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Shourya Path News - श्रीकृष्ण की परीक्षा राधा ने अहंकारवश जब ली
October 30, 2025
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श्रीकृष्ण की परीक्षा राधा ने अहंकारवश जब ली

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           धर्म संसार / शौर्यपथ / श्रीकृष्ण कहते हैं कि हम कलियुग में एक ऐसा अवतार लेंगे जिसमें शरीर तो कृष्ण का ही होगा परंतु हृदय राधा का होगा। यह सुनकर राधा कहती हैं कि अहा कितना आनंद आएगा जब राधा की भांति दरदर होकर केवल कृष्ण-कृष्ण पुकारते फिरोगे। यह सुनकर श्रीकृष्ण कहते हैं हां, वही करूंगा। वही करूंगा। चैतन्य के रूप में नवद्वीप से लेकर वृंदावन तक कृष्ण कृष्ण पुकारता जाऊंगा।

इसके बाद चैतन्य महाप्रभु को अपने दो साथियों के साथ हरि कीर्तन करते हुए बताया जाता है। फिर से श्रीकृष्ण राधा से कहते हैं कृष्ण कृष्ण पुकारता जाऊंगा। ताकि तुम्हारी तरह कृष्ण प्रेम में तड़प कर देख सकूं। यह सुनकर राधा कहती हैं कि यदि उस तड़प का पूरा आनंद लेना है तो एक काम करिए। तब कृष्ण पूछते हैं, क्या? फिर राधा कहती हैं मुझे मुरली बजाना सिखा दीजिए। इस पर श्रीकृष्ण कहते हैं क्या करोगी? तब राधा कहती हैं कि जब आप विरह व्यथा से पीड़ीत होंगे तो आपकी तरह वृंदावन में चैन से बैठकर मुरली बजाऊंगी। जिसकी ध्वनि सुनकर आप भी मेरी तरह बैचेन हो जाएंगे।
फिर उधर, गोकुल के यमुना किनारे श्रीकृष्ण और राधा को पुन: बताया जाता है। राधा कहती हैं मुझे भी मुरली बजाना सिखाओ। तब कृष्ण कहते हैं कि मुरली नहीं है। यह सुनकर श्रीकृष्ण के हाथ से मुरली लेकर राधा कहती हैं फिर ये क्या है? इस पर कृष्ण कहते हैं ये तुम्हारे काम की नहीं, तुम्हे तो ऐसी मुरली चाहिए जो केवल कृष्ण को जगाए। कृष्ण की मुरली बजेगी तो सारे ब्रह्मांड को जगा देगी। फिर एक तुम ही नहीं और न जाने प्रेम की कितनी ही आत्माएं इस मुरली के स्वरों में बंधकर खिंची चली आएंगी। अगर ऐसा हुआ तो तुम क्या करोगी? फिर उन सबको संभालना तुम्हारे बस में नहीं होगा।
यह सुनकर राधा उठकर खड़ी हो जाती है और कहती हैं ये तुम्हारा अहंकार है कान्हा। राधा जैसा प्रेम तुमसे और कौन करेगा? जो इस प्रकार मतवाली होकर लोकलाज, रिश्ते-नाते सब छोड़-छाड़कर तुम्हारे पीछे फिरेंगी। यह सुनकर श्रीकृष्ण कहते हैं कि अब अहंकार तुम कर रही हो राधे। याद रखो अहंकार प्रेम का शत्रु होता है।


तब राधा कहती हैं कि जिसे तुम अहंकार कह रहे हो वह प्रेम का अधिकार है और जो सबसे अधिक प्रेम करेगी वह अवश्य अपना अधिकार मांग सकती हैं। यह सुनकर श्रीकृष्ण कहते हैं कि प्रेम में मांगना नहीं देना होता है राधे। तब राधा कहती हैं कि ये सब दार्शनिक बातें रहने दो। तुम्हें अभिमान हैं ना अपनी दूसरी प्रियतमाओं पर तो बजाओ अपनी मुरली और बुला लो उन सबको। आज हो जाए सबके प्रेम की परीक्षा।
ऐसा कहकर राधा श्रीकृष्ण के आसपास एक गोला बना देती हैं और कहती हैं कि इस वृत्त के अंदर वही पैर धर सकेंगी जो तुमसे मेरी तरह प्रेम करती हों अन्यथा यहीं भस्म हो जाएगी। तब श्रीकृष्ण राधा की ओर गौर से देखते हैं तो राधा कहती हैं कि देखते क्या हो बजाओ मुरली और बुला लो उन सबको। तब श्रीकृष्ण कहते हैं कि फिर सोच लो। राधा कहती हैं सोच लिया।

यह सुनकर श्रीकृष्ण अपने अधरों कर मुरली को रखकर आंखें बंद कर ऐसी मुरली बजाते हैं कि राधा कि सभी सखियां बेसुध होकर अपना स्थलू शरीर छोड़ कान्हा के पास यमुना पर पहुंच जाती हैं। यह देखकर राधा आश्चर्य से देखती हैं कि ये सखियां तो यहां आ रही हैं। वे सभी आकर उस वृत्त (गोले) के आसपास एकत्रित होकर कान्हा की मुरली सुनती रहती हैं।
राधा यह देखकर गोले के आसपास अपनी शक्ति से आग उत्पन्न कर देती हैं, लेकिन वह सभी सखियां आग को पार करके कान्हा के और नजदीक पहुंच जाती हैं। यह देखकर राधा की आंखों से आंसू झरने लगते हैं। कुछ क्षण में आग लुप्त हो जाती है। राधा कृष्ण के चरणों में हाथ जोड़कर बैठ जाती हैं और कहती हैं मुझे क्षमा कर दो कान्हा। मैंने भूल से तुम पर केवल अपना ही अधिकार समझा था। आज मेरे अहंकार टूट गया। राधा हार गई।
यह सुनकर श्रीकृष्ण कहते हैं कि इन्हें ध्यान से देखो। ये ललीता, विशाखा, उत्तरा सभी मानती हैं कि ये तुमसे अधिक प्रेम करती हैं। ये सब मुझे अपना पति मानती हैं, लेकिन ये सभी वास्तव में तुम ही हो राधा। प्रभु अपनी माया से राधा को दिखाते हैं कि ये सभी सखियां तुम ही हो। प्रभु कहते हैं कि राधा और श्रीकृष्ण के सिवाय इस संसार में कुछ नहीं। तब राधा कहती हैं ‍कि एक चीज है और वो है प्रेम। राधा और कृष्‍ण का प्रेम। यह सुनकर श्रीकृष्ण कहते हैं आज हम तुमसे फिर हार गए राधा।

इसके बाद दोनों एक अंधे व्यक्ति के भजन सुने में डूब जाते हैं।

दूसरी ओर अक्रूरजी से गर्ग ऋषि हंसते हुए कहते हैं कि अच्छा देवी देवकी ने ऐसा कहा कि उसका छोटा अनपढ़ ही अच्‍छा। वो गय्या चराएगा और मुरली ही बजाएगा। यह सुनकर अक्रूरजी कहते हैं जी गुरुदेव ऐसा ही कहा उन्होंने। तब गर्ग मुनि कहते हैं कि वाह वाह वाह, कैसी गूढ़ बात कहती उन्होंने। आप इसका अर्थ समझे?
यह सुनकर अक्रूरजी कहते हैं कि दोनों राजकुमारों को अपने वंश और अपने देश को ध्यान में रखकर वही काम करने चाहिए जिससे राजकुमारों का उत्तरदायित्व पूरा हो। यह सुनकर गर्ग मुनि कहते हैं कि श्रीकृष्ण केवल राजकुमार ही नहीं। कुछ और भी हैं। आप उनके उत्तरदायित्व को समझ सकते हैं? अक्रूरजी जो विद्या और जो ज्ञान आप उन्हें सिखाना चाहते हैं वह सब उनकी मुरली की धुन में छुपा हुआ है।


लेकिन अक्रूरजी यह बात नहीं मानते और कहते हैं कि उनका धर्म ये आज्ञा नहीं देता है कि वो एक काल्पनिक विश्वास का सहारा लेकर इस प्रकार अकर्मण्य होकर केवल हाथ पर हाथ धरे अच्छा समय आने की प्रतीक्षा करते रहें। तब गर्ग मुनि कहते हैं कि आपकी बात भी सही है। आप जैसा कर्मयोगी केवल मनुष्य की शक्ति पर ही विश्वास रखकर अपना कर्म निर्धारित करता है। परंतु हम जैसे भक्त केवल उसकी शक्ति पर भरोसा रखकर ही कर्म करते हैं जो मनुष्य को भी शक्ति देता है।

फिर अक्रूरजी कहते हैं कि गुरुदेव मैं समझता हूं कि दोनों राजकुमार अब किशोरावस्था में हैं। अब उन्हें कंस से टक्कर लेने के लिए अपनी पूरी तैयारी शुरु कर देना चाहिए। इसलिए मैं आपकी सेवा में आया हूं कि आप ही वसुदेवजी को आदेश दे सकते हैं कि अब राजकुमारों का समय यूं गय्या चराने में बर्बाद न किया जाए। यह सुनकर गर्ग मुनि कहते हैं कि उनका समय बर्बाद नहीं हो रहा अक्रूरजी। ये समय तो उनकी प्रेम लीला का है। मानव को ये सिखना है कि प्रेम के बिना मानव का जीवन अधूरा है। गर्ग मुनि कहते हैं कि श्रीकृष्ण पूर्णावतार हैं वे समय आने पर राजनीति भी सिखाएंगे और युद्ध भी करेंगे। निर्माण और संहार करना भी सिखाएंगे।
अक्रूरजी को गर्ग मुनि की बात समझ में नहीं आती है। वे कहते हैं कि जरासंध, बाणासुर और कंस जैसे लोग मिलकर इस धरती को नरक बना दें उससे पहले उनकी शक्तियों का अंत कर देना चाहिए। तब गर्ग मुनि कहते हैं कि उसका समय तो आने दीजिए? यह सुनकर अक्रूरजी कहते हैं कि वह समय कब आएगा? गर्ग मुनि कहते हैं कि बस आने ही वाला है लेकिन अभी तो प्रभु की प्रेम लीला जारी है। विनाश की लीला आरंभ करने से पहले वे मनुष्य को यह संदेश देना चाहते हैं कि अंतत: प्रेम ही सृष्टि का आधार है और वहीं जगत का सार है।
फिर से उस अंधे को कीर्तन करते हुए बताया जाता है। कीर्तन सुनकर गर्ग मुनि कहते हैं कि आह कवि की परिकल्पना में उस परम सत्य की कैसी व्याख्या है। अक्रूजी जी वास्तव में कवि की दूरदृष्टि ही समय की सीमाओं को लांघकर उस परम सत्य को देख सकती हैं।...जय श्रीकृष्णा।


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