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नजरिया /शौर्यपथ /भारत सात बार संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद (यूएनएससी) का अस्थाई सदस्य रह चुका है। अब उसके सामने अपने आठवें कार्यकाल को खास बनाने की चुनौती है। संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में अस्थाई सदस्य के रूप में 2012 में अपना सातवां कार्यकाल पूरा करने के तत्काल बाद भारत ने सुरक्षा परिषद में स्थाई सदस्यता के लिए अपना अभियान शुरू कर दिया था। इस दिशा में सार्वजनिक रूप से साल 2013 में पहला ठोस कदम उठाया गया था, जब अफगानिस्तान ने भारत के पक्ष में सुरक्षा परिषद में अस्थाई सदस्यता के लिए अपना दावा करने की योजना से कदम पीछे खींच लिए थे। तब संयुक्त राष्ट्र में एशिया प्रशांत समूह के अन्य 54 सदस्य देशों में से कोई देश भारत को चुनौती देने के लिए आगे नहीं आया था। वह पाकिस्तान भी नहीं, जिसने सुरक्षा परिषद में भारत के चुनाव का स्वागत करने से इनकार कर दिया था।
इस बार 2019 में भी एशिया-प्रशांत देशों के समूह ने सर्वसम्मति से भारत को अपने उम्मीदवार के रूप में समर्थन दिया, जिसके परिणामस्वरूप पिछले सप्ताह भारत को 192 वोटों में से 184 के साथ जोरदार जीत हासिल हुई। अस्थाई सदस्यता की राह में किसी देश ने भारत का विरोध नहीं किया। यह एक ऐसी मुश्किल जीत है, जो कई सुखद संयोगों से मिली है। 1 जनवरी, 2021 से शुरू होने वाला भारत का दो साल का कार्यकाल अपने अंतिम वर्ष में देश की स्वतंत्रता की 75वीं वर्षगांठ और पहली बार दुनिया की प्रमुख अर्थव्यवस्थाओं के जी-20 शिखर सम्मेलन की मेजबानी के साथ सामने आएगा। अब सवाल उठता है, सुरक्षा परिषद में स्थाई सदस्यता के लिए प्रचार के साथ इस पूरे कार्य या पैकेज को कैसे अंजाम दिया जाए? क्या भारत इस बार फिर स्थाई सदस्यता के लिए जोर लगाने को ठीक से तैयार है?
बेशक, भारत ने 2011 से शुरू हुए अपने सातवें कार्यकाल का उपयोग न केवल स्थाई सदस्यता के अपने दावे को चमकाने के लिए, बल्कि इसे मुमकिन बनाने के लिए भी किया था। कुछ भारतीय विशेषज्ञों ने इसे स्थाई सदस्यता के लिए पूर्वाभ्यास भी कहा था। तब भारत ने कोशिश की, हालांकि उसकी कोशिशों का कोई तात्कालिक नतीजा नहीं निकला था, पर भारत इस मामले या मांग को आगे बढ़ाने में जरूर कामयाब हुआ था। सरकारों के बीच वार्ता, जिसे इंटर गवर्नमेंट निगोशिएशन (आईजीएन) भी कहते हैं, आगे बढ़ी थी और साल 2015 में पाठ (या लिखत-पढ़त) आधारित वार्ताओं तक पहुंच गई थी।
भारत ने 1 जनवरी से अपना आठवां कार्यकाल शुरू करने की योजना बनाई है। इसी इरादे से एक नए व्यापक विचार के तहत बहुपक्षीय तंत्र बनाने को प्राथमिकताओं में शामिल किया गया है। यह अपनी स्थाई सदस्यता के लिए पूरे पैकेज के तहत फिर कोशिश करने का एक और तरीका है। साथ ही, अन्य प्राथमिकताएं भी हैं, जैसे आतंकवाद के लिए संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद की अनुमोदन व्यवस्था का गैर-राजनीतिकरण करना, लेकिन कुल मिलाकर, भारत के लिए सुरक्षा परिषद में सुधार का मुद्दा उचित ही शीर्ष पर है। ठीक इसी समय भारत अपनी अस्थाई सदस्यता का उपयोग इस तरह करे, ताकि पता चले कि इसकी क्या सार्थकता है और क्या नहीं है। सुरक्षा परिषद में किसी फैसले पर ‘हां’ या ‘नहीं’ वोट करना एक अनुपस्थित वोट के आत्म-औचित्य की तुलना में कहीं अधिक दम और चरित्र रखता है।
सुरक्षा परिषद के किसी भी स्थाई सदस्य के साथ गुट न बनाना एक खूबी हो सकती है। स्थाई सदस्यों अमेरिका, ब्रिटेन, फ्रांस, रूस और चीन के साथ गुट नहीं बनाते हुए दशकों तक गुटनिरपेक्षता से बंधे रहना उस वक्त भारत के लिए ठीक रहा था। अब भारत सहज आधार पर अपना एक स्टैंड ले और इसके साथ ही किसी स्थाई सदस्य देश के साथ मुखर-पक्षधरता को आजमाए, तो इसके बड़े रणनीतिक फायदे मुमकिन हैं।
235 ई, 43वीं स्ट्रीट, न्यूयॉर्क सिटी, इसी इमारत में साल 1993 से भारत का स्थाई आयोग मौजूद है। मैनहट्टन के पड़ोस में यह इमारत सिर्फ इसलिए नहीं खड़ी है, क्योंकि यह सबसे ऊंची है, बल्कि यह दिवंगत आर्किटेक्ट चाल्र्स कोरिया की साहसिक और मुखर वास्तु-कला के अपने चरित्र के कारण भी शोभायमान है। यह समय है, जब हम संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में वैसे ही भाव-स्वभाव के साथ पेश आएं। यशवंत राज, अमेरिका में हिन्दुस्तान टाइम्स संवाददाता
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