CONTECT NO. - 8962936808
EMAIL ID - shouryapath12@gmail.com
Address - SHOURYA NIWAS, SARSWATI GYAN MANDIR SCHOOL, SUBHASH NAGAR, KASARIDIH - DURG ( CHHATTISGARH )
LEGAL ADVISOR - DEEPAK KHOBRAGADE (ADVOCATE)
मेरी कहानी / शौर्यपथ / तब मनोरंजन के चंद मौके मिलते थे। या तो कोई संगीत-नाट्य की छोटी-बड़ी मंडली इलाके से गुजरती थी या फिर स्थानीय मेले में डेरा डाल धूम मचाती थी। मेले का कोलाहल सबको खींच लाता और वह लड़का भी चला आता था। उसके दिलो-दिमाग पर संगीत का जुनून सवार था। सब मेले से लौटते, तो सामान, पकवान की चर्चा करते, पर यह लड़का संगीत में डूबा लौटता। मेला धीरे-धीरे पीछे छूटता जाता, कान उसकी आवाजों से दूर निकल आते, लेकिन दिल में संगीत बजता रहता और रूह तबले की थाप-ताल पर सिमट आती थी। ज्यादातर मंडलियां कहरवे में रहती थीं। लगभग आधे गाने तबले की इस ताल पर सजते थे- धा गे न ति न क धि ना, धा गे न...। और कुछ गीत दादरे में खिलते थे- धा धि ना धा ति ना, धा धि ना...। कभी आधे गले से, तो कभी पूरे गले से गीत गूंजते, लेकिन उस लड़के के मन में सिर्फ तबला रह जाता था। ताल से ताल तक का सिलसिला ऐसे बना रहता, मानो सांसों का सिलसिला।
जम्मू-कश्मीर के सांबा जिले के घगवाल गांव में संगीत सुनने का शौक तो बहुतों को था, पर कोई भी उस लड़के जैसा जुनूनी चहेता नहीं हुआ था। गरीब परिवार में खूब सदस्य थे। हर मां-बाप के कुछ सपने होते हैं, तो उस लड़के के भी मां-बाप का सपना था, बेटा कुछ बड़ा होकर सेना में बहाल हो जाए। एक तरफ मां-बाप का सपना और दूसरी ओर तबला। सपना हावी होता, तो तबला गोल होता नजर आता। तबला हावी होता, तो सपना देखने वाले नाराज हो जाते। महज 12-13 की उम्र थी, पर समझ में आ गई थी कि तबला ताल में मुकम्मल बज गया, तो सपना देखने वाले भी नरम पड़ जाएंगे। यह भी तय था कि तबला छोड़ो, तो अपना दिल तोड़ो। छोटी उम्र में ही उसके दिमाग में जिरह-दलील के दौर चलते। गांव में ही किसी तरह तबले से संगत शुरू हुई, पर पूरा सीखना था।
लड़के ने सुन रखा था कि पंजाबी घराने के कोई नामी उस्ताद हैं लाहौर में, मियां कादिर बक्श। क्यों न उन्हीं से सीखा जाए? उस लड़के को सपने में एक संतनुमा शख्स बार-बार दिखते थे। एक बार उस्ताद कादिर बक्श की छपी हुई तस्वीर पर नजर गई, तो अचंभा हुआ कि यह तो वही शख्स हैं, जो सपने में दिखते हैं। दिल ने तय कर लिया, उस्ताद हो, तो ऐसा हो और दिमाग ने तैयारी शुरू कर दी। फिर वह दिन भी आ गया, जब ताल दिलो-दिमाग में बहुत गूंजने लगे - धा गे न ति न क धि ना, धा गे ना... और वह लड़का घर से भाग निकला। खाली हाथ, दिलो-दिमाग में सिर्फ तबले और ताल के साथ। गांव घगवाल से भागकर 100 किलोमीटर दूर गुरुदासपुर पहुंचा, वहां एक रिश्तेदार के यहां ठहरना हुआ। दिल के अरमान ने फरमान सुना दिया कि गांव नहीं लौटना, यहीं तबला सीखना है। वहां के स्थानीय उस्तादों से सीखना शुरू हुआ। गुरुदासपुर से लाहौर 110 किलोमीटर के आसपास था, लेकिन दिल में शक था कि मियां कादिर बक्श बहुत बडे़ उस्ताद हैं, जल्दी किसी को शागिर्द नहीं बनाते हैं। अत: पहले जरूरी है कि कुछ सीख लिया जाए और तब उस्ताद के दर पर दस्तक दी जाए। सीखते-सीखते दो साल बीत गए, कुछ लड़कों को कुछ-कुछ सिखाना भी शुरू कर दिया, लेकिन असली मंजिल तो लाहौर में बसे उस्ताद थे। एक दिन वह भी आया, जब एक मेले में बजाने का मौका मिला। वहां उस 15 साल के लड़के ने सतरह मात्राओं के कठिन ताल को तीन खंडों में बजा दिया। खुशनसीबी यह कि सुनने वालों में मियां कादिर बक्श भी तशरीफ लाए थे। उन्हें अच्छा लगा, तो उन्होंने पूछा, ‘तुम किसके शागिर्द हो?’ जवाब मिला, ‘आपका’।
‘लेकिन मैंने तो तुम्हें कभी नहीं देखा?’
बहुत नरमी से उस लड़के ने कहा, ‘मैंने आपको देखा है, आपने ही मेरे हाथ तबले पर रखे हैं’। उस्ताद मुस्कराए, ‘सीखो, लेकिन ढंग से।’ जवाब में वह लड़का बिल्कुल बिछ गया, ‘नाचीज आपके कदमों में है।’
हजारों शागिर्दों वाले उस्ताद सख्ती से सिखाते थे, आठ घंटे से बारह घंटे तक रियाज कराते। बनियान, लूंगी का पसीने से तर होना रोज की बात थी। गुजारे और उस्ताद को पैसे देने के लिए एक ढाबे में तपना-खटना पड़ता था। तपस्या का यह दौर पांच साल चला और संगीत की दुनिया में एक ऐसे बेमिसाल उस्ताद तैयार हुए, जिन्हें दुनिया अल्ला रक्खा खां के नाम से बहुत याद करती है। वह घर से भागे तो, पर संगीत, हुनर, प्यार, इल्म व इंसानियत के दूत बन गए। ऑल इंडिया रेडियो से लेकर फिल्मों में संगीत देने तक और पंडित रविशंकर के साथ दुनिया को भारतीय संगीत का रसास्वादन कराने तक, उनके थाप और ठेके हमेशा राह दिखाएंगे। तीन ताल, चार ताल या झप ताल- धी ना धी धी ना ती ना धी धी ना...।
प्रस्तुति : ज्ञानेश उपाध्याय
अल्ला रक्खा खां मशहूर तबलावादक
Make sure you enter all the required information, indicated by an asterisk (*). HTML code is not allowed.