्वास तथा रीति-रिवाज का ध्यान रखें?
धर्म तो संयम तथा शांतिपूर्ण सह-अस्तित्व का सबसे बड़ा ध्वजवाहक है। संयम और उदारता तो उसके जमीर में शामिल है। पूरी दुनिया में खासतौर से इस्लाम धर्म के खिलाफ दुष्प्रचार किया जा रहा है। ऐसे में, जरूरी है कि इस समुदाय के लोग उठें और विभिन्न धर्मों के बीच संवाद की संगोष्ठियां आयोजित करें और विश्व को बताएं कि मुट्ठी भर लोगों ने जो दुष्प्रचार किया है, उसमें सत्यता नहीं है। एक काल्पनिक छवि के कारण समाज में अघोषित दूरी भी है, जिसके कारण आपसी मेलजोल का कार्य थम-सा गया है। इससे सबसे अधिक क्षति समुदाय विशेष को निरंतर पहुंच रही है। दुविधा व दूरी की निरंतरता और आपसी तालमेल की स्थिति न उत्पन्न होने के कारण भ्रम व भ्रांतियां अपने उफान पर हैं। शायद समुदाय विशेष के लोगों की ओर से यह कमी रह गई है कि वे अपने नैतिक एवं व्यावहारिक कार्यों से इस बात को साबित करने में पीछे रह गए हैं कि वे आपसी मेलजोल और शांतिपूर्ण सह-अस्तित्व के संरक्षक हैं। शांतिपूर्ण सह-अस्तित्व के नियमों का अनुपालन भारत जैसे समाज में सबसे जरूरी है।
आज शांतिपूर्ण सह-अस्तित्व के लिए एक आंदोलन उसी तरह से चलाने की जरूरत है, जैसे सय्यद अबु हसन अली नदवी ने ‘पयाम-ए-इंसानियत’ के नाम से चलाया था। उसी तरह के आंदोलन के झंडे तले हम अपने धर्म के साथ ही दूसरे धर्म के प्रतिनिधियों को लेकर आगे बढ़ सकते हैं। इसके साथ ही हमें वर्तमान राजनीति और सत्ता के साथ संबंध और बेहतर करने चाहिए, क्योंकि यदि दूरियों का अंत न हुआ, तो उससे जो क्षति पहुंचेगी, उसे आने वाली नस्लों को भुगतना पडे़गा। इसलिए शांतिपूर्ण सह-अस्तित्व के आंदोलन में शामिल होने वाले संतुलित व प्रबुद्ध लोगों का यह भी दायित्व है कि वे देश के सभी वर्गों के अधिकारों की रक्षा करें। हमें बहुत बुद्धिमानी से आगे बढ़ना होगा, तभी हम इस देश में अपने लिए बेहतर माहौल की उम्मीद कर सकते हैं। आज समय है, जब हम उदारवाद को जीवन का मूल मंत्र बनाएं, उच्च स्तर की नैतिकता दर्शाएं और दूसरे धर्मों के लोगों से सद्भावी रिश्ते बनाएं।
यह इस देश की सुदृढ़ता का प्रमाण है कि यहां अल्पसंख्यकों के अधिकारों की बात अधिकतर बहुसंख्यक वर्ग के लोग ही करते हैं। अल्पसंख्यकों को जब भी जरूरत पड़ी है, देश के सैकड़ों बहुसंख्यक उठ खड़े हुए हैं। वर्तमान में सीएए, एनपीआर और एनआरसी के मामले में हमें स्पष्ट रूप से आभास हुआ कि इस देश में अल्पसंख्यक अकेले नहीं हैं। इसलिए हमें सभी को साथ लेकर आगे बढ़ना होगा। यह इसलिए भी जरूरी है, क्योंकि जो कुछ भारत के हित में है, उसी में समुदाय विशेष का भी हित है। समाज से सरकार तक, हर स्तर पर भेदभाव की किसी भी नीति से बचना होगा। सत्य व न्याय की स्थापना के बिना सदाचारी, स्वस्थ और विकसित समाज की कल्पना नहीं की जा सकती।
(ये लेखक के अपने विचार हैं) अख्तरुल वासे, प्रोफेसर इमेरिटस, जामिया मिल्लिया इस्लामिया
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