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ओपिनियन / शौर्यपथ / देश में कोरोना संक्रमित मरीजों की संख्या पांच लाख के करीब पहुंच गई है। सुर्खियों में दिल्ली है, जहां 70 हजार से अधिक मामले सामने आ चुके हैं और 2,365 मौत की खबर है। इस तरह, अब राष्ट्रीय राजधानी संक्रमण के मामले में मुंबई से आगे निकल चुकी है, जहां 68 हजार से ज्यादा मरीज हैं और मौत का आंकड़ा 3,900 को छू रहा है। दिल्ली में हुई यह बढ़ोतरी चिंता की बात है, और इसीलिए यहां सुधारात्मक उपायों की दरकार है। इसकी जरूरत इसलिए भी है, क्योंकि केंद्र ने कहा है कि देश में प्रति लाख आबादी में एक मरीज की मौत हो रही है और राष्ट्रीय मृत्यु-दर वैश्विक औसत 6.04 के मुकाबले बहुत कम है, लेकिन मुंबई, बेंगलुरु और दिल्ली जैसे शहरों में मृत्यु-दर परेशानी की वजह बनी हुई है।
इस महामारी को लेकर भारत का अनुभव यह भी है कि बडे़ शहर इसकी चपेट में ज्यादा आए हैं। विशेषकर पुरानी बसाहट के शहरों और झुग्गी-झोपड़ियों की घनी आबादी में संक्रमण अपेक्षाकृत अधिक फैल रहा है। जाहिर है, इसने शहरी स्वास्थ्य तंत्र, और खासतौर से नगरपालिका सेवाओं को बेपरदा कर दिया है, जबकि बड़े शहरों में ऐसी सेवाएं अमूमन मजबूत मानी जाती हैं। इससे दूसरे और तीसरे दर्जे के शहरों की चुनौतियां समझी जा सकती हैं। उनको संक्रमण का विस्तार होने पर कहीं अधिक मुश्किलों का सामना करना पड़ सकता है। हालांकि, बृहन्मुंबई महानगरपालिका (बीएमसी) ने काफी संजीदगी से काम किया है, जिसका प्रमाण ‘धारावी मॉडल’ की सफलता है। बीएमसी ने ‘केरल मॉडल’ के दो प्रमुख उपायों पर खासा ध्यान दिया- तकनीकी क्षमता और विश्वास। यहां तक कि जब मरीजों की संख्या में कमी आने लगी, तब भी संक्रमित इलाकों में फीवर क्लीनिक और संस्थागत क्वारंटीन जैसी सुविधाएं बढ़ाई जाती रहीं। इसके अलावा, निजी चिकित्सकों को भी जिम्मेदारी दी गई, घर-घर सर्वे किए गए, ऑक्सीमीटर व मोबाइल वैन समय पर उपलब्ध कराए गए। इन सबके साथ-साथ उसने लोगों का दिल जीतने के लिए असाधारण और अभिनव तरीकों का भी इस्तेमाल किया।
सवाल यह है कि दिल्ली में आखिर गलती कहां हुई, जबकि मुख्यमंत्री खुद इसमें नेतृत्व करते दिख रहे थे? निस्संदेह, दिल्ली सरकार ने सक्रिय शुरुआत की थी और ऐसा लग रहा था कि स्थिति संभाल ली जाएगी। देश के अन्य राज्यों की तुलना में यहां सबसे अधिक टेस्ट किए जा रहे थे, मगर पिछले चार हफ्तों से इसमें तेजी से कमी आने लगी। दिल्ली में निजी जांच केंद्रों को काफी पहले लाइसेंस दे दिया गया था और ऐसा महसूस हुआ कि अस्पताल की सेवाएं भी मजबूत हो गई हैं। कंटेनमेंट जोन की व्यवस्था भी बेहतर काम कर रही थी, पर अब लगता है कि दिन बीतने के साथ-साथ सरकार संक्रमित मरीजों के संपर्क में आने वालों को खोजने में शिथिल पड़ती गई।
इसी तरह, अस्पतालों में बेड की उपलब्धता को लेकर विरोधाभासी रिपोर्टें आती रहीं। निजी क्षेत्र के अस्पतालों का प्रबंधन, खासकर उनके कीमती इलाज को घटाने के प्रयास काफी आलोचना के बाद किए गए। टेस्टिंग की राज्य सरकार की अपनी नई गाइडलाइन सुर्खियों में रही, जिसमें केवल लक्षण वाले संदिग्धों की जांच के निर्देश दिए गए थे। दिल्ली सरकार पर कोविड-19 से मरने वाले लोगों की संख्या छिपाने के भी आरोप लगे, और अस्पताल में लाश के करीब ही संक्रमित मरीजों के इलाज के दहलाने वाले दृश्य भी सामने आए। सुप्रीम कोर्ट तक ने दिल्ली सरकार के बारे में प्रतिकूल टिप्पणियां कीं और राष्ट्रीय राजधानी में स्थिति को ‘भयावह और दयनीय’ बताया। हालांकि, अब दिल्ली 10,000 बेड के अस्थाई अस्पताल बनाने, घर-घर सर्वे करने और बहुतायत में स्क्रिनिंग के लिए कमर कसती हुई दिख रही है।
सवाल है कि आखिर हालात को पटरी पर कैसे लाया जाए? निश्चित ही कोविड-19 एक अभूतपूर्व महामारी है और इसे संभालना कोई सरल बात नहीं है। मगर हमारे देश में ही कई मॉडल सफल भी हुए हैं। हालांकि, सवाल मॉडल का नहीं, बल्कि पूरी संजीदगी के साथ नियमों के पालन का है, क्योंकि वही मॉडल सफल होते हैं, जिन्हें गंभीरता से जमीन पर उतारा जाता है।
इस काम में ‘इन्सिडेंट मैनेजमेंट’ यानी घटना प्रबंधन कारगर है, जो पिछली घटनाओं में हुई गलतियों से सबक लेकर तैयार किया जाता है। कोविड-19 के संदर्भ में, महामारी विज्ञानियों की योग्यता और उनके कौशल का इस्तेमाल किया जाना चाहिए। रोकथाम के उपायों को अमली जामा पहनाने के ये उपाय तब भी किए जा सकते हैं, जब विषाणुजनित महामारी के बारे में बहुत जानकारी उपलब्ध न हो और उससे लड़ने के लिए स्वास्थ्यकर्मियों के प्रशिक्षण, बचाव व नियंत्रण के उपायों को सुधारने, संसाधनों में इजाफा करने, स्वास्थ्यकर्मियों की संख्या बढ़ाने, बाह्य-संपर्क तेज करने जैसे अतिरिक्त कदम उठाने की दरकार हो। इस तंत्र में कमांड सरंचना काफी मायने रखती है, और इसके लिए महामारी विज्ञानियों को खासतौर से प्रशिक्षित किया जाता है। मगर मुश्किल यह है कि अपने देश में इस काम के लिए अमूमन नौकरशाहों पर भरोसा किया जाता है।
एक बात और। दिल्ली में केंद्र, राज्य और स्थानीय निकायों की तमाम एजेंसियां सक्रिय हैं। उनमें कई तरह के सियासी और अन्य मतभेद कायम हैं। मगर इस शहर ने हैजा, प्लेग, डेंगू, सार्स जैसी पिछली महामारियों का बखूबी सामना किया है। इसने काफी अरसे पहले एक सफल पोलियो उन्मूलन अभियान भी शुरू किया था, जबकि उस समय देश में इसका कोई ठोस मॉडल नहीं था। यह स्थिति तब थी, जब यहां की विभिन्न एजेंसियों में राजनीतिक व अन्य तरह के मतभेद होते रहते थे और केंद्र व दिल्ली के संबंध इतने ही जटिल थे।
स्वास्थ्य-देखभाल और सूचना-संचार प्रणाली में आज काफी सुधार हुआ है, इसलिए कोविड-19 के मोर्चे पर दिल्ली की विफलता त्रासद है। यहां पूर्व में सफलता इसलिए मिलती रही, क्योंकि तब केंद्र, राज्य व स्थानीय निकायों के बीच तालमेल बन जाता था और स्थानीय निकायों द्वारा पोषित मजबूत सार्वजनिक स्वास्थ्य-तंत्र का फायदा तब की सरकारों को मिला करता था। आज स्थानीय निकायों की ढांचागत कमजोरी और ‘इन्सिडेंट मैनेजमेंट सिस्टम’ की विफलता का नतीजा साफ-साफ दिख रहा है। तो क्या हम फिसल रहे हैं? इसका जवाब तो वक्त के पास है, लेकिन यदि हम समन्वय की बुनियादी सोच पर नहीं लौटे, तो हमें शायद ही कोई बचा सकेगा।
(ये लेखक के अपने विचार हैं) राजीव दासगुप्ता, प्रोफेसर (कम्युनिटी हेल्थ) जेएनयू
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