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ओपिनियन /शौर्यपथ / वर्ष 2015 में अंतरराष्ट्रीय समुदाय ने सतत विकास के जो लक्ष्य तय किए थे, उनमें हर प्रकार की बाल मजदूरी का अंत एक प्रमुख लक्ष्य था। दुनिया को गरीबी, बीमारी, अशिक्षा, पर्यावरण आदि से जुड़े लक्ष्यों को 2030 तक हासिल करना है, जबकि बाल मजदूरी सहित मानव दासता के खात्मे का लक्ष्य 2025 रखा गया है। अब इस लक्ष्य को हासिल करने में महज साढ़े चार साल बचे हैं। मगर कोरोना महामारी सिर्फ स्वास्थ्य और आर्थिक से जुड़ा संकट नहीं है, यह बच्चों के भविष्य का संकट भी है।
दो दशक पहले साल 2000 में दुनिया में बाल मजदूरों की संख्या करीब 26 करोड़ थी, जो हम सबके साझा प्रयासों से घटकर अब 15 करोड़ रह गई है। इसी अनुभव के आधार पर यह भरोसा था कि निश्चित अवधि में योजनाबद्ध तरीके से इस बुराई का खात्मा किया जा सकता है। लेकिन पिछले पांच वर्षों में जितनी राजनीतिक इच्छाशक्ति, धन-राशि, नैतिक जवाबदेही और अंतरराष्ट्रीय सहभागिता की जरूरत थी, दुर्भाग्य से उसका अभाव रहा। पिछले साल अंतरराष्ट्रीय श्रम संगठन (आईएलओ) के महानिदेशक गाए रायडर ने एक कार्यक्रम में चिंता जाहिर करते हुए आशंका भी जताई थी कि जिस रफ्तार से हम चल रहे हैं, उससे सन् 2025 में भी 12 करोड़ बाल मजदूर बचे रहेंगे। हालांकि तब मैंने कई विश्व नेताओं के सामने उन्हें विनम्रतापूर्वक चुनौती देते हुए कहा था कि हमें आशावादी होना चाहिए। आज की दुनिया बाल मजदूरी को खत्म करने में पूरी तरह सक्षम है। उन्होंने और कई नेताओं ने मेरी बात का समर्थन भी किया था। लेकिन, तब मुझे नहीं पता था कि कोरोना वायरस हमारे सामने और भी बड़ी चुनौती लेकर आएगा। मौजूदा हालात में बाल मजदूरी, बाल विवाह, वेश्यावृत्ति और बच्चों का उत्पीड़न बढ़ने का खतरा है, इसलिए अब पहले से अधिक ठोस और त्वरित उपायों की जरूरत है। गुलामी और तरक्की साथ-साथ नहीं चल सकते, लिहाजा गुलामी का अंत तो करना ही पड़ेगा।
कोरोना महामारी के कारण इस साल विश्व के करीब छह करोड़ नए बच्चे बेहद गरीबी में धकेले जा सकते हैं, जिनमें से बड़ी संख्या में बाल मजदूर बनेंगे। सरकारें 30 करोड़ बच्चों को मध्याह्न भोजन या स्कूल जाने के बदले उनके माता-पिता को नकद धन-राशि देती हैं। एक बार लंबी अवधि के लिए स्कूल छूट जाने के बाद ज्यादातर गरीब बच्चे दोबारा नहीं लौटते। अर्जेंटीना में 2018 में हुई शिक्षकों की लंबी हड़ताल के बाद स्कूलों में बच्चों की संख्या घटी और बाल मजदूरी बढ़ी। लाइबीरिया में फैली इबोला महामारी के बाद भी ऐसा ही हुआ था। कोरोना का ज्यादा दुष्प्रभाव सामाजिक और शैक्षणिक रूप से पिछड़े और कमजोर वर्गों पर पड़ रहा है। उनकी गरीबी व बेरोजगारी और बढ़ेगी। इसका खामियाजा उनके बच्चों को भुगतना पड़ेगा। ब्राजील, कोलंबिया, आइवरी कोस्ट और घाना के कोको उत्पादन, पूर्वी एशिया के मछली पालन आदि क्षेत्रों में तेजी से बाल मजदूरी बढ़ने का खतरा है। भारत के लाखों प्रवासी श्रमिकों के बच्चों की भी यही हालत हो सकती है।
महामारी के असामान्य हालात में बाल मजदूरी बढ़ने से रोकने के लिए हमें कुछ ठोस उपाय करने होंगे। पहला, लॉकडाउन के बाद यह सुनिश्चित करना होगा कि स्कूल खुलने पर सभी छात्र कक्षाओं में वापस लौट सकें। इसके लिए स्कूल खुलने से पहले और उसके बाद भी, उनको दी जाने वाली नकद प्रोत्साहन राशि, मध्याह्न भोजन, वजीफे आदि को जारी रखना होगा। भारत में मध्याह्न भोजन और ब्राजील, कोलंबिया, जाम्बिया व मैक्सिको में अभिभावकों को नकद भुगतान जैसे कार्यक्रमों का बहुत लाभ हुआ है। इन्हें अन्य देशों में भी लागू करने से बाल मजदूरी कम होगी। मेक्सिको और सेनेगल जैसे देशों में शिक्षा के स्तर में सुधार से बाल मजदूरी कम हुई है।
दूसरा, शिक्षा क्षेत्र में प्रौद्योगिकी को सस्ता और सुलभ बनाकर गरीब व पिछड़े परिवारों के बच्चों को पढ़ाई से जोड़ा जाना जरूरी है। तीसरा, सरकारें गरीबों के बैंक खातों में नकद पैसा दें। साथ ही भविष्य में रोजी-रोटी के लिए उन्हें सस्ते व सुलभ कर्ज उपलब्ध कराएं, ताकि वे साहूकारों के चंगुल में न फंसें और अपने बच्चों को बंधुआ मजदूरी और मानव-व्यापार से बचा सकें। चौथा, अर्थव्यवस्था सुधारने और निवेशकों को आकर्षित करने के लिए सरकारें श्रमिक कानूनों को लचीला बना रही हैं। इससे असंगठित क्षेत्रों के मजदूरों में गरीबी और उनके बच्चों में बाल मजदूरी बढ़ेगी। बाल व बंधुआ मजदूरी के कानूनों में कतई ढील नहीं देनी चाहिए। पांचवां, देशी और विदेशी कंपनियां सुनिश्चित करें कि उनके उत्पादन व आपूर्ति-शृंखला में बाल मजदूरी नहीं कराई जाएगी। सरकारें निजी कंपनियों के सामान की बड़ी खरीदार होती हैं, इसलिए वे सिर्फ बाल मजदूरी से मुक्त सामान ही खरीदें।
दूरदर्शी और निर्णायक नेतृत्व का सबसे जरूरी पैमाना है कि वह नीतियों, कार्यक्रमों और आर्थिक नियोजन में अपने देश के बच्चों को कितनी प्राथमिकता देता है? मैंने विश्व भर के 45 नोबेल पुरस्कार विजेताओं, 20 भूतपूर्व राष्ट्राध्यक्षों, 2 संयुक्त राष्ट्र एजेंसी केप्रमुखों और दलाई लामा, आर्कबिशप डेसमंड टूटू, गॉर्डन ब्राउन जैसी 21 हस्तियों के साथ मिलकर अमीर राष्ट्रों से मांग की है कि कोरोना महामारी के आपात फंड के लिए घोषित पांच हजार अरब डॉलर की राशि का 20 प्रतिशत, यानी एक हजार अरब डॉलर दुनिया के 20 फीसदी उपेक्षित व निर्धन बच्चों और उनके परिवारों पर खर्च किया जाए। हमने अलग-अलग राष्ट्राध्यक्षों से भी इसी अनुपात में खर्च की मांग की है।
बाल मजदूरी, गरीबी और अशिक्षा में त्रिकोणीय रिश्ता है। वे एक-दूसरे को जन्म देते और चलाते हैं, जो समावेशी विकास, सामाजिक व आर्थिक न्याय और मानव अधिकारों में सबसे बड़ी बाधा है। आज अंतरराष्ट्रीय बाल श्रम विरोधी दिवस पर हमारी नैतिक जिम्मेदारी पहले से कहीं ज्यादा हो गई है। सिर्फ सुरक्षित और खुशहाल बचपन से सुरक्षित और खुशहाल दुनिया बनाई जा सकती है। यदि समाज, सरकारें, उद्योग, व्यापार जगत, धार्मिक संस्थाएं, मीडिया, अंतरराष्ट्रीय एजेंसियां और विश्व समुदाय अपने बच्चों के बचपन को सुरक्षित और खुशहाल नहीं बना पाए, तो हम एक पूरी पीढ़ी को बर्बाद करने के दोषी होंगे।
(ये लेखक के अपने विचार हैं) कैलाश सत्यार्थी, नोबेल शांति पुरस्कार से सम्मानित समाजसेवी
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