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नजरिया /शौर्यपथ / पूरा विश्व इस वक्त कोविड-19 से जूझ रहा है। ज्यादातर आर्थिक गतिविधियां रुकी हुई हैं। विभिन्न प्रकार की समस्याओं से लगभग सभी देश जूझ रहे हैं। भारत भी इससे अछूता नहीं है। यहां पर प्रवासी मजदूरों की समस्या जबरदस्त रूप में उभरकर सामने आई है। ये मजदूर अलग-अलग प्रांतों से मुख्यत: तीन राज्यों- उत्तर प्रदेश, बिहार और झारखंड में आ रहे हैं। इनमें सबसे बड़ी संख्या अभी तक उत्तर प्रदेश में 26 लाख लोगों के आने की है। सबका ध्यान सरकार पर है कि वह इनके लिए क्या कर रही है। आरोप-प्रत्यारोप शुरू हो चुके हैं।
आर्थिक सर्वेक्षण 2017 बताता है कि देश में लगभग 14 करोड़़ मजदूर मौसमी या चक्रीय स्वरूप के हैं। यही मजदूर कोविड-19 के बाद आर्थिक पुनर्गलन में अहम भूमिका निभाएंगे, जैसाविश्व आर्थिक मंच कहता है। ये मजदूर अर्थव्यस्था के तीनों सेक्टर- कृषि, उद्योग और सेवा में अपना योगदान देते हैं। सेवा क्षेत्र में ये कूड़ा उठाने से लेकर सड़क-भवन निर्माण, मलबा ढोने तक के काम में शामिल हैं। औद्योगिक क्षेत्र में माल ढोने से लेकर उत्पादित वस्तुओं को लादने तक में ये अपना योगदान देते हैं, तो वहीं कृषि क्षेत्र मे बुआई, कटाई और उत्पादित फसलों की ढुलाई इत्यादि का काम करते हैं। इनके शारीरिक योगदान से ही अर्थव्यवस्था में रोजगार और उत्पादन संभव है। ये अर्थव्यवस्था की रीढ़ हैं। इनके बिना तो अर्थव्यवस्था की रीढ़ ही टूट जाएगी।
सवाल यह है कि मजदूर आखिर क्यों सड़क पर आए? पहला कारण तो यही है कि राज्य सरकारों ने उनकी क्रय-शक्ति पर ध्यान ही नहीं दिया। कोविड से पहले वे जहां थे, वहीं उनके रहने, खाने व उनकी क्रय-शक्ति बनाए रखने की व्यवस्था होनी चाहिए थी। परंतु ऐसा नहीं हुआ। और जो कुछ किया भी गया, वह उन्हें रोकने के लिए पर्याप्त नहीं था।
दूसरा कारण राजनीतिक है। कुछ सत्तासीन पार्टियों को लगता है कि प्रवासी मजदूर उनको वोट तो देते नहीं, इसीलिए इनका पलायन होने दो। उन्हें शायद यह भी लगता है कि इनके चले जाने से स्थानीय वोट बैंक को संतुष्टि भी मिलेगी और रोजगार के अवसर भी होंगे। लेकिन इससे नुकसान स्थानीय राज्यों का भी है, क्योंकि सामान ढोने वालों, सड़कें बनाने वालों की कमी पड़ जाएगी। इसके सामाजिक पहलू की भी पड़ताल की जानी चाहिए। प्रवासी मजदूर जहां वर्षों से रह रहे थे, वहां उनकी आर्थिक स्थिति मजबूत होती चली गई। इनका हिस्सा उस राज्य के रोजगार, आय, जमीन, मकान आदि में बढ़ता चला गया। इस वजह से वह स्थानीय जनता नाराज होने लगी, जो इन्हें सिर्फ मजदूर के रूप में देखना चाहती थी। इस तबके की नाराजगी भी प्रवासियों को झेलनी पड़ी है।
ऐसी स्थिति में सरकारों को मजदूरों तक सामाजिक व वित्तीय सुरक्षा के साथ-साथ तत्काल नकदी पहुंचाने की व्यवस्था करनी चाहिए। केंद्र सरकार ने इस दिशा में पीएम किसान योजना, मनरेगा व अन्य योजनाओं के जरिए महत्वपूर्ण कदम उठाए भी हैं। ऐसी आपदा के समय त्वरित निर्णय और तीव्र कार्यशैली का काफी महत्व होता है। इस लिहाज से उत्तर प्रदेश सरकार अपनी समकक्ष सरकारों से काफी आगे दिख रही है। प्रदेश सरकार ने 353 करोड़ रुपये का एक त्वरित राहत पैकेज जारी किया है, जिससे 30 लाख से भी अधिक श्रमिक लाभान्वित होंगे। यूपी लौट रहे प्रवासी मजदूरों को मुख्यमंत्री लगातार यह भरोसा दे रहे हैं कि प्रदेश में आने वाले निवेश के जरिए वह उनके रोजगार व सामाजिक सुरक्षा की समुचित व्यवस्था करेंगे। यदि उत्तर प्रदेश ऐसे श्रमिकों को लेकर अपनी योजना में कामयाब रहा, तो उसके पास दूसरे राज्यों में काम कर रहे अपने श्रमिकों का भी पूरा ब्योरा होगा और जब कभी भी कोई आपदा आएगी, तो वह उसके हिसाब से प्लान कर सकेगी। मानव संपदा के सकारात्मक इस्तेमाल से प्रदेश की तस्वीर बदली जा सकती है।
अन्य राज्य सरकारें भी केंद्र के साथ मिलकर मजदूरों के लिए योजनाएं बना रही हैं। कोरोना के कारण राजस्व को पहुंचे भारी नुकसान की भरपाई के लिए भी वे तरकीबें निकालने में जुटी हैं। जाहिर है, इस विकट संकट से निपटने के लिए त्वरित निर्णय और दीर्घकालिक रणनीति बनाने की जरूरत है। अब सोचना उन राज्यों को भी होगा, जहां से श्रमिकों का पलायन हुआ है, वे अपनी अर्थव्यवस्था की रीढ़ रहे कामगारों का भरोसा कैसे जीतेंगे?
(ये लेखक के अपने विचार हैं) शक्ति कुमार, चेयरपर्सन, सेंटर फॉर इकोनॉमिक स्टडीज ऐंड प्लानिंग, जेएनयू
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