August 02, 2025
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क्या अम्फान से सबक सीखेंगे हम

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         शौर्यपथ / पश्चिम बंगाल और ओडिशा में भारी तबाही मचाता हुआ अम्फान तूफान भारत से गुजर चुका है। जब हवा 195 किलोमीटर प्रति घंटे की रफ्तार से बढ़ रही हो और तेज बारिश का उसे साथ मिले, तो उसकी राह में आने वाली हर चीज का नुकसान स्वाभाविक है। मगर अम्फान में अच्छी बात यह रही कि इसमें मौत की संख्या थामने में हम बहुत हद तक सफल रहे। हां, सार्वजनिक और निजी संपत्ति को क्षति जरूर पहुंची है, पर कुछ जरूरी मानकों का पालन किया गया होता, तो इसे भी सीमित रखना संभव था। फिलहाल, अम्फान से हुई तबाही का ठीक-ठीक आकलन लगाया जा रहा है।
किसी भी तूफान से लड़ने के लिए पूर्व-सूचना सबसे कारगर हथियार मानी जाती है। इसका अर्थ है कि संकट के आने का अंदेशा कब लगाया गया, और इस बाबत संबंधित शासन-प्रशासन को सूचना कब जारी की गई? यह सूचना जितनी सटीक होती है, जान-माल का नुकसान कम करने में शासन-प्रशासन को उतनी ही ज्यादा मदद मिलती है। भारतीय मौसम विभाग इस पहलू पर पिछले काफी समय से गंभीरता से काम कर रहा है, जिसके अच्छे नतीजे आए हैं। अक्तूबर 2013 में ही ओडिशा में आए फैलिन तूफान की पूर्व-सूचना से हमें काफी फायदा मिला था और संकट आने से पहले ही लोगों को सुरक्षित स्थानों पर पहुंचाकर उनकी जान बचाई गई थी, जबकि उस वक्त अंतरराष्ट्रीय एजेंसियों ने बड़ी संख्या में लोगों की मौत का अंदेशा जताया था।
आज भीषण तूफान जैसी आपदा से यदि लोगों की जान बचाई जा रही है, तो इसका श्रेय काफी हद तक राष्ट्रीय आपदा प्रबंधन प्राधिकरण (एनडीएमए) को दिया जा सकता है। इसकी स्थापना से पहले कुदरती आपदाओं को सिर्फ इस रूप में देखा जाता था कि आपदा के बाद बचाव और राहत के काम किस तरह किए जाएं। अब इस सोच में बदलाव आया है। अब आपदा से पहले बचाव के तरीके, उससे निपटने की तैयारी और नुकसान कम करने संबंधी उपायों पर ध्यान दिया जाता है, साथ ही आपदा के बीत जाने के बाद राहत और पुनर्निर्माण के कामों पर। एक समग्र रणनीति का ही नतीजा है कि अब आपदा में एक पूरा तंत्र सक्रिय हो जाता है, जो न सिर्फ प्रभावित क्षेत्रों से लोगों को बाहर निकालता है, बल्कि उनके ठहरने और खाने-पीने का भी पूरा इंतजाम करता है। इसी कारण अम्फान तूफान गुजर जाने के तुरंत बाद ओडिशा में जनजीवन सामान्य होने लगा।
यह सही है कि कोरोना-संक्रमण के काल में अम्फान जैसे संकट से लोगों को बचाना कम जोखिम भरा नहीं है। प्रभावित क्षेत्रों से लाखों लोगों को बाहर निकालना और उन्हें किसी सुरक्षित स्थान पर एक साथ रखने से कोरोना का संक्रमण फैलने का खतरा है। जब पीने का पानी ही सीमित मात्रा में हो, तब यह अपेक्षा नहीं की जा सकती कि लोग बार-बार साबुन से हाथ धोएंगे। मगर, पिछले दो महीने के जागरूकता अभियान ने लोगों को इतना सजग तो बना ही दिया है कि वे स्वयं सावधानी बरतने लगे हैं। संभव है, उन्हें मास्क, सैनिटाइजर वगैरह भी उपलब्ध कराए गए हों। लिहाजा, उनकी हालत उन प्रवासी मजदूरों जैसी नहीं होगी, जो बिना किसी तूफान के ही मुश्किलों से लड़ रहे हैं।
बहरहाल, किसी आपदा के दौरान दो बातों का खास ध्यान रखा जाता है। पहली बात, जान की रक्षा करना, और दूसरी, सरकारी और निजी संपत्ति का कम से कम नुकसान। चक्रवाती तूफान में इस तरह के नुकसानों को रोकना इसलिए मुश्किल होता है, क्योंकि हवा की तेज गति, समुद्र की ऊंची लहरें और मूसलाधार बारिश आपस में मिलकर संकट को भयावह बना देती हैं। हालांकि, पूर्व सूचना के साथ-साथ राज्य सरकारों द्वारा उठाए गए कई कदम भी अब मददगार साबित होने लगे हैं। जैसे, वे अब आधुनिक जीपीएस का इस्तेमाल करने लगे हैं। वे हवा की गति, समुद्री लहरों की ऊंचाई और बारिश की तीव्रता का आकलन करके प्रभावित इलाकों की पहचान करने लगे हैं और वहां से लोगों को सुरक्षित बाहर निकाल लेते हैं। अपने यहां 2008 में ही चक्रवाती तूफान संबंधी दिशा-निर्देश तैयार कर लिए गए थे। उससे पहले 2006 से ही चक्रवाती तूफान और अन्य आपदाओं के मद्देनजर मॉक ड्रिल का काम सभी राज्यों में शुरू हो गया था। इससे भी राज्यों को काफी फायदा मिला है।
दिक्कत तब आती है, जब ऐसे दिशा-निर्देशों को नजरअंदाज किया जाता है। पश्चिम बंगाल में साल 2009 के आइला तूफान में जब काफी नुकसान हुआ था, तब प्रधानमंत्री कार्यालय के निर्देश पर मैं प्रभावित इलाकों में गया था। हमारी टीम का प्रस्ताव था कि पश्चिम बंगाल में भी ओडिशा या आंध्र प्रदेश की तरह तूफान राहत केंद्र बनाए जाएं। इन वर्षों में इस पर कितना काम हुआ है, यह तो मुझे पता नहीं, लेकिन वहां इसके लिए जगह का मिलना मुश्किल था, और फिर उसके डिजाइन को बदलने की जरूरत थी, क्योंकि वहां मिट्टी भुरभुरी थी। इससे लागत भी बढ़ रही थी।
हर आपदा से हमें सीखने का मौका मिलता है। अम्फान भी हमारे लिए ऐसा ही सबक लेकर आया है। इस तूफान का डॉक्यूमेंटेशन यानी दस्तावेजीकरण होना चाहिए। आमतौर पर हम यह तो ध्यान रखते हैं कि किस काम से हमें कितना फायदा मिला, मगर यह भूल जाते हैं कि किस काम को न करने से कितना ज्यादा नुकसान हुआ। इसके साथ-साथ यह आकलन भी किया जाना चाहिए कि किसी काम को गलत तरीके से करने से हमें नुकसान तो नहीं हुआ? हमें अपनी सफलता और विफलता, सब कुछ बतौर रिकॉर्ड दर्ज करना चाहिए और अगली आपदा से निपटने की रणनीति बनाने में उसका इस्तेमाल करना चाहिए।
इसी तरह, एक अध्ययन यह भी होना चाहिए कि जलवायु परिवर्तन का इन तूफानों पर कितना असर हुआ है। बेशक पिछले कुछ वर्षों में चक्रवाती तूफान की बारंबारता बढ़ गई है, लेकिन यह स्पष्ट नहीं है कि इसकी वजह जलवायु परिवर्तन है। हां, जलवायु परिवर्तन से कम समय में तेज बारिश की आशंका जरूर बढ़ गई है, जिससे काफी नुकसान होता है। रही बात भौतिक संपत्तियों के नुकसान की, तो इसे लेकर जो दिशा-निर्देश हैं, उनमें कहा गया है कि उसी आपदा को मानक बनाकर निर्माण-कार्य होने चाहिए, जिससे सार्वजनिक या निजी संपत्ति को नुकसान हुआ है। इससे अगली बार उस तीव्रता की आपदा उसका कुछ बिगाड़ नहीं पाती। परेशानी की बात यह है कि इस पर अमल नहीं हो रहा, जबकि इसमें तुलनात्मक रूप से बहुत ज्यादा खर्च भी नहीं होता।
(ये लेखक के अपने विचार हैं)

 

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