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नजरिया /शौर्यपथ /भारत में कोरोना संक्रमित रोगियों की संख्या में हुई बढ़ोतरी बेहद चिंताजनक है। यूरोप के आधा दर्जन विकसित देशों से आगे निकलकर भारत पांचवें स्थान पर पहुंच गया है। अब प्रतिदिन लगभग 10 हजार रोगी सामने आ रहे हैं। स्वास्थ्य विशेषज्ञों के विश्लेषणों व अनुमानों पर विश्वास किया जाए, तो भारत में सामूहिक संक्रमण का दौर शुरू हो चुका है और जून-जुलाई तक इसके विस्तार की आशंका है। हालात 1918 की ‘स्पेनिश फ्लू’ महामारी जैसे पैदा होते जा रहे हैं, तब भारत में 12 लाख से अधिक लोगों की मृत्यु हुई थी। ऐसे में, आज भारत की स्वास्थ्य व्यवस्था पर दुनिया की नजरें टिकने लगी हैं।
वैसे भी दुनिया भर में रोगियों की 27 फीसदी आबादी भारत में रहती है। भारत में करीब 26 हजार अस्पताल हैं, उनकी कमी को लेकर भी बहस शुरू हो गई है। बहरहाल, सर्वोच्च न्यायालय में लंबित एक याचिका पर तीन न्यायाधीशों की यह टिप्पणी भी उल्लेखनीय है कि सरकारी जमीन पर बने अस्पताल क्या कम दरों पर संक्रमित लोगों को सुविधा मुहैया नहीं कराएंगे? देश के एक दर्जन महानगरों में पांच सितारा होटलों की तर्ज पर आलीशान अस्पताल बने हुए हैं, जिनसे देश कीसिर्फ एक प्रतिशत आबादी ही सेवाएं ले पाती है। कई निजी स्वास्थ्य केंद्र सरकार द्वारा जारी नियमों को पलीता लगाते रहते हैं। केंद्र सरकार की महत्वाकांक्षी योजना आयुष्मान भारत अनेक निजी अस्पतालों की पहुंच से दूर है, जबकि विश्व स्वास्थ्य संगठन ने अपनी ताजा रिपोर्ट में टिप्पणी की है कि कोरोना भारत के लिए आयुष्मान योजना को आगे बढ़ाने काअच्छा अवसर है। आयुष्मान भारत विश्व की सबसे बड़ी स्वास्थ्य बीमा योजना है, जिसमें 50 करोड़ लाभार्थियों को बीमित करने का लक्ष्य है।
मौजूदा संकट में दुर्भाग्यपूर्ण है कि नामी-गिरामी अस्पताल कोरोना टेस्ट के लिए 4,500 रुपये की रकम को लाभकारी नहीं मान रहे। एक सामाजिक संगठन ने सुप्रीम कोर्ट में जनहित याचिका दायर करके स्वास्थ्य संवाओं के राष्ट्रीयकरण की मांग की है, जिसमें उन्होंने छोटे मुल्क क्यूबा का उदाहरण दिया है कि जहां एक भी निजी अस्पताल नहीं है। वहां सबसे बेहतरीन स्वास्थ्य सेवाएं उपलब्ध हैं। क्यूबा में प्रति 1,000 आबादी पर नौ डॉक्टर हैं। संक्रमण के इस दौर में यह छोटा मुल्क अमेरिका व चीन जैसे शक्तिशाली राष्ट्र समेत 70 राष्ट्रों को चिकित्सीय सेवाएं प्रदान कर रहा है। भारत में यह मांग भी जोर पकड़ती जा रही है कि जन-स्वास्थ्य को केंद्रीय सूची में लाया जाए।
स्वास्थ्य सेवाओं के मामले में भारत 145वें पायदान पर है। इस कसौटी पर वह बांग्लादेश, श्रीलंका, म्यांमार व भूटान से भी पीछे है। भारत में बीमारी किसी अभिशाप से कम नहीं। महंगे इलाज के चलते करोड़ों लोग गरीबी में फंसते चले जा रहे हैं। परिवार के किसी एक सदस्य की गंभीर बीमारी पूरे परिवार को कई वर्ष पीछे धकेल देती है। तमाम अध्ययनों का निचोड़ है कि ऐसी गुणवत्तापरक स्वास्थ्य प्रणाली निर्मित की जाए, जो अधिकांश भारतीयों के लिए उपयोगी और सुलभ हो। देश के अस्पतालों में निजी क्षेत्र की बढ़ती हिस्सेदारी लगभग 74 फीसदी हो गई है। लगभग 60 प्रतिशत बिस्तर निजी अस्पतालों में होते हैं। निजी अस्पतालों के हिस्से में लगभग 80 फीसदी डॉक्टर, 70 फीसदी नर्स व स्टाफ हैं। इसका असर गरीबों पर पड़ रहा है। वायरस के इस दौर में निरंतर साबुन से हाथ धोने को बचाव का उत्तम तरीका बताया गया है। एक अध्ययन यह भी है कि भारत में मात्र 43 फीसदी लोग साबुन से हाथ धो पाते हैं।
महामारी के साथ अब महामंदी भी दस्तक दे रही है। एक बड़ी आबादी गरीबी रेखा से नीचे चली जाएगी। अनुमान के अनुसार, लॉकडाउन के कारण प्रतिदिन 40 हजार करोड़ रुपये का नुकसान हो रहा है। नव-उदारवाद की नीतियों ने भी समाज के वंचित समूहों को कोई राहत नहीं पहुंचाई है। कई शोधकर्ताओं का अनुमान है कि इतनी असमानता ब्रिटिश काल में भी नहीं थी। एक वर्ष के दौरान सबसे अमीर एक फीसदी जनसंख्या की संपत्ति में 46 फीसदी की बढ़ोतरी, जबकि सबसे गरीब 50 प्रतिशत जनसंख्या की संपत्ति में मात्र तीन फीसदी की वृद्धि हुई है। साफ है, महामारी और महामंदी से निपटने के लिए 130 करोड़ लोगों को एकजुट करके ही संकट का मुकाबला किया जा सकता है।
(ये लेखक के अपने विचार हैं)के सी त्यागी, वरिष्ठ जद-यू नेता
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