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ओपिनियन / शौर्यपथ / कुरान में जिन दो त्योहारों का जिक्र है, उनमें ईद-उल-फितर एक है। दूसरा त्योहार करीब दो महीने के बाद मनाया जाने वाला ईद-अल-अजहा है। ईद एक महीने के रोजे के बाद मनाई जाने वाली खुशी है। रोजे सिर्फ रमजान के फर्ज हैं। इस एक महीने में अल्लाह के संदेशों को जीवन में उतारने का अभ्यास किया जाता है। इससे हमें गरीबों की भूख का अंदाजा होता है। इसमें ईबादत की रवायत है, जिससे हमें सारे जहां के मालिक के अस्तित्व का एहसास होता है और जीवन को लेकर अनुशासन पैदा होता है। रोजे में ऐसा कोई काम नहीं किया जाता, जो अल्लाह को पसंद न हो। वैसे, अन्य धर्मों में भी रोजे का जिक्र है।
हालांकि, ईद की खुशी मनाने का यह मतलब नहीं है कि गरीबों को हम भूल जाएं। इस दिन बडे़-बुजुर्गों को याद रखें। अपने पड़ोसियों को घर बुलाएं। जरूरी नहीं है कि वे पड़ोसी अपने मजहब के ही हों। पड़ोसी का अर्थ हर उस व्यक्ति से है, जो रोजेदार के आसपास रहता है। फितरा (दान) इसी की अगली कड़ी है, जो रोजे के लिए ईद की नमाज से पहले दी जाती है। यह वह रकम है, जो संपन्न घरों के लोग आर्थिक रूप से कमजोर लोगों को देते हैं। मुसलमान जकात के रूप में साल भर की बचत का ढाई फिसदी हिस्सा दान तो करते ही हैं, लेकिन ईद में फितरा का विशेष आग्रह रहता है। इससे उन गरीबों को खासतौर से मदद मिल जाती है, जिनके हालात ऐसे नहीं होते कि वे ईद की खुशियां मना सकें।
जिस तरह रोजे में अल्लाह की मरजी के मुताबिक काम किया जाता है, वही रवायत ईद में आगे बढ़ाई जाती है। ईद की नमाज पढ़कर अल्लाह का शुक्रिया अदा किया जाता है और उसके बाद सामूहिक तौर पर जश्न मनाया जाता है। मसलन, अच्छा खाना बनाया जाता है और उसमें आसपास के लोगों को शरीक किया जाता है। नए कपड़े पहने जाते हैं, तो जरूरतमंदों में नए कपडे़ बांटने की अपेक्षा की जाती है। अगर आर्थिक बदहाली की वजह से कोई ऐसा नहीं कर पाता है, तो दूसरों से यह उम्मीद की जाती है कि वे नए कपडे़ पहनकर उन घरों के बच्चों के सामने न जाएं, जो पैसों की तंगी की वजह से ईद का जश्न नहीं मना पा रहे हैं। इससे उनके अभिभावकों के भीतर मायूसी और कोफ्त पैदा हो सकती है।
इस्लाम के साथ खास बात यह है कि इसकी पैदाइश चौदह-पंद्रह सौ साल पहले हुई है। इसका अर्थ है कि यह नया मजहब है। इसलिए इस पर अमल करने की बात जोर देकर की जाती है। हालांकि, इसका यह अर्थ नहीं है कि दूसरे धर्म को सम्मान न दिया जाए। इसे इस रूप में समझा जा सकता है कि जब किसी किताब का नया संस्करण आता है, तो हम उसे खरीदना पसंद तो करते हैं, मगर नए संस्करण का आधार किताब का पुराना संस्करण ही होता है। कहा जाता है कि अल्लाह ने एक लाख से अधिक पैगंबर धरती पर भेजे। लिहाजा यह मान्यता भी है कि हिंदू धर्म भी आसमानी धर्म हो सकता है और इसमें भी कोई पैगंबर आए होंगे। लिहाजा मुसलमानों को कहा जाता है कि वे किसी भी मजहब के नेतृत्व को बुरा न कहें। मुमकिन है कि हजारों साल पहले ये भी ईश्वर के दूत के रूप में आए हों, लेकिन उनके मानने वालों ने अपने मकसद के लिए उनकी सोच में अपनी मरजी से बदलाव कर दिए हों। मुसलमानों से यह अपेक्षा की जाती है कि वे सभी मजहब की इज्जत करें, लेकिन अमल अंतिम किताब पर करें। अल्लाह ने इंसान को सोचने की सलाहियत दी है। उसे नहीं भूलना चाहिए कि पैगंबरों के जरिए ईश्वर सिर्फ यही बताना चाहते हैं कि यदि उनके संदेशों पर अमल किया गया, तो इंसान सुख से रहेगा, और यदि इंसान खुश रहेगा, तो समाज और दुनिया में खुशियां फैलेंगी। ऐसे लोगों को जन्नत नसीब होगी।
आज जब कोरोना के रूप में हम एक अभूतपूर्व संकट से गुजर रहे हैं, तब ईद हमें विशेष सावधानी से मनानी होगी। हमें इस दिन अल्लाह के दूसरे बंदों का भी ख्याल रखना होगा। हमें याद रखना चाहिए कि अभी लाखों लोग ऐसे हैं, जिन्हें दो वक्त का खाना भी नहीं मिल पा रहा है। वे सड़कों पर हैं या राहत शिविरों में हैं, और अपने परिजनों के पास नहीं हैं। हमें उनके लिए, या यूं कहें कि दुनिया के तमाम मजलूमों की बेहतरी के लिए अल्लाह से दुआ मांगनी चाहिए। मजहब का फर्क किए बिना अपनी हैसियत के मुताबिक उनकी मदद करनी चाहिए। इस मर्तबा ईद के दिन नए कपडे़ पहनने से बेहतर यह होगा कि किसी बेबस, मजलूम की मदद की जाए, किसी भूखे को खाना खिलाया जाए। ईद की ईबादत हम जरूर करें, लेकिन फिजूल के खर्चों से बचें।
ईद यह भी संदेश देती है कि हम सब एक ही आदम और हव्वा की औलादें हैं। यह सोच हम जितनी जल्दी अपने जीवन में उतार लेंगे, उतना ही बेहतर होगा। यकीन मानिए, जिस दिन हमने ऐसा कर लिया, दुनिया के अधिकतर मसले खत्म हो जाएंगे। लिहाजा, इस बार ईदगाह जाने से बचें। अपने-अपने घर में नमाज पढे़। शासन-प्रशासन की मुश्किलें न बढ़ाएं। यह न भूलें कि हिन्दुस्तान हमारा मादरे-वतन है। रही बात ईद के नमाज की, तो दो महीने के बाद यह मौका हमें अल्लाह ताला फिर अता फरमाएगा। इस वक्त अल्लाह हमारा सख्त इम्तिहान ले रहा है। हमें इसमें खरा उतरना है।
(ये लेखक के अपने विचार हैं)
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