
CONTECT NO. - 8962936808
EMAIL ID - shouryapath12@gmail.com
Address - SHOURYA NIWAS, SARSWATI GYAN MANDIR SCHOOL, SUBHASH NAGAR, KASARIDIH - DURG ( CHHATTISGARH )
LEGAL ADVISOR - DEEPAK KHOBRAGADE (ADVOCATE)
नजरिया / शौर्यपथ / कठिन दौर की कैसी होती है राजनीति? कुछ राजनीतिक विचारकों का मानना है कि कठिन दौर की राजनीति जीवन की कठोर सच्चाइयों से निर्मित होती है, न कि दूरस्थ आशावाद से। भविष्य के सपने और मिथकीय सच्चाई, दोनों ही थोड़ी देर के लिए स्थगित हो जाते हैं। आज हमारे जीवन के केंद्र में वायरस है। अत: आज की राजनीति भी वायरस के विमर्श पर केंद्रित है।
आज की राजनीति विषाणु व जैविक देह की रक्षा के इर्द-गिर्द घूम रही है। आज नेताओं की क्षमता व प्रभाव की रेटिंग उनके इस विषाणु को रोकने-थामने में सफलता-विफलता के आधार पर हो रही है। यह न सिर्फ भारत, बल्कि आज पूरी दुनिया के राजनीतिक-विमर्श के केंद्र में है। चीन, ब्राजील, दक्षिण कोरिया, सिंगापुर, अमेरिका, इटली या भारत, सभी देशों के शासनाध्यक्षों का मूल्यांकन देश या देश के बाहर इन्हीं आधारों पर हो रहा है। दुनिया की राजनीति, जिसके केंद्र में जहां पहले मानवाधिकार, समानता, उपेक्षित समूहों के प्रश्न महत्वपूर्ण होते थे, वहां अब इस वायरस के विरुद्ध लड़ाई, इसके लिए संसाधन व उनका वितरण राजनीति के केंद्र में है। जो देश इस लड़ाई में अच्छा प्रदर्शन करेगा, उसकी राजनीति और राजनेताओं को पूरी दुनिया में सम्मान मिलेगा। पूरी दुनिया में चिकित्सा की राजनीति व राजनीति की चिकित्सा का दौर है। विश्व स्वास्थ्य संगठन के इर्द-गिर्द खड़ा हो रहा विवाद भी यही साबित करता है कि अब महामारी व संक्रमण के विमर्श को राजनीति में प्रतीकात्मक शक्ति प्राप्त हो जाएगी। जो भी इस नैरेटिव को अपने पक्ष में रच लेगा, वह राजनीति में प्रभावी हो जाएगा।
भारत में कोरोना के समय और उत्तर कोरोना काल में भी विकास व कल्याणकारी योजनाओं की राजनीति कुछ पीछे चली जाएगी। पहले नेताओं की छवि उनके द्वारा शुरू की गई कल्याणकारी योजनाओं और राज्य के संसाधनों के विकासपरक वितरण से बनती-बिगड़ती थी। बिजली, सड़क, पानी विकास के मानक थे, जिनसे नेताओं की सफलता-विफलता का मूल्यांकन होता था। राजनीति की इस नई प्रवृत्ति को दुनिया के कुछ सिद्धांतकारों ने बॉयो-पॉलिटिक्स के उभार का दौर माना है। कोरोना महामारी ने जनतांत्रिक राजनीति के चरित्र में आमूल-चूल परिवर्तन ला दिया है, भले ही ये परिवर्तन अस्थाई हों।
महामारियां आज भी और पहले भी सामाजिक अंतर्विरोध को बढ़ाती रही हैं और अमीरी-गरीबी के बीच की खाई को और गहरी कर देती हैं। यह पूरी दुनिया में हो रहा है। ऐसे में, भारतीय राजनीति में भी फिर से गरीब, मजदूर जैसे सामाजिक रूप केंद्र में आ सकते हैं। इस नए दौर में भारतीय राजनीति की भाषा में एक बड़ा बदलाव आएगा। जन-स्वास्थ्य, असुरक्षा बोध, चिकित्सकीय सुविधा जैसे शब्द हमारी राजनीति की भाषा में महत्वपूर्ण हो जाएंगे। जाति की जगह ‘जैविक देह’ की चिंता हमारी राजनीति को शक्ल देगी। संभव है, जातिगत आधार पर राज्य से सुविधाओं की मांग थोड़ी देर के लिए गरीब, मजदूर व श्रमिक वर्ग के प्रश्नों के साथ जुड़ जाए।
भारतीय राजनीति में जनता व नेता के बीच संवाद अब वर्चुअल तो हो ही जाएगा। साक्षात संवाद के अवसर कम होते जाएंगे। कुछ समय तक तो सोशल साइट्स, ऑनलाइन संवाद, न्यूज चैनल व अखबार ही संवाद के माध्यम रहेंगे। जो भी इनकी परिधि में नहीं होगा, वह राजनीतिक संवादों की सीमा के बाहर हो जाएगा।
जन-स्वास्थ्य में उपेक्षितों-वंचितों की जगह क्या हो, उनके साथ कैसा व्यवहार हो रहा है, ये धीरे-धीरे राजनीतिक मूल्यांकन के संकेतक बनते जाएंगे। ये संकेतक कोरोना बाद भी महत्वपूर्ण रहेंगे। इस महामारी से लड़ने के लिए केंद्र द्वारा राज्यों को दी जा रही मदद भी राजनीति का हिस्सा बनेगी। राज्य-सत्ता पहले से ज्यादा प्रभावी व मुखर हो सकती है। ऐसे में, सत्ता पक्ष और विपक्ष में संवाद-विवाद मानवीय अस्तित्व के बड़े सवालों की ओर बढ़ सकते हैं। कोरोना संकट के इस हस्तक्षेप ने अर्थव्यवस्था की निरंतरता को भंग कर दिया है। फलत: आर्थिक मंदी के शिकार सामाजिक समूहों के मुद्दे भारत में अब जनतांत्रिक राजनीति के अहम प्रश्न हो सकते हैं। संभव है, सत्ता केंद्रित राजनीति की स्वार्थपरकता कुछ कमजोर हो व सेवाभाव की राजनीति का विस्तार हो। विपदाओं के समय का जवाब सेवाभाव ही होता है, इसी पैमाने पर राजनीति को पहले से भी ज्यादा परखा जाएगा।
(ये लेखक के अपने विचार हैं)
Make sure you enter all the required information, indicated by an asterisk (*). HTML code is not allowed.