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नजरिया /शौर्यपथ / बड़ी संख्या में प्रवासी मजदूरों के गांव लौटने के साथ ग्रामीण क्षेत्रों में रोजगार उपलब्ध कराने की चुनौती पहले से कहीं अधिक बढ़ गई है। इस स्थिति में मनरेगा के वार्षिक बजट को लगभग 60,000 करोड़ रुपये से लगभग एक लाख करोड़ रुपये करके सरकार ने एक सराहनीय कदम उठाया है। जिस तरह से रोजगार की मांग के समाचार मिल रहे हैं, उससे तो लगता है कि वह 40,000 करोड़ रुपये की एकमुश्त वृद्धि भी पर्याप्त नहीं है। जैसा कि मनरेगा के कानून में प्रावधान है, अधिक मांग होने पर संसाधन वृद्धि के लिए गुंजाइश बनी रहनी चाहिए। हालांकि मजदूरों को अब शहरी उद्योग और राज्य वापस भी बुलाने लगे हैं। लौटने के लिए मजदूरों को तरह-तरह से प्रलोभन देने की शुरुआत हो चुकी है। मजदूरों को वापस काम पर लाने के लिए विशेष श्रमिक रेल की भी मांग हो रही है। इसके बावजूद मोटे तौर पर अनुमान है कि करीब 30 प्रतिशत मजदूर गांव में ही रह जाएंगे, इसलिए अभी मनरेगा की बहुत मांग है।
मनरेगा के बढ़ते दायरे के इस दौर में हमें बहुत सावधान रहना चाहिए और यह देखना चाहिए कि किन कारणों से इस अच्छी योजना के बहुत अनुकूल परिणाम नहीं मिले हैं। इसका एक प्रमुख कारण तरह-तरह का भ्रष्टाचार रहा है। एक प्रचलन है कि प्रधान या सरपंच अपने नजदीकी अनेक व्यक्तियों के नाम से जॉब कार्ड बनवाकर अपने पास रख लेते हैं। मनरेगा का कार्य जल्दबाजी में मशीनों का उपयोग करके आधा-अधूरा कराते हैं व फिर इन जॉब कार्ड पर मजदूरी दर्ज कर बैंक खातों में डाल दी जाती है। फिर प्रधान साहब इस मजदूरी का बड़ा हिस्सा अपने नजदीकी व्यक्तियों से ले लेते हैं। कुछ अन्य जिम्मेदार लोगों को भी हिस्सा मिल जाता है।
इस अनियमितता का असर यह है कि सरकारी रिकॉर्ड में तो मनरेगा कार्य उत्साहवद्र्धक लगते हैं, पर गांवों में पूछने पर पता चलता है कि जरूरमंदों को रोजगार बहुत कम मिला। एक अन्य समस्या यह रही है कि मजदूरी मिलने में बहुत देर होती है। इस तरह जरूरत के समय राहत देने का उद्देश्य पूरा नहीं हो पाता। मजदूर पहले मेहनत करे, फिर बार-बार दूर के बैंक जाकर पता करे कि उसका पैसा आया है कि नहीं, यह न्यायसंगत नहीं है।
अत: कोरोना के दौर में मनरेगा से जुड़े भ्रष्टाचार को दूर करना और भी अधिक जरूरी हो गया है। ध्यान रहे, जो असरदार लोग भ्रष्टाचार करते रहे हैं, वे आज भी हैं। अत: सरकारों की ओर से विशेष प्रयास जरूरी हैं। एक सप्ताह काम करो और उसी सप्ताह के अंत में पूरी मजदूरी मिल जाए, तो अपनी जरूरतों को पूरा करने में लोगों को बहुत मदद मिलेगी। मनरेगा कानून में मजदूरों की ओर से मांग उठने पर एक प्रक्रिया के अंतर्गत रोजगार मिलता है। इसमें कुछ देर लग सकती है, जबकि आज अनेक जगहों पर तुरंत रोजगार देने की जरूरत है। अत: कानूनी प्रक्रियाओं में कुछ ढील देकर सरकारी स्तर पर अपनी पहल से भी रोजगार की व्यवस्था हो सकती है। हां, इस बात का पूरा ध्यान रखना होगा कि जो भी कार्य हों, वे वास्तविक उपयोगिता के हों।
मनरेगा व अधिक रोजगार देने वाली सरकारी स्कीमों को बढ़ाने के साथ यह समय गांवों के सामाजिक ताने-बाने को सुधारने के लिए भी अनुकूल है। अनेक गांवों में किसान और मजदूर में दूरी आ गई है, जिससे किसान मशीनों की ओर अधिक बढ़ने लगे और मजदूर प्रवासी मजदूरी की ओर। इन बढ़ती दूरियों से किसी को लाभ नहीं हुआ। अब समय है, इन दूरियों को पाटने का, विभिन्न समुदायों की आपसी नजदीकी बढ़ाने का। इस तरह गांव में खेती-किसानी के कार्यों में मजदूरों को गरिमामय माहौल में अधिक कार्य मिल सकेगा। गांव से छुआछूत और भेदभाव जैसी बुराई को पूरी तरह दूर करने के विशेष प्रयास भी होने चाहिए। सभी मजहबों, जातियों व समुदायों के बीच एकता बढ़नी चाहिए, जिससे गांव के सामान्य हित के कार्य में सब आपसी सहयोग से योगदान कर सकें। इस तरह की एकता व समरसता के कारण लोगों को नशे से दूर रहने में भी मदद मिलेगी। इससे महिलाओं को अधिक सुरक्षित माहौल मिलेगा, शिक्षा में प्रगति होगी।
यह सकारात्मक सोच वाले ग्रामीणों के लिए भी कुछ कर दिखाने का समय है। अपने स्तर पर और सरकार के साथ मिलकर वे तमाम योजनाओं को साकार करने में अहम भूमिका निभा सकते हैं।
(ये लेखक के अपने विचार हैं) भारत डोगरा, सामाजिक कार्यकर्ता
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