November 22, 2024
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सीमा विवाद से लाभ लेता चीन

ओपिनियन / शौर्यपथ / पूर्वी लद्दाख की गलवान घाटी में भारत और चीन की सेनाओं में तनातनी जारी है। दोनों पक्ष अपनी-अपनी स्थिति को मजबूत बनाने में जुटे हुए हैं। हालांकि पिछले कई वर्षों में जिस तरह बातचीत से तनाव कम किए गए, इस बार भी सफलता मिल सकती है, लेकिन इस वक्त अहम सवाल यह है कि क्या चीन के सैनिक उस जमीन को खाली करने पर राजी हो जाएंगे, जो उन्होंने वास्तविक नियंत्रण रेखा (एलएसी) का उल्लंघन करके अपने कब्जे में ले ली है?

चीन तभी संतुष्ट होगा, जब जमीनी हकीकत बदल जाए। इसके लिए कुछ मीटर पीछे तक दोनों सेना को लौटने के लिए कहा जाए और कब्जाई गई ज्यादातर जमीन बीजिंग को सौंप दी जाए। चीन कब्जे वाले क्षेत्र को खाली करने पर भी सहमत हो सकता है, लेकिन बदले में वह कई रियायतों की उम्मीद करेगा, जिनमें वास्तविक नियंत्रण रेखा के भारतीय हिस्से में सीमा पर इन्फ्रास्ट्रक्चर यानी ढांचागत विकास कार्यों को रोकना भी शामिल हो सकता है। संभव है, बनाए गए ढांचों को तोड़ने की मांग भी करे। 2017 में जब डोका ला विवाद हुआ था, तब भी दोनों तरफ की सेनाएं पीछे हटी थीं। चीन ने सड़क-निर्माण की अतिरिक्त गतिविधियां तो रोक दी थीं, लेकिन कब्जे वाले इलाके में अपनी स्थिति को मजबूत बनाने का काम उसने जारी रखा। कुल मिलाकर, जमीनी सच्चाई चीन के हित में बदल गई थी, हालांकि आगे किसी दखल को लेकर भारत ने पहले ही अपनी कार्रवाई रोक दी थी। इसीलिए चीन के इस व्यवहार का जब तक भारत कोई प्रभावी काट नहीं ढूंढ़ लेता, वास्तविक नियंत्रण रेखा पर इस तरह की घटनाओं के होने की न सिर्फ आशंका बनी रहेगी, बल्कि ऐसी घटनाएं ज्यादा तीव्रता से हो सकती हैं।

चीन के इस खेल का एक और पहलू है। भारत-चीन सीमा पर ही नहीं, दक्षिण चीन सागर, ताइवान जलडमरूमध्य और पीत सागर पर भी ऐसा ही कुछ चल रहा है। चीन की हर कार्रवाई, जब तक कि वह किसी दूसरी कार्रवाई से जुड़ी हुई न हो, एक मजबूत व जवाबी सैन्य प्रतिक्रिया के लिए आवश्यक धमकी नहीं मानी जा सकती। हालांकि, बदलते वक्त में इसी तरह की ‘एकल कार्रवाई’ की शृंखला इलाके में शक्ति-संतुलन में उल्लेखनीय बदलाव का वाहक बनती है। इसी कारण दक्षिण चीन सागर और कई विदेशी द्वीपों पर चीन का कब्जा व सैन्यीकरण उस स्थिति में पहुंच गया है कि सिर्फ सैन्य प्रतिक्रिया (संभवत: युद्ध) से ही बीजिंग को रोका जा सकता है। जाहिर है, जोखिम भरा यह कदम शायद ही कोई उठाए। हां, ताकतवर मुल्कों से यह अपेक्षा की जा सकती है कि वे चीन के आगामी अतिक्रमण को रोकने के प्रयास करें।

चीन के इस खेल को हमने वर्षों से भारत-चीन सीमा पर देखा है। यहां छोटी-छोटी गतिविधियां लगातार होती रही हैं, जिनका भारतीय पक्ष विरोध करते रहे हैं, मगर वे चीन द्वारा हड़पी जा रही जमीन को फिर से वापस पाने के लिए किसी सैन्य आक्रमण का रास्ता अपनाने को तैयार नहीं हैं। हमें कब्जा जमाने की चीन की इस नीति को समझना होगा और इसके खिलाफ एक प्रभावी रणनीति बनानी होगी। उन इलाकों में, जहां हमें सामरिक लाभ हासिल है, वहां वास्तविक नियंत्रण रेखा की अस्पष्टता का अपने हित में उपयोग करना होगा। इसके बाद ही यथास्थिति बहाल करने के लिए सौदेबाजी करते समय हम कुछ दबाव बनाने की स्थिति में होंगे।

चीन के इस खेल के तीसरे पक्ष पर भी ध्यान देने की जरूरत है। दरअसल, चीन किसी भी देश की आर्थिक और सैन्य क्षमताओं को सावधानीपूर्वक आंकने के बाद ही अपना रुख तय करता है। यह कभी-कभी गलत भी हो सकता है, क्योंकि चीन के नेता अपनी सोच को लेकर आत्म-केंद्रित होते हैं। दूसरे देशों के साथ आपसी संबंधों में सामरिक चपलता, यहां तक कि विश्वासघात के प्रति भी, वहां सांस्कृतिक पूर्वाग्रह है। इसी कारण, 1962 के युद्ध के बाद सीमा पर पुरानी स्थिति बहाल करने संबंधी चीन का दावा ऐसा कथित राहत-पैकेज था, जो प्रचलित यथास्थिति को ही औपचारिक जामा पहनाता रहा। 1985-86 में पूर्वी क्षेत्र में वांडुंग की घटना के बाद भी पैकेज प्रस्ताव को इस तरह फिर से परिभाषित किया गया कि पूर्व में, जो सबसे बड़ा विवादित क्षेत्र है, सार्थक छूट हासिल करने के लिए भारत को एक समझौते की दरकार है, जिसके बदले में चीन पश्चिमी क्षेत्र में उचित, हालांकि अपरिभाषित छूट हासिल करेगा। फिर इसके बाद यह संदेश दिया गया कि किसी भी समझौते में चीन को तवांग सौंपना होगा।

अब जो हम देख रहे हैं, वह बताता है कि चीन अपने उसी लक्ष्य की ओर बढ़ रहा है। उसके व्यवहार से पता चलता है कि वास्तविक नियंत्रण रेखा के सटीक सीमांकन पर अस्पष्टता से उसे यह अवसर मिला है कि वह स्थानीय व सामरिक लाभ हासिल करने के लिए कुछ जगहों पर विवाद को हवा दे, साथ-साथ ऐसा माहौल भी बनाया जाए कि भारत के साथ किसी समझौते में उसका हाथ मजबूत है।

कुछ विश्लेषकों का सुझाव है कि चीन को उकसाने वाला ऐसा कोई काम नहीं करना चाहिए कि भारत मजबूर होकर अमेरिका के करीब जाए। इसका निहितार्थ यह भी है कि चीन जिन देशों को अपना विरोधी मानता है, उनसे उसकी दूरी भारत पर दबाव घटा सकती है। हालांकि यह अजीब तर्क है। यह संकेत करता है कि भारत की विदेश नीति पर फैसला तो वाशिंगटन में हो रहा है, लेकिन उसे चीन की प्राथमिकताओं के मुताबिक बदल दिया जाना चाहिए? भारत की विदेश नीति को नई दिल्ली में बनाया जाना चाहिए, जो देश के सर्वोत्तम हित में है। यह नई दिल्ली का अनुभव रहा है कि अन्य तमाम ताकतवर मुल्कों के साथ-साथ भारत और अमेरिका के आपसी मजबूत रिश्तों से चीन की चुनौती का बेहतर प्रबंधन करने की क्षमता और कुशलता बढ़ती है। भारत दुनिया से जितना अलग-थलग होगा, चीन का उस पर उतना ही ज्यादा दबाव पड़ने का खतरा बढ़ेगा।

बेशक अभी अमेरिका के साथ किसी तरह के सैन्य समझौते की संभावना नहीं है, लेकिन दुनिया के ताकतवर राष्ट्रों का एक मजबूत व विश्वसनीय जवाबी प्रतिक्रिया-तंत्र बनाना एक विवेकपूर्ण रणनीति है, जो चीन की परभक्षी नीतियों के प्रति भारत की चिंताओं को समझे। हालांकि, चीन के साथ शक्ति-संतुलन बनाने के लिए भारत को अपनी क्षमता भी दुरुस्त करनी होगी, जो कि मौजूदा विवाद के मूल में है।
(ये लेखक के अपने विचार हैं) श्याम सरन, पूर्व विदेश सचिव

 

 

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