February 06, 2025
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कहां सीख पाते हैं आपदाओं से हम

               ओपिनियन / शौर्यपथ / इसमें कुछ भी नया नहीं है। बंगाल की खाड़ी से एक चक्रवाती तूफान उठा और जान-माल के भारी नुकसान के झटके देकर विदा हो गया। तूफान गुजर जाने के बाद जब हम इसका आकलन कर रहे हैं, तो वही कहा जा रहा है, जो हर बार कहा जाता है- ‘प्राकृतिक आपदा को तो हम नहीं रोक सकते, लेकिन उससे होने वाले जान-माल के नुकसान को कम कर ही सकते हैं।’ यह सिर्फ चक्रवाती तूफान का चिंतन नहीं है। हर बार जब कहीं बाढ़ आती है, अतिवृष्टि होती है या भूकंप आता है, तो देश के बौद्धिक समुदाय में ऐसे वाक्यों को दोहराए जाने की होड़-सी लग जाती है। यह परंपरा काफी समृद्ध हो चुकी है। यही कोसी की बाढ़ में हुआ था, यही केदारनाथ की त्रासदी में और पिछले साल मुन्नार की अतिवृष्टि में भी यही दिखाई दिया। आपदा जब सिर पर आ चुकी होती है, तब हमें पता चलता है कि उसके मुकाबले के लिए हमारी तैयारियां पूरी नहीं थीं। अम्फान तो दो दिन पहले पश्चिम बंगाल और ओडिशा के तटों से टकराया है, पर पूरा देश तो पिछले दो महीनों से ही इस समस्या से लगातार दो-चार हो रहा है।
यह कहा जा सकता है कि हर कुछ साल बाद आने वाले चक्रवाती तूफान की तुलना में कोरोना वायरस के संकट को खड़ा नहीं किया जा सकता। महामारी का ऐसा संकट भारत में लगभग एक सदी बाद आया है, पिछली करीब चार पीढ़ियों ने महामारी के ऐसे प्रकोप को सिर्फ किताबों में पढ़ा है, और महामारी से कैसे निपटा जाता है, इससे आजाद भारत का प्रशासन पूरी तरह अनजान है। लेकिन बात शायद इतनी आसान नहीं है।
देश में पिछले डेढ़ दशक से एक राष्ट्रीय आपदा प्रबंधन प्राधिकरण है। इसी के साथ हमने आपदा से निपटने के लिए एक आपदा राहत बल भी बनाया था। प्राधिकरण की स्थापना के समय ही इससे उम्मीद बांधी गई थी कि यह सभी तरह की प्राकृतिक और मानवीय आपदाओं के लिए देश को तैयार रखेगा। इस संस्था के आलिम-फाजिल से यह उम्मीद तो की ही जानी चाहिए कि किसी आपदा के समय क्या-क्या समस्याएं खड़ी हो सकती हैं, इसका एक खाका और इसके सभी परिदृश्य वे पहले से ही सोचकर रखें। मार्च में लॉकडाउन घोषित होने के बाद पूरा देश उस समय सोते से जागा, जब एक दिन अचानक पता चला कि पूरे देश में लाखों विस्थापित मजदूर अपने-अपने घरों को लौटने के लिए निकल पड़े हैं। ऐसा क्यों हुआ या ऐसी स्थिति क्यों पैदा हुई, यह एक अलग मामला है, परआपदा प्रबंधन के लिए बने संगठन ने ऐसे किसी परिदृश्य के बारे में सोचा भी नहीं था, यह जरूर एक परेशान करने वाला मसला है। अगर सरकार के सामने ऐसे परिदृश्य रखे गए होते, तो शायद उसके फैसले और इंतजाम अलग तरह के हो सकते थे।
मामला सिर्फ विस्थापित मजदूरों का नहीं है। हम यह पहले से ही जानते थे कि दुनिया के मुकाबले हमारे पास चिकित्सा सुविधाएं काफी कम हैं। न सिर्फ अस्पताल और उपकरण, बल्कि डॉक्टर और चिकित्साकर्मी भी आबादी के हिसाब से नाकाफी हैं। पर आपदा आई, तो अचानक ही हमें पता चला कि जो डॉक्टर और चिकित्साकर्मी हैं भी, उनके लिए भी हमारे पास न तो मानक स्तर के पर्याप्त मास्क हैं और न ही पीपीई किट। यह ठीक है कि जल्द ही देश के उद्यमियों ने मोर्चा संभाला, तो यह कमी कुछ ही समय में दूर हो गई, लेकिन कुछ मामलों में तो सचमुच देर हो गई। इसे इस तरह से देखें कि हमारे यहां आबादी के लिहाज से डॉक्टरों का जो अनुपात है, कोरोना का शिकार बनने वाले लोगों में डॉक्टरों का वह अनुपात कहीं ज्यादा है। यही बात बाकी चिकित्साकर्मियों के बारे में भी कही जा सकती है। उम्मीद है कि आगे ऐसी समस्या शायद न आए, लेकिन अभी तक जो हुआ, उसके लिए हम खुद को कभी माफ नहीं कर पाएंगे। और, इसमें एक बड़ा दोष निश्चित रूप से देश के योजनाविदों का है।
हालांकि एक सच यह भी है कि हालात पूरी दुनिया में लगभग ऐसे ही हैं। खासकर अमेरिका में जो हुआ, वह उसके बारे में कई धारणाएं बदलने को मजबूर कर देता है। एक ऐसा देश, जो पिछले कई दशकों से जीवाणु-युद्ध के खतरों का खौफ पूरी दुनिया को बांटता रहा हो, उससे यह उम्मीद तो की जानी चाहिए कि वह जीवाणुओं के किसी भी हमले के लिए हमेशा तैयार होगा। लेकिन इस पूरे दौर में अमेरिकी प्रशासन ने सिर्फ यही दिखाया कि उसका स्तर भी बहुत कुछ हमारे राष्ट्रीय आपदा प्रबंधन प्राधिकरण जैसा ही है।
लेकिन एक फर्क जरूर है। चक्रवाती तूफान अमेरिका में भी आते हैं, और शायद ज्यादा ही आते हैं, पर भारत के मुकाबले वह अपने लोगों को इसके कहर से काफी कुछ बचा लेता है। भयानक चक्रवाती तूफानों के बीच अक्सर लंबा अंतराल होता है, न हम अपने लोगों को हर दूसरे साल आने वाली बाढ़ से बचा पाते हैं और न सूखे से। आपदा ही क्यों, हर साल जब बरसात शुरू होती है और देश के छोटे-बड़े तमाम शहरों की सड़कें व गलियां जलमग्न होने लगती हैं, तब पता चलता है कि नालियों की सफाई का सालाना काम अभी तक किया ही नहीं गया। आने वाली समस्याओं को लेकर यही परंपरागत रवैया हमारे नीति-नियामक अक्सर आपदाओं के मामले में भी अपनाते हैं। जो प्रशासनिक तंत्र हर साल आने वाली समस्याओं के लिए पहले से तैयारी नहीं रख पाता, उससे यह उम्मीद कैसे की जाए कि वह कोरोना और अम्फान जैसी अचानक आ टपकने वाली आपदाओं के लिए देश को पहले से तैयार रखेगा? इन दिनों आपदा को अवसर में बदलने की बातें बहुत हो रही हैं, लेकिन आपदा से सबक लेना हम कब शुरू करेंगे?
(ये लेखक के अपने विचार हैं)

 

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