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नजरिया / शौर्यपथ / दिल्ली में आप (आम आदमी पार्टी) सरकार की ताजा रायशुमारी सवालों के घेरे में है। उसने लोगों से यह पूछा है कि क्या कोरोना-काल में दिल्ली के अस्पतालों के बेड सिर्फ दिल्लीवालों के लिए आरक्षित होने चाहिए? इसके साथ ही, उसने पड़ोसी राज्यों से जुड़ी दिल्ली की सीमा भी फिलहाल बंद कर दी है। सवाल यह है कि जब नोएडा, गुरुग्राम जैसे इलाके राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र, यानी एनसीआर का हिस्सा हैं, तो दिल्ली सरकार का यह कदम क्या सही है? सवाल यह भी कि जिस मकसद से एनसीआर की संकल्पना की गई थी, क्या वह आज पूरा हो रहा है? एनसीआर की सोच दशकों पुरानी है। राष्ट्रीय राजधानी दिल्ली में आबादी के बोझ को थामने और यहां की औद्योगिक गतिविधियों को सीमित करने के लिए इसे मूर्त रूप दिया गया था। इसीलिए 1985 में राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र योजना बोर्ड का गठन भी किया गया। आलम यह था कि शुरुआती वर्षों में किसी भी नई औद्योगिक इकाई को दिल्ली में स्थापित होने की इजाजत नहीं दी गई। नतीजतन, उत्तर प्रदेश के नोएडा और हरियाणा के गुरुग्राम जैसे इलाके ‘औद्योगिक हब’ बनकर उभरे। मगर लोगों में दिल्ली का आकर्षण कम नहीं हुआ। यही कारण है कि राजधानी क्षेत्र के आसपास के इलाकों में कंक्रीट की बहुमंजिली इमारतें खड़ी हुईं और नए-नए टाउनशिप बसाए गए। यहां रहने वाले लोग आज भी खुद को दिल्लीवासी ही समझते हैं।
अगर योजना मुताबिक काम हुआ होता, तो निश्चय ही एनसीआर आज ‘ग्रेटर दिल्ली’ माना जाता। मगर इससे जुड़े सभी राज्यों की अपनी-अपनी सियासत ने स्थिति यह बना दी है कि आज इसके अस्तित्व पर ही सवाल उठने लगे हैं। राज्य सरकारों में आपसी तालमेल बनाने की जरूरत थी, दीर्घकालिक नीति बननी चाहिए थी और संजीदगी से उन पर काम होना चाहिए था, पर ऐसा नहीं हो सका। इसलिए एनसीआर की विफलता इससे संबंधित सभी सरकारों की विफलता है। हालांकि, आज भी यदि कुछ प्रयास किए जाएं, तो बात बन सकती है। सबसे पहले तो स्वास्थ्य-सेवा के क्षेत्र में केंद्र और सभी राज्य सरकारों को मिलकर काम करना होगा।
अरविंद केजरीवाल जिस मसले को आज उठा रहे हैं, उनसे मेरा वास्ता 1990 के दशक के शुरुआती वर्षों में ही पड़ा था, जब मैं स्वास्थ्य सचिव थी। उस वक्त भी एम्स जैसे केंद्रीय अस्पतालों का कहना था कि अंतर-राज्यीय प्रवासियों की भारी संख्या उनके बुनियादी ढांचे को बिगाड़ रही है। ‘बाहरी’ लोगों के कारण सुपर स्पेशिएलिटी सेवा पर बुरा असर पड़ रहा है, जबकि यह सुविधा उन्हीं को मिलनी चाहिए, जिन्हें राज्य सरकार के अस्पताल रेफर करते हैं। इसी तरह, सफदरगंज जैसे अस्पताल मानते थे कि एम्स चुनिंदा मामलों को अपने यहां रखकर शेष उन्हें स्थानांतरित कर देता है, जिससे वे खुद को भेदभाव का शिकार मानते हैं। इन्हीं समस्याओं का हल निकालते हुए सभी मरीजों को अपॉइंटमेंट देने की व्यवस्था बनाई गई, जिसका दुष्प्रभाव यह पड़ा कि अस्पताल हद से अधिक बोझ से हांफने लगे। होना यह चाहिए था कि केंद्र या दिल्ली राज्य सरकार के अधीन अस्पतालों में भी, बाहरी लोगों को सिर्फ विशेषज्ञ सुविधा मिले। पर लोक-लुभावन राजनीति के कारण ऐसा नहीं हो सका, और हमारे बेहतरीन अस्पताल खुद बीमार रहने लगे। जाहिर है, यह सियासत नहीं, अस्पताल-प्रबंधन का मसला है। हमें इसी नजरिए से इसे देखना चाहिए।
दूसरा मुद्दा पुलिसिंग का है। दिल्ली-एनसीआर में पुलिस-सेवा से जुड़ी ऐसी कोई संयुक्त कमेटी बननी चाहिए थी, जो सूचनाएं आदि साझा करती। इससे कई मुश्किलों का हल निकल सकता था। जैसे, अभी कोई अपराधी एक राज्य में अपराध कर आसानी से एनसीआर के दूसरे राज्य में चला जाता है। तीसरा मसला यातायात-व्यवस्था का है। दिल्ली की सीमा से गुजरने वाली सड़कों पर जाम की स्थिति छिपी नहीं है। ऐसे में, संबंधित राज्यों के साथ तालमेल बनाते हुए यदि ऐसी किसी एजेंसी का गठन किया जाता, जो सीमा पर गाड़ियों की आवाजाही नियंत्रित करती, तो वह दिल्ली ही नहीं, एनसीआर के भी हित में होता। इससे बढ़ते प्रदूषण को भी कुछ हद तक थामा जा सकता था। कुल मिलाकर, एनसीआर की संकल्पना आज विफल लग रही है। इसे राजनीति और प्रशासनिक तौर पर महत्व ही नहीं दिया गया।
(ये लेखिका के अपने विचार हैं)शैलजा चंद्रा, पूर्व मुख्य सचिव, दिल्ली सरकार
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