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शौर्यपथ /मेरी कहानी /पढ़ाई उस लड़के के लिए एक ऐसा मुश्किल पहाड़ थी, जिस पर चढ़ना नामुमकिन था। पढ़ाई में आलम ऐसा था कि हर राह-मंजिल पर डांट-फटकार बरसती रहती थी। गणित देखकर दिमाग पैदल हो जाता, विज्ञान सिर के ऊपर से निकल जाता, भाषा ऐसे लंगड़ाती कि पूरे ‘रिजल्ट’ को बिठा देती। कई बार ऐसी पिटाई की नौबत आन पड़ती कि अपना भूगोल ही खतरे में पड़ जाता। हाथ भले पढ़ाई में तंग था, लेकिन दिमाग में बदमाशियां इफरात थीं। हरकतें ऐसी थीं कि एक दिन प्रिंसिपल साहब ने यहां तक कह दिया, ‘यह लड़का या तो जेल पहुंचकर मानेगा या फिर करोड़पति बन जाएगा।’ शिक्षकों ने बहुत पढ़ाया-समझाया, प्रिंसिपल ने भी लाख कोशिशें कीं, लेकिन पढ़ाई उस लड़के के पल्ले नहीं पड़ी, और अंतत: वह दिन आ गया, जब वह लड़का स्कूल से बाहर कर दिया गया। उम्र महज 15 साल थी, मैट्रिक का मुकाम भी दूर रह गया। पढ़ाई छूट गई, अब क्या होगा? मां बैले डांसर थीं और कभी एयर होस्टेस रही थीं। पिता काम लायक भी कामयाब नहीं थे। ऐसे में घर का बड़ा लड़का ही पटरी से उतर गया। जो लोग पढ़ाई के लिए कहते थे, वही पूछने लगे कि अब यह लड़का क्या करेगा?
एक दिन वह लड़का उसी छूटे स्कूल के बाहर बैठकर सोच रहा था। बाकी लड़के स्कूल जा रहे थे। उनमें से कुछ शायद मुस्करा भी रहे थे। दुनिया में ऐसे लोग बहुत हैं, जो सिर्फ किसी की नाकामी का इंतजार करते हैं, घात लगाए बैठे रहते हैं कि कब किसी को नाकामी का घाव लगे और उस पर नमक छिड़का जाए। ऐसी निर्मम दुनिया में स्कूल ने उसे ऐसे ठुकरा दिया था कि किसी दूसरे स्कूल में दाखिले की सोचना भी फिजूल था। उसके साथ ऐसा क्यों हुआ? वह क्यों न पढ़ सका? कहां कमी रह गई? क्या जिंदगी में आज तक हर काम बुरा ही किया है? वहां बैठे-बैठे पहले तो वह लड़का अपनी तमाम बुरी यादों से गुजरा। बीते लम्हों के हादसों के तमाम मंजर जब खर्च हो गए, तब सोच की सही लय लौटी। दिलो-दिमाग में सवाल पैदा हुआ, क्या आज तक की जिंदगी में कभी उसे तारीफ मिली है? वह कौन-सा काम था, जिसके लिए उसे तारीफ मिली थी? आखिर ऐसा कोई तो काम होगा? फिर उसे याद आया कि उसने एक बार स्कूल की पत्रिका के प्रकाशन में शानदार योगदान दिया था, जिसके लिए उसे सबसे तारीफ हासिल हुई थी। जिसके हाथ में भी वह पत्रिका गई थी, लगभग सभी ने उसेबधाई दी थी।
पत्रिका का प्रकाशन अकेला ऐसा काम था, जिससे उस लड़के को कुछ समय के लिए ही सही, स्कूल में शोहरत नसीब हुई थी। लड़के ने अपना हुनर खोज लिया था, उसे अपनी काबिलियत दिख गई थी। उसे लग गया था कि यही वह काम है, जो वह सबसे बेहतर कर सकता है। वह उठा, पूरे जोश के साथ स्कूल के अंदर गया और अभिवादन के बाद प्रिंसिपल से बोला, ‘सर, आप कहते हैं, मैं कुछ नहीं कर सकता, लेकिन एक काम है, जो मैं बेहतर कर सकता हूं, जिसके लिए मुझे आपसे तारीफ भी मिल चुकी है। मैं छात्रों के लिए एक अच्छी पत्रिका निकालूंगा। आपसे मदद की उम्मीद रहेगी।’ प्रिंसिपल भी उसका जोश देख खुश हो गए। उन्होंने लड़के को मदद के आश्वासन और शुभकामनाओं के साथ विदा किया। फिर क्या था, वह लड़का दिन-रात पत्रिका की तैयारी में जुट गया। पैसा, संसाधन, सामग्री, सहयोग इत्यादि वह जुटाता गया। छात्रों को ही नहीं, उनके अभिभावकों को भी अपने शीशे में उतारने में वह लड़का इतना माहिर था कि सभी ने मिलकर उसकी मदद की और सवा साल की बेजोड़ मेहनत के बाद उसकी पत्रिका स्टूडेंट का पहला अंक 1 जनवरी, 1968 को बाजार में आ गया। वह पत्रिका छात्रों, शिक्षकों और अभिभावकों के बीच हाथों-हाथ ऐसी बिकी कि सबने उस 17 साल के लड़के रिचर्ड ब्रेंसन को सिर-आंखों पर बिठा लिया।
ब्रेंसन बहुत कम उम्र में दूसरों के लिए नजीर बन गए। वह समझ गए थे, जिंदगी में वही काम करना चाहिए, जो हम सबसे बेहतर कर सकते हैं या जिसमें हम सबसे ज्यादा हुनरमंद हैं या जिसके लिए लोग हमारी तारीफों के पुल बांधते हों। ब्रेंसन के एक हुनर ने उनके लिए आगे बढ़ने की ऐसी राह बना दी कि उन्होंने कभी पलटकर नहीं देखा। आज वह वर्जिन ग्रुप की 400 से ज्यादा सफल कंपनियों के मालिक हैं और दुनिया के मशहूर अमीरों में उनकी गिनती होती है। नाकामियों से निकलने के लिए अपने गिरेबां में कैसे झांकना पड़ता है, रिचर्ड ब्रेंसन इसकी बेहतरीन मिसाल हैं। गौर कीजिएगा, जिस लड़के को कभी स्कूल से निकाल दिया गया था, उस लड़के की कामयाबी आज दुनिया के तमाम सर्वश्रेष्ठ प्रबंधन संस्थानों और विश्वविद्यालयों में पढ़ाई जाती है। प्रस्तुति : ज्ञानेश उपाध्याय रिचर्ड ब्रेंसन (मशहूर उद्यमी),नई दिल्ली।
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