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टिप्स ट्रिक्स /शौर्यपथ / दूध उबालते समय अगर बर्तन में उसका तला लग जाए तो दूध में से जलने की बदबू आने लगती है। ऐसे में महिलाओं के पास उसे फेंकने के अलावा और कोई विकल्प नहीं बचता है। जले दूध की बदबू न सिर्फ आपकी खीर या चाय का स्वाद खराब कर देती है बल्कि आपका मूड भी ऑफ हो जाता है। अगर अब कभी आपके साथ ऐसा हो तो अपना मूड ऑफ करने की जगह ये 3 आसान किचन टिप्स फॉलो करके दूध से जले की महक को हटाएं। आइए जानते हैं आखिर क्या हैं ये 3 मजेदार किचन टिप्स।
दालचीनी-
अगर दूध ज्यादा जल गया है और उसमें से बहुत तेज जलने की महक आ रही है तो आप सबसे पहले दूध को एक साफ बर्तन में पलट दें। इसके बाद देसी घी में दालचीनी की 1 इंच लंबी 2 स्टिक डालकर उसे गर्म करके दूध में डालकर रख दें। ऐसा करने से दूध जलने की महक काफी हद तक कम हो जाएगी। आप इस दूध का इस्तेमाल रबड़ी बनाने में कर सकती हैं।
तेज पत्ता-
जले दूध की महक दूर करने के लिए सबसे पहले उसे एक दूसरे साफ बर्तन में पलटकर अलग रख दें। अब एक कढ़ाई में 1 छोटा चम्मच देसी घी गर्म करके उसमें 1 तेज पत्ता, 1 छोटी इलायची, 1 बड़ी इलायची और 2 -3 लॉन्ग फ्राई करें। इसके बाद इस मिश्रण को दूध के ऊपर 4-5 घंटे पड़े रहने दें। थोड़ी देर आप देखेंगे कि दूध से जले की महक खत्म हो गई है।
पान के पत्ते-
पान के पत्ते न सिर्फ मुंह का स्वाद बदलने के काम आते हैं बल्कि इनकी मदद से आप जले दूध की महक से भी निजात पा सकते हैं। अगर किसी दिन घर में दूध जल जाए तो आप उसमें पान का पत्ता डाल कर इसकी महक को खत्म कर सकती हैं। याद रखें कम जले हुए दूध में 1 से 2 पान के पत्ते और ज्यादा जले हुए दूध में 4 से 5 पान के पत्ते इस्तेमाल करें। इन पत्तों को दूध में आधा घंटा डालकर निकाल लें। ऐसा करने से दूध से जले की महक हट जाएगी।
खाना खजाना /शौर्यपथ /आपने मैदे या आटे की कचौड़ी तो कई बार खाई होगी लेकिन क्या आप जानते हैं कि सूजी की कचौड़ी सबसे ज्यादा खस्ता होती है. आइए, जानते हैं कैसे बनती है सूजी की कचौड़ी-
सामग्री
भरावन के लिए
तेल- 2 चम्मच
जीरा- 1 चम्मच
दरदरा धनिया- 1/2 चम्मच
सौंफ- 1/2 चम्मच
बारीक कटी मिर्च- 1
अदरक पेस्ट- 1/2 चम्मच
हल्दी- 1/4
चम्मच ’ कश्मीरी लाल मिर्च
पाउडर- 1/2 चम्मच
गरम मसाला पाउडर- 1/2 चम्मच
अमचूर पाउडर- 1/2 चम्मच
हींग- चुटकी भर
उबला और मैश्ड आलू- 2
नमक- 1/2 चम्मच
बारीक कटी धनिया पत्ती
2 चम्मच
पानी- आवश्यकतानुसार
अजवाइन- 1/4 चम्मच
नमक- 1/4 चम्मच
तेल- 1 चम्मच ’ सूजी- 1 कप
तेल- आवश्यकतानुसार
विधि :
उबले हुए आलू का छिलका छीलकर उसे मैश करें। उसमें भरावन की सभी सामग्री डालकर अच्छी तरह से मिला लें। दो कप पानी उबालें। पानी में एक चौथाई चम्मच अजवाइन, एक चौथाई चम्मच नमक और एक चम्मच तेल डालें। जब पानी उबलने लगे तो उसमें धीरे-धीरे सूजी डालें। सूजी को लगातार मिलाते हुए पकाएं ताकि उसमें गांठ न पड़े। जब सूजी का पानी पूरी तरह सूख जाए तो गैस ऑफ करें और सूजी को एक बर्तन में निकाल लें। जब सूजी थोड़ी ठंडी हो जाए तो उसे अच्छी तरह से गूंध लें। हथेली में हल्का-सा तेल लगाएं और सूजी की छोटी-सी लोई काटकर उसे किनारों से दबाते हुए कप का आकार दें। बीच में थोड़ा-सा आलू वाला मिश्रण डालें। लोई को सील करके बीच से हल्का-सा दबा दें। सारी कचौड़ियां ऐसे ही तैयार कर लें। गर्म तेल में कचौड़ियों को सुनहरा होने तक तल लें। हरी चटनी के साथ सर्व करें।
शौर्यपथ / हर घर में कई अवसरों पर केसर का इस्तेमाल किया जाता है, लेकिन क्या आप जानते हैं कि केसर किस तरह से भारत में आई, इसकी खेती कहां होती है और इसमें कौन से गुण मौजूद हैं? आइए, जानते हैं केसर से जुड़ी खास बातें :
1 केसर का उत्पत्ति स्थान दक्षिणी यूरोप का स्पेन देश है, जहां से केसर मुंबई आई है और पूरे भारत के बाजारों में पहुंचती है, लेकिन स्पेन के अलावा केसर की पैदावार ईरान, फ्रांस, इटली, ग्रीस, तुर्की, फारस और चीन में भी की जाती है।
2 भारत में, कश्मीर के पंपूर तथा जम्मू के किश्तवाड़ नामक स्थान पर केसर की खेती की जाती है।
3 केसर का उपयोग आयुर्वेदिक नुस्खों में, खाद्य व्यंजनों में और देव पूजा आदि में होता था पर अब पान मसालों और गुटखों में भी इसका उपयोग होने लगा है।
4 केसर बहुत ही उपयोगी गुणों से युक्त होती है। यह उत्तेजक, वाजीकारक, यौनशक्ति बनाए रखने वाली होती है। यह कामोत्तेजक होती है। इसे त्रिदोष नाशक माना गया है।
5 स्वाद और सुगंध में रुचिकर होने के साथ ही मासिक धर्म साफ करना इसका महत्वपूर्ण गुण है।
6 यह गर्भाशय व योनि संकोचन जैसे रोगों को भी दूर करती है।
7 यह त्वचा का रंग उज्ज्वल करने मे मदद करती है। इसे उत्तम रक्तशोधक माना गया है।
8 स्वादिष्ट होने के साथ यह पौष्टिक भी है। प्रदर और निम्न रक्तचाप को ठीक करने में सहायक होती है।
9 यह कफ नाशक का काम करती है। आयुर्वेद में इसे मन को प्रसन्न करने वाली भी माना गया है।
10 स्तनों में वृद्धि करती है तथा व स्तनपान कराने वाली माताओं के लिए दूधवर्द्धक मानी गई है।
11 मस्तिष्क को बल देती है व हृदय और रक्त के लिए हितकारी होती है।
12 खाद्य पदार्थ और पेय को रंगीन और सुगंधित करती है।
ऐसी अनेक गुणों से संपन्न होने के कारण हमारे रोजमर्रा के जीवन में केसर का अधिक महत्व है।
धर्म संसार /शौर्यपथ /किसी भी मंदिर में जाइए, किसी भी भगवान को देखिए, उनके साथ एक चीज सामान्य रूप से जुड़ी हुई है, वह है उनके वाहन। लगभग सभी भगवान के वाहन पशुओं को ही माना गया है। शिव के नंदी से लेकर दुर्गा के शेर तक और विष्णु के गरूढ़ से लेकर इंद्र के ऐरावत हाथी तक। लगभग सारे देवी-देवता पशुओं पर ही सवार हैं।
आखिर क्यों सर्वशक्तिमान भगवानों को पशुओं की सवारी की आवश्यकता पड़ी, जब की वे तो अपनी दिव्यशक्तियों से पलभर में कहीं भी आ-जा सकते हैं? क्यों हर भगवान के साथ कोई पशु जुड़ा हुआ है?
भगवानों के साथ जानवरों को जोडऩे के पीछे कई सारे कारण हैं। इसमें अध्यात्मिक, वैज्ञानिक और व्यवहारिक कारणों से भारतीय मनीषियों ने भगवानों के वाहनों के रूप पशु-पक्षियों को जोड़ा है। वास्तव में देवताओं के साथ पशुओं को उनके व्यवहार के अनुरूप जोड़ा गया है।
दूसरा सबसे बड़ा कारण है प्रकृति की रक्षा।
अगर पशुओं को भगवान के साथ नहीं जोड़ा जाता तो शायद पशु के प्रति हिंसा का व्यवहार और ज्यादा होता।
हर भगवान के साथ एक पशु को जोड़ कर भारतीय मनीषियों ने प्रकृति और उसमें रहने वाले जीवों की रक्षा का एक संदेश दिया है। हर पशु किसी न किसी भगवान का प्रतिनिधि है, उनका वाहन है, इसलिए इनकी हिंसा नहीं करनी चाहिए। मूलत: इसके पीछे एक यही संदेश सबसे बड़ा है।
आपको क्या लगता है? गणेश जी ने चूहों को यूं ही चुन लिया? या नंदी शिव की सवारी यूं ही बन गए?
भगवानों ने अपनी सवारी बहुत ही विशेष रूप से चुनी। यहां तक कि उनके वाहन उनकी चारित्रिक विशेषताओं को भी बताते हैं... भगवान गणेश और मूषक गणेश जी का वाहन है मूषक। मूषक शब्द संस्कृत के मूष से बना है जिसका अर्थ है लूटना या चुराना। सांकेतिक रूप से मनुष्य का दिमाग मूषक, चुराने वाले यानी चूहे जैसा ही होता है। यह स्वार्थ भाव से गिरा होता है। गणेश जी का चूहे पर बैठना इस बातका संकेत है कि उन्होंने स्वार्थ परविजय पाई है और जनकल्याण के भाव को अपने भीतर जागृत किया है।
शिव और नंदी
जैसे शिव भोलेभाले, सीधे चलने वाले लेकिन कभी-कभी भयंकर क्रोध करने वाले देवता हैं तो उनका वाहन हैं नंदी बैल। संकेतों की भाषा में बैल शक्ति, आस्था व भरोसे का प्रतीक होता है। इसके अतिरिक्त भगवान के शिव का चरित्र मोह माया और भौतिक इच्छाओं से परे रहने वाला बताया गया है। सांकेतिक भाषा में बैल यानी नंदी इन विशेषताओं को पूरी तरह चरितार्थ करते हैं। इसलिए शिव का वाहन नंदी हैं।
कार्तिकेय और मयूर
कार्तिकेय का वाहन है मयूर। एक कथा के अनुसार यह वाहन उनको भगवान विष्णु से भेंट में मिला था। भगवान विष्णु ने कार्तिकेय की साधक क्षमताओं को देखकर उन्हें यह वाहन दिया था, जिसका सांकेतिक अर्थ था कि अपने चंचल मन रूपी मयूर को कार्तिकेय ने साध लिया है। वहीं एक अन्य कथा में इसे दंभ के नाशक के तौरपर कार्तिकेय के साथ बताया गया है।
मां दुर्गा और उनका शेर
दुर्गा तेज, शक्ति और सामथ्र्य का प्रतीक है तो उनके साथ सिंह है। शेर प्रतीक है क्रूरता, आक्रामकता और शौर्य का। यह तीनों विशेषताएं मां दुर्गा के आचरण में भी देखने को मिलती है। यह भी रोचक है कि शेर की दहाड़ को मां दुर्गा की ध्वनि ही माना जाता है, जिसके आगे संसार की बाकी सभी आवाजें कमजोर लगती हैं।
मां सरस्वती और हंस
हंस संकेतों की भाषा में पवित्रता और जिज्ञासा का प्रतीक है जो कि ज्ञान की देवी मां सरस्वती के लिए सबसे बेहतर वाहन है। मां सरस्वती का हंस पर विराजमान होना यह बताता है कि ज्ञान से ही जिज्ञासा को शांत किया जा सकता है और पवित्रता को जस का तस रखा जा सकता है।
भगवान विष्णु और गरुड़
गरुण प्रतीक हैं दिव्य शक्तियों और अधिकार के। भगवद् गीता में कहा गया है कि भगवान विष्णु में ही सारा संसार समाया है। सुनहरे रंग का बड़ेआकार का यह पक्षी भी इसी ओर संकेत करता है। भगवान विष्णु की दिव्यता और अधिकार क्षमता के लिए यह सबसे सही प्रतीक है।
मां लक्ष्मी और उल्लू
मां लक्ष्मी के वाहन उल्लू को सबसे अजीब चयन माना जाता है। कहा जाता है कि उल्लू ठीक से देख नहीं पाता, लेकिन ऐसा सिर्फ दिन के समय होता है। उल्लू शुभता और धन-संपत्ति के प्रतीक भी होते हैं।
धर्म संसार /शौर्यपथ / वेद, पुराण और स्मृति ग्रंथों में हमें वरुण देव के बारे में जानकारी मिलती है। वेदों में इनका उल्लेख प्रकृति की शक्तियों के रूप में मिलता है जबकि पुराणों में ये एक जाग्रत देव हैं। हालांकि वेदों में कहीं कहीं उन्हें देव रूप में भी चित्रित किया गया है। उन्हें खासकर जल का देवता माना जाता है। आओ जानते हैं उनके संबंध में 10 रोचक बातें।
1. भागवत पुराण के अनुसार वरुण और मित्र को कश्यप ऋषि की पत्नीं अदिति की क्रमशः नौंवीं तथा दसवीं संतान बताया गया है। देवताओं में तीसरा स्थान 'वरुण' का माना जाता है।
2. मकर पर विराजमान मित्र और वरुण देव दोनों भाई हैं और यह जल जगत के देवता है। ऋग्वेद के अनुसार वरुण देव सागर के सभी मार्गों के ज्ञाता हैं। उल्लेखनीय है कि एक होता है मगर जो वर्तमान में पाया जाता है जिसे सरीसृप गण क्रोकोडिलिया का सदस्य माना गया है। यह उभयचर प्राणी दिखने में छिपकली जैसा लगता है और मांसभक्षी होता है, जबकि एक होता है समुद्री मकर जिसे समुद्र का ड्रैगन कहा गया है। श्रीमद्भभागवत पुराण में इसका उल्लेख मिलता है जिसे समुद्री डायनासोर माना गया है। वरुण देव इसी पर सवार रहते थे।
3. मित्र देव का शासन सागर की गहराईयों में है और वरुण देव का समुद्र के ऊपरी क्षेत्रों, नदियों एवं तटरेखा पर शासन हैं। वरुण देवता ऋतु के संरक्षक हैं इसलिए इन्हें 'ऋतस्यगोप' भी कहा जाता था। वरुण पश्चिम दिशा के लोकपाल और जलों के अधिपति हैं।
4. वरुण देव को देवता और असुर दोनों का ही मित्र माना जाता है। उनकी गणना देवों और दैत्यों दोनों में की जाती है। वरुण देव देवों और दैत्यों में सुलह करने के लिए भी प्रसिद्ध हैं। वरुण देव का मुख्य अस्त्र पाश है।
5. वेदों में मित्र और वरुण की बहुत अधिक स्तुति की गई है, जिससे जान पड़ता है कि ये दोनों वैदिक ऋषियों के प्रधान देवता थे। वेदों में यह भी लिखा है कि मित्र के द्वारा दिन और वरुण के द्वारा रात होती है। ऋग्वेद में वरुण को वायु का सांस बताया गया है।
6. पहले किसी समय सभी आर्य मित्र की पूजा करते थे, लेकिन बाद में यह पूजा या प्रार्थना घटती गई। पारसियों में इनकी पूजा 'मिथ्र' के नाम से होती थी। मित्र की पत्नी 'मित्रा' भी उनकी पूजनीय थी और अग्नि की आधिष्ठात्री देवी मानी जाती थी।
7. मित्रारुणदेवता को ईरान में 'अहुरमज्द' तथा यूनान में 'यूरेनस' के नाम से जाना जाता है। कदाचित् असीरियावालों की 'माहलेता' तथा अरब के लोगों की 'आलिता देवी' भी यही मित्रा थी।
8. मित्र और वरुण इन दोनों की संतानें भी अयोनि मैथुन यानि असामान्य मैथुन के परिणामस्वरूप हुई बताई गई हैं। उदाहरणार्थ वरुण के दीमक की बांबी (वल्मीक) पर वीर्यपात स्वरूप ऋषि वाल्मीकि की उत्पत्ति हुई। जब मित्र एवं वरुण के वीर्य अप्सरा उर्वशी की उपस्थिति में एक घड़े में गिर गए तब ऋषि अगस्त्य एवं वशिष्ठ की उत्पत्ति हुई। मित्र की संतान उत्सर्ग, अरिष्ट एवं पिप्पल हुए जिनका गोबर, बेर वृक्ष एवं बरगद वृक्ष पर शासन रहता है।
9. वरुण के साथ आप: का भी उल्लेख किया गया है। आप: का अर्थ होता है जल। मित्रःदेव देव और देवगणों के बीच संपर्क का कार्य करते हैं। वे ईमानदारी, मित्रता तथा व्यावहारिक संबंधों के प्रतीक देवता हैं।
10. भगवान झुलेलाल को वरुणदेव का अवतार माना जाता है।
सेहत /शौर्यपथ /छाछ या मट्ठा के पीने के 10 फायदे
गाय के दूध से घी, दही, मक्खन और छाछ बनती है। आजकल तो इससे बिस्किट भी बनाए जाते हैं और भी न जाने क्या क्या बनाया जा रहा है। गर्मी में गाय के दूध का दही और छाछ बहुत ही लाभदायक होता है। आओ जानते हैं छाछ पीने के 10 फायदे।
1. छाछ पीने से पेट की गर्मी हट जाती है और पाचन तंत्र भी सुचारु रूप से कार्य करता है।
2. नींद न आने से परेशान रहने वाले लोगों को दही व छाछ का सेवन करना चाहिए।
3. छाछ में हेल्दी बैक्टीरिया और कार्बोहाइड्रेट्स होते हैं, साथ ही लैक्टोज शरीर में आपकी रोग प्रतिरोधक क्षमता को बढ़ाता है जिससे आप तुरंत ऊर्जावान हो जाते हैं।
4. अगर कब्ज की शिकायत बनी रहती हो तो अजवाइन मिलाकर छाछ पीएं।
5. पेट की सफाई के लिए गर्मियों में पुदीना मिलाकर छाछ लस्सी बनाकर पीएं।
6. जिन लोगों को खाना ठीक से न पचने की शिकायत होती है, उन्हें रोजाना छाछ में भुने जीरे का चूर्ण, काली मिर्च का चूर्ण और सेंधा नमक का चूर्ण समान मात्रा में मिलाकर धीरे-धीरे पीना चाहिए।
7. यदि आप डाइट पर हैं तो रोज एक गिलास मट्ठा पीना न भूलें। यह लो कैलोरी और फैट में कम होता है।
8. बटर मिल्क अर्थात छाछ में विटामिन सी, ए, ई, के और बी पाए जाते हैं, जो कि शरीर के पोषण की जरूरत को पूरा करता है।
9. यह स्वस्थ पोषक तत्वों जैसे लोहा, जस्ता, फॉस्फोरस और पोटैशियम से भरा होता है, जो कि शरीर के लिए बहुत ही जरूरी मिनरल माना जाता है।
10. गर्मी में छाछ पीने से लू नहीं लगती। लग जाए तो छाछ पीना शुरू कर दें।
1 दही में कैल्शियम भरपूर मात्रा में पाया जाता है जो कि हड्डियों के लिए बहुत फायदेमंद होता है। दही खाने से दांत भी मजबूत होते हैं। दही (जोडों की बीमारी) यानि कि ऑस्टियोपोरोसिस जैसी बीमारी से लड़ने में भी मददगार है।
2 दही पेट के लिए बहुत फायदेमंद होता है। दही में अजवाइन मिलाकर पीने से कब्ज की शिकायत समाप्त होती है।
3 लू से बचने के लिए दही का प्रयोग किया जाता है। लू लगने पर दही पीना चाहिए।
4 दही पीने से पाचन क्षमता बढती है और भूख भी अच्छे से लगती है।
5 सर्दी और खांसी के कारण सांस की नली में इन्फेक्शन हो जाता है। इस इंफेक्शन से बचने के लिए दही का प्रयोग करना चाहिए।
6 मुंह के छालों के लिए यह बहुत ही अच्छा घरेलू नुस्खा है। मुंह में छाले होने पर दही से कुल्ला करने पर छाले समाप्त हो जाते हैं।
7 दही के सेवन से हार्ट में होने वाले कोरोनरी आर्टरी रोग से बचाव किया जा सकता है। दही के नियमित सेवन से शरीर में कोलेस्ट्रोल को कम किया जा सकता है।
8 चेहरे पर दही लगाने से त्वचा मुलायम होती है और त्वचा में निखार आता है। दही से चेहरे की मसाज की जाए तो यह ब्लीच के जैसा काम करता है। इसका प्रयोग बालों में कंडीशनर के तौर पर भी किया जाता है।
9 गर्मियों में त्वचा पर सनबर्न होने के बाद दही से मलना चाहिए, इससे सनबर्न और टैन से फायदा मिलता है।
10 त्वचा का रूखापन दूर करने के लिए दही का प्रयोग करना चाहिए। जैतून के तेल और नींबू के रस के साथ दही का चेहरे पर लगाने से चेहरे का रूखापन समाप्त होता है।
11 गर्मी के मौसम में दही और उससे बनी छाछ का ज्यादा मात्रा में प्रयोग किया जाता है। क्योंकि छाछ और लस्सी पीने से पेट की गर्मी शांत होती है। दही का रोजाना सेवन करने से शरीर की बीमारियों से लडने की क्षमता बढती है।
सेहत /शौर्यपथ / एलोवेरा के कई फायदें हैं, यह सेहत के साथ ही स्किन, बालों और वेट लॉस तक में फायदेमंद है। लेकिन इसके इस्तेमाल को लेकर सावधान नहीं रहे तो यह नुकसानदायक भी हो सकता है।
दरअसल, एलोवेरा का सीमित मात्रा में इस्तेमाल बहुत फायदेमंद होता है। लेकिन जरुरत से ज्यादा इसका इस्तेमाल खतरनाक हो सकता है। हम आपको बता रहे हैं कि कैसे एलोवेरा का अधिक इस्तेमाल आपको नुकसान पहुंचा सकता है।
यदि आप एलोवेरा का अत्याधिक सेवन करते हैं तो आपको पेट संबंधित परेशानियां हो सकती हैं। इसका इस्तेमाल सीमित मात्रा में करना चाहिए। एलोवेरा
को स्किन के लिए बहुत फायदेमंद माना जाता है। लेकिन स्किन पर भी एलोवेरा के ज्यादा इस्तेमाल से त्वचा संबधित परेशानी हो सकती है। एलोवेरा को चेहरे पर ज्यादा लगाने के कारण चेहरे पर रूखापन और बारीक दाने हो सकते हैं।
डायबिटीज के मरीजों के लिए एलोवेरा का जूस सही नहीं है। बिना डॉक्टर की सलाह के वह इसका सेवन न करें। एलोवेरा के ज्यादा इस्तेमाल से लिवर से जुड़ी समस्याओं का सामना आपको करना पड़ सकता है। बेहतर यह है कि डॉक्टर से सलाह लेने के बाद ही आप एलोवेरा का सेवन शुरू करें।
धर्म संसार /शौर्यपथ /श्रीराम और राम भक्त हनुमानजी के बारे में कई तरह की कथाएं भारत और भारत के बाहर भी प्रचलित हैं। हालांकि कई कथाएं तो जनश्रुति पर आधारित या प्रचलित मान्यताओं पर आधारित है। लोग इन कथाओं को पीढ़ी दर पीढ़ी सुनते आए हैं। ऐसी ही एक कथा है रावण की बेटी और हनुमानजी के बारे में। हालांकि इन कथाओं का वाल्मीकि रामायण और तुलसीदास रचित रामचरितमानस में उल्लेख नहीं मिलता है। आओ जानते हैं क्या है यह कथा।
1. राम की कथा को वाल्मीकि के लिखने के बाद दक्षिण भारतीय लोगों ने अलग तरीके से लिखा। दक्षिण भारतीय लोगों के जीवन में राम का बहुत महत्व है। दक्षिण भारत में रावण का ज्यादा महत्व दिया गया था। इसी को देखते हुए श्रीलंका, इंडोनेशिया, मलेशिया, माली, थाईलैंड, कंबोडिया आदि द्वीप राष्ट्रों में रावण की बहुत ख्याति और सम्मान था इसलिए उक्त देशों में रामकथा को अलग तरीके से लिखा गया।
2. कहते हैं कि रावण की बेटी और हनुमानजी की ये कथा थाईलैंड की रामकियेन नामक रामायण और कंबोडिया की रामकेर नामक रामायण में मिलती है। हालांकि कई जगह पर थाई पात्र तोसाकांथ की बेटी बताया गया है।
3. कहते हैं कि रावण की एक बेटी भी था जिसका नाम सुवर्णमछा या सुवर्णमत्स्य था जो देखने में बहुत ही सुंदर थी। उसे सोने की जलपरी कहा गया है। मतलब स्वर्ण के समान उसका शरीर दमकता था। इसका सही अर्थ सुनहरी मछली होता है। थाईलैंड और कंबोडिया में सुनहरी मछली को उसी तरह पूजा जाता है जिस तरह की चीन में ड्रेगन को।
4. भारतीय रामायण के थाई व कम्बोडियाई संस्करणों के बारे में कहा जाता है कि उसमें लिखा है कि रावण की बेटी सुवर्णमछा (सोने की जलपरी) थी। जब नल और नील की योजन के तहत लंका तक सेतु बनाया जा रहा था तो रावण ने सुवर्णमछा को ही सेतु बनाने के प्रयास को विफल करने का कार्य सौंपा था। वह हनुमानजी का लंका तक सेतु बनाने का प्रयास विफल करने की कोशिश करती है, परंतु इस दौरान ही अंततः वह उनसे प्यार करने लगती है।
5. कथा के अनुसार हनुमानजी और वानर सेना समुद्र में पत्थर फेंककर जमाते थे लेकिन वे कुछ समय बाद गायब हो जाते थे। जब हनुमानजी को इस घटना क पता चला तो वे समुद्र में उतरकर देखने लगे कि आखिर ये चट्टाने कहां गायब हो रही है तो उन्होंने देखा कि पानी के अंदर रहने वाले लोग उन्हें कहीं ले जाकर रख देते हैं। तब वे उन लोगों के पीछे गए और वे देखते हैं कि एक मत्स्यकन्या उन सब की नेता है तो वे उसे चुनौती देते हैं। परंतु वह कन्या हनुमानजी को देखकर उनके प्रेम में पड़ जाती है। हनुमानजी ये समझ जाते हैं और तब वे उसे लुभाकर समुद्र के तल पर ले आते हैं और उससे पूछते हैं तुम कौन हो? वह बताती है कि मैं रावण की बेटी हूं। फिर हनुमानजी उस कन्या को समझताते हैं कि रावण ने कितना बुरा कार्य किया और क्यों हम ये पुल बना रहे हैं। तब वह कन्या समझ जाती है और सभी चट्टाने लौटा देती हैं। कहते हैं कि दोनों का एक पुत्र भी होता है जिसका नाम मैकचनू था।
हनुमानजी के कई नाम है और हर नाम के पीछे कुछ ना कुछ रहस्य है। हनुमानजी के लगभग 108 नाम बताए जाते हैं। वैसे प्रमुख रूप से हनुमानजी के 12 नाम बताए जाते हैं। बलशालियों में सर्वश्रेष्ठ है हनुमानजी। कलिकाल में उन्हीं की भक्ति से भक्त का उद्धार होता है। जो जपे हनुमानजी का नाम संकट कटे मिटे सब पीड़ा और पूर्ण हो उसके सारे काम। तो आओ जानते हैं कि हनुमानजी के नामों का रहस्य।
1. मारुति : हनुमानजी का बचपना का यही नाम है। यह उनका असली नाम भी माना जाता है।
2. अंजनी पुत्र : हनुमान की माता का नाम अंजना था। इसीलिए उन्हें अंजनी पुत्र या आंजनेय भी कहा जाता है।
3. केसरीनंदन : हनुमानजी के पिता का नाम केसरी था इसीलिए उन्हें केसरीनंदन भी कहा जाता है।
4. हनुमान : जब बालपन में मारुति ने सूर्य को अपने मुंह में भर लिया था तो इंद्र ने क्रोधित होकर बाल हनुमान पर अपने वज्र से वार किया। वह वज्र जाकर मारुति की हनु यानी कि ठोड़ी पर लगा। इससे उनकी ठोड़ी टूट गई इसीलिए उन्हें हनुमान कहा जाने लगा।
4. पवन पुत्र : उन्हें वायु देवता का पुत्र भी माना जाता है, इसीलिए इनका नाम पवन पुत्र हुआ। उस काल में वायु को मारुत भी कहा जाता था। मारुत अर्थात वायु, इसलिए उन्हें मारुति नंदन भी कहा जाता है। वैसे उनमें पवन के वेग के समान उड़ने की शक्ति होने के कारण भी यह नाम दिया गया।
6. शंकरसुवन : हनुमाजी को शंकर सुवन अर्थात उनका पुत्र भी माना जाता है क्योंकि वे रुद्रावतार थे।
7. बजरंगबली : वज्र को धारण करने वाले और वज्र के समान कठोर अर्थात बलवान शरीर होने के कारण उन्हें वज्रांगबली कहा जाने लगा। अर्थात वज्र के समान अंग वाले बलशाली। लेकिन यह शब्द ब्रज और अवधि के संपर्क में आकर बजरंगबली हो गया। बोलचाल की भाषा में बना बजरंगबली भी सुंदर शब्द है।
8. कपिश्रेष्ठ : हनुमानजी का जन्म कपि नामक वानर जाति में हुआ था। रामायणादि ग्रंथों में हनुमानजी और उनके सजातीय बांधव सुग्रीव अंगदादि के नाम के साथ 'वानर, कपि, शाखामृग, प्लवंगम' आदि विशेषण प्रयुक्त किए गए। उनकी पुच्छ, लांगूल, बाल्धी और लाम से लंकादहन इसका प्रमाण है कि वे वानर थे। रामायण में वाल्मीकिजी ने जहां उन्हें विशिष्ट पंडित, राजनीति में धुरंधर और वीर-शिरोमणि प्रकट किया है, वहीं उनको लोमश ओर पुच्छधारी भी शतश: प्रमाणों में व्यक्त किया है। अत: सिद्ध होता है कि वे जाति से वानर थे।
9. वानर यूथपति : हनुमानजी को वानर यूथपति भी कहा जाता था। वानर सेना में हर झूंड का एक सेनापति होता था जिसे यूथपति कहा जाता था। अंगद, दधिमुख, मैन्द- द्विविद, नल, नील और केसरी आदि कई यूथपति थे।
10. रामदूत : प्रभु श्रीराम का हर काम करने वाले दूत।
11. पंचमुखी हनुमान : पातल लोक में अहिरावण का वध करने जब वे गए तो वहां पांच दीपक उन्हें पांच जगह पर पांच दिशाओं में मिले जिसे अहिरावण ने मां भवानी के लिए जलाए थे। इन पांचों दीपक को एक साथ बुझाने पर अहिरावन का वध हो जाएगा इसी कारण हनुमान जी ने पंचमुखी रूप धरा। उत्तर दिशा में वराह मुख, दक्षिण दिशा में नरसिंह मुख, पश्चिम में गरुड़ मुख, आकाश की तरफ हयग्रीव मुख एवं पूर्व दिशा में हनुमान मुख। इस रूप को धरकर उन्होंने वे पांचों दीप बुझाए तथा अहिरावण का वध कर राम,लक्ष्मण को उस से मुक्त किया। मरियल नामक दानव को मारने के लिए भी यह रूप धरा था।
दोहा :
उर प्रतीति दृढ़, सरन ह्वै, पाठ करै धरि ध्यान।
बाधा सब हर, करैं सब काम सफल हनुमान॥
स्तुति :
हनुमान अंजनी सूत् र्वायु पुत्रो महाबलः।
रामेष्टः फाल्गुनसखा पिङ्गाक्षोऽमित विक्रमः॥
उदधिक्रमणश्चैव सीता शोकविनाशनः।
लक्ष्मणप्राणदाता च दशग्रीवस्य दर्पहा॥
एवं द्वादश नामानि कपीन्द्रस्य महात्मनः।
सायंकाले प्रबोधे च यात्राकाले च यः पठेत्॥
तस्य सर्वभयं नास्ति रणे च विजयी भवेत्।
यहां पढ़ें हनुमानजी के 12 चमत्कारिक नाम
1. हनुमान हैं (टूटी हनु).
2. अंजनी सूत, (माता अंजनी के पुत्र).
3. वायुपुत्र, (पवनदेव के पुत्र).
4. महाबल, (एक हाथ से पहाड़ उठाने और एक छलांग में समुद्र पार करने वाले महाबली).
5. रामेष्ट (राम जी के प्रिय).
6. फाल्गुनसख (अर्जुन के मित्र).
7. पिंगाक्ष (भूरे नेत्र वाले).
8. अमितविक्रम, ( वीरता की साक्षात मूर्ति)
9. उदधिक्रमण (समुद्र को लांघने वाले).
10. सीताशोकविनाशन (सीताजी के शोक को नाश करने वाले).
11. लक्ष्मणप्राणदाता (लक्ष्मण को संजीवनी बूटी द्वारा जीवित करने वाले).
12.. दशग्रीवदर्पहा (रावण के घमंड को चूर करने वाले).
हनुमान जी के 108 नाम :
1.भीमसेन सहायकृते
2. कपीश्वराय
3. महाकायाय
4. कपिसेनानायक
5. कुमार ब्रह्मचारिणे
6. महाबलपराक्रमी
7. रामदूताय
8. वानराय
9. केसरी सुताय
10. शोक निवारणाय
11. अंजनागर्भसंभूताय
12. विभीषणप्रियाय
13. वज्रकायाय
14. रामभक्ताय
15. लंकापुरीविदाहक
16. सुग्रीव सचिवाय
17. पिंगलाक्षाय
18. हरिमर्कटमर्कटाय
19. रामकथालोलाय
20. सीतान्वेणकर्त्ता
21. वज्रनखाय
22. रुद्रवीर्य
23. वायु पुत्र
24. रामभक्त
25. वानरेश्वर
26. ब्रह्मचारी
27. आंजनेय
28. महावीर
29. हनुमत
30. मारुतात्मज
31. तत्वज्ञानप्रदाता
32. सीता मुद्राप्रदाता
33. अशोकवह्रिकक्षेत्रे
34. सर्वमायाविभंजन
35. सर्वबन्धविमोत्र
36. रक्षाविध्वंसकारी
37. परविद्यापरिहारी
38. परमशौर्यविनाशय
39. परमंत्र निराकर्त्रे
40. परयंत्र प्रभेदकाय
41. सर्वग्रह निवासिने
42. सर्वदु:खहराय
43. सर्वलोकचारिणे
44. मनोजवय
45. पारिजातमूलस्थाय
46. सर्वमूत्ररूपवते
47. सर्वतंत्ररूपिणे
48. सर्वयंत्रात्मकाय
49. सर्वरोगहराय
50. प्रभवे
51. सर्वविद्यासम्पत
52. भविष्य चतुरानन
53. रत्नकुण्डल पाहक
54. चंचलद्वाल
55. गंधर्वविद्यात्त्वज्ञ
56. कारागृहविमोक्त्री
57. सर्वबंधमोचकाय
58. सागरोत्तारकाय
59. प्रज्ञाय
60. प्रतापवते
61. बालार्कसदृशनाय
62. दशग्रीवकुलान्तक
63. लक्ष्मण प्राणदाता
64. महाद्युतये
65. चिरंजीवने
66. दैत्यविघातक
67. अक्षहन्त्रे
68. कालनाभाय
69. कांचनाभाय
70. पंचवक्त्राय
71. महातपसी
72. लंकिनीभंजन
73. श्रीमते
74. सिंहिकाप्राणहर्ता
75. लोकपूज्याय
76. धीराय
77. शूराय
78. दैत्यकुलान्तक
79. सुरारर्चित
80. महातेजस
81. रामचूड़ामणिप्रदाय
82. कामरूपिणे
83. मैनाकपूजिताय
84. मार्तण्डमण्डलाय
85. विनितेन्द्रिय
86. रामसुग्रीव सन्धात्रे
87. महारावण मर्दनाय
88. स्फटिकाभाय
89. वागधीक्षाय
90. नवव्याकृतपंडित
91. चतुर्बाहवे
92. दीनबन्धवे
93. महात्मने
94. भक्तवत्सलाय
95.अपराजित
96. शुचये
97. वाग्मिने
98. दृढ़व्रताय
99. कालनेमि प्रमथनाय
100. दान्ताय
101. शान्ताय
102. प्रसनात्मने
103. शतकण्ठमदापहते
104. योगिने
105. अनघ
106. अकाय
107. तत्त्वगम्य
108. लंकारि
शौर्यपथ / दुनिया में अधिकतर लोग भाग्यवादी हैं। उनका विश्वास है कि भाग्य में होगा तो सबकुछ मिलेगा और नहीं होगा तो कुछ भी नहीं मिलेगा। जितना भाग्य में लिखा होगा उतना ही मिलेगा। दूसरी ओर यही भाग्यवादी लोग कहते हैं कि भविष्य भी भगवान के हाथों में ही होता है। ऐसी सोच के निर्मित होने के कई कारण है। हम उनक कारणों की चर्चा नहीं करेंगे।
भाग्यवादियों की सोच :
1. कई बार ऐसा होता है कि भाग्यवादी सोच हमें अकर्मण्य बना देती है। हम सोचते हैं कि भाग्य में होगा तो खुद-ब-खुद ही यह मिल जाएगा मेहनत करने से क्या होगा।
2. जब हम असफल हो जाते हैं तो भाग्य को कोसने लगते हैं, जबकि यह जानने का प्रयास नहीं करते हैं कि असफलता का कारण क्या था।
3. भाग्य भरोसे रहने से जिंदगी का अनमोल समय गुजरता जाता है और आदमी फिर अंत में सोचता है कि मेरे भाग्य में यही लिखा था।
4. भाग्यवाद एक समय बाद निराशा की खाई में धकेल देता है।
5. भाग्य उसी का जागृत होता है जो कर्म का छोटा सा चक्का घुमा देता है। भाग्य और कुछ नहीं बल्कि कर्मों का ही फल है।
कर्मवादियों की सोच :
1. जब तक हम कुछ करेंगे नहीं तब तक हम कुछ बनेंगे नहीं। इसीलिए करने के बाद में सोचो कुछ होने या बनने के बारे में नहीं।
2. व्यक्ति अपने कर्मों से ही महान बनता है और कर्म ही उसे सफल बनाते हैं।
3. कर्मों में कुशलता से ही कोई व्यक्ति लोगों के बीच लोकप्रिय होते हैं और यह कुशलता ही उसके जीवन से संघर्ष को हटा देती हैं।
4. कार्यालय में कार्य ही आपको बचाता है। आपकी चापलूसी या और कुछ नहीं। कार्य करने वाले कभी भी भूखे नहीं मरते हैं चाहे कितने ही संघर्ष क्यों ना उनके सामने खड़े हो।
5. गीता में कर्म को ही महत्व दिया गया है ना कि भाग्य को। कर्म कर और फल की चिंता मत कर क्योंकि फल तो तुझे मिलेगा ही।
निष्कर्ष : कर्म जरूरी है लेकिन सही दिशा में किया गया कर्म भाग्य बनता है। अर्थात भाग्य या दुर्भाग्य हमारे कर्मों का ही फल है। कर्म और भाग्य मिलकर दोनों ही हमारे भविष्य का निर्धारण करते हैं। जब समुद्र मंथन जैसा महान कर्म किया गया तो उसमें से चौदह रत्न निकले और उन सभी रत्नों का वितरण कर्मों के अनुसार ही हुआ।
शौर्यपथ / दुनिया में अधिकतर लोग भाग्यवादी हैं। उनका विश्वास है कि भाग्य में होगा तो सबकुछ मिलेगा और नहीं होगा तो कुछ भी नहीं मिलेगा। जितना भाग्य में लिखा होगा उतना ही मिलेगा। दूसरी ओर यही भाग्यवादी लोग कहते हैं कि भविष्य भी भगवान के हाथों में ही होता है। ऐसी सोच के निर्मित होने के कई कारण है। हम उनक कारणों की चर्चा नहीं करेंगे।
भाग्यवादियों की सोच :
1. कई बार ऐसा होता है कि भाग्यवादी सोच हमें अकर्मण्य बना देती है। हम सोचते हैं कि भाग्य में होगा तो खुद-ब-खुद ही यह मिल जाएगा मेहनत करने से क्या होगा।
2. जब हम असफल हो जाते हैं तो भाग्य को कोसने लगते हैं, जबकि यह जानने का प्रयास नहीं करते हैं कि असफलता का कारण क्या था।
3. भाग्य भरोसे रहने से जिंदगी का अनमोल समय गुजरता जाता है और आदमी फिर अंत में सोचता है कि मेरे भाग्य में यही लिखा था।
4. भाग्यवाद एक समय बाद निराशा की खाई में धकेल देता है।
5. भाग्य उसी का जागृत होता है जो कर्म का छोटा सा चक्का घुमा देता है। भाग्य और कुछ नहीं बल्कि कर्मों का ही फल है।
कर्मवादियों की सोच :
1. जब तक हम कुछ करेंगे नहीं तब तक हम कुछ बनेंगे नहीं। इसीलिए करने के बाद में सोचो कुछ होने या बनने के बारे में नहीं।
2. व्यक्ति अपने कर्मों से ही महान बनता है और कर्म ही उसे सफल बनाते हैं।
3. कर्मों में कुशलता से ही कोई व्यक्ति लोगों के बीच लोकप्रिय होते हैं और यह कुशलता ही उसके जीवन से संघर्ष को हटा देती हैं।
4. कार्यालय में कार्य ही आपको बचाता है। आपकी चापलूसी या और कुछ नहीं। कार्य करने वाले कभी भी भूखे नहीं मरते हैं चाहे कितने ही संघर्ष क्यों ना उनके सामने खड़े हो।
5. गीता में कर्म को ही महत्व दिया गया है ना कि भाग्य को। कर्म कर और फल की चिंता मत कर क्योंकि फल तो तुझे मिलेगा ही।
निष्कर्ष : कर्म जरूरी है लेकिन सही दिशा में किया गया कर्म भाग्य बनता है। अर्थात भाग्य या दुर्भाग्य हमारे कर्मों का ही फल है। कर्म और भाग्य मिलकर दोनों ही हमारे भविष्य का निर्धारण करते हैं। जब समुद्र मंथन जैसा महान कर्म किया गया तो उसमें से चौदह रत्न निकले और उन सभी रत्नों का वितरण कर्मों के अनुसार ही हुआ।
लाइफस्टाइल /शौर्यपथ /सरोजिनी नायडू का जन्म 13 फरवरी 1879 को हैदराबाद में हुआ था। उनकी माता का नाम वरद सुंदरी था, वे कवयित्री थीं और बंगला में लिखती थीं। उनके पिता का नाम अघोरनाथ चट्टोपाध्याय था, जो एक प्रसिद्ध वैज्ञानिक और शिक्षाशास्त्री थे।
सरोजिनी नायडू
ने मात्र 14 वर्ष की उम्र में सभी अंग्रेजी कवियों की रचनाओं का अध्ययन कर लिया था। 1895 में हैदराबाद के निजाम ने उन्हें वजीफे पर इंग्लैंड भेजा। सरोजिनी नायडू एक प्रतिभावान छात्रा थीं। उन्हें इंग्लिश, बंगला, उर्दू, तेलुगु और फारसी भाषा का अच्छा ज्ञान था।
सरोजिनी का 19 साल की उम्र में सन् 1898 में डॉ. गोविन्द राजालु नायडू से विवाह हुआ। उन्होंने घर पर ही अंग्रेजी का अध्ययन किया और 12 वर्ष की आयु में मैट्रिक पास की। वे अपनी शिक्षा पूरी नहीं कर सकीं, परंतु अंग्रेजी भाषा में काव्य सृजन में वे प्रतिभावान रहीं। गीतिकाव्य की शैली में नायडू ने काव्य सृजन किया और 1905, 1912 और 1917 में उनकी कविताएं प्रकाशित हुईं।
नायडू के राजनीति में सक्रिय होने में गोखले के 1906 के कोलकाता अधिवेशन के भाषण ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। उन्होंने भारतीय समाज में फैली कुरीतियों के लिए भारतीय महिलाओं को जागृत किया। भारत की स्वतंत्रता के लिए विभिन्न आंदोलनों में सहयोग दिया। काफी समय तक वे कांग्रेस की प्रवक्ता रहीं। जलियांवाला बाग हत्याकांड से क्षुब्ध होकर उन्होंने 1908 में मिला 'कैसर-ए-हिन्द' सम्मान लौटा दिया था।
भारत छोड़ो आंदोलन में उन्हें आगा खां महल में सजा दी गई। वे उत्तरप्रदेश की पहली महिला राज्यपाल बनीं। एक कुशल राजनेता होने के साथ-साथ वे अच्छी लेखिका भी थीं। 1903 से 1917 के बीच वे टैगोर, गांधी, नेहरू व अन्य नायकों से भी मिलीं। महात्मा गांधी से उनकी प्रथम मुलाकात 1914 में लंदन में हुई और गांधीजी के व्यक्तित्व ने उन्हें बहुत प्रभावित किया। दक्षिण अफ्रीका में वे गांधीजी की सहयोगी रहीं।
वे गोपालकृष्ण गोखले को अपना 'राजनीतिक पिता' मानती थीं। उनके विनोदी स्वभाव के कारण उन्हें 'गांधीजी के लघु दरबार में विदूषक' कहा जाता था। एनी बेसेंट और अय्यर के साथ युवाओं में राष्ट्रीय भावनाओं का जागरण करने हेतु उन्होंने 1915 से 18 तक भारत भ्रमण किया। 1919 के सविनय अवज्ञा आंदोलन में वे गांधीजी की विश्वसनीय सहायक थीं। होमरूल के मुद्दे को लेकर वे 1919 में इंग्लैंड गईं। 1922 में उन्होंने खादी पहनने का व्रत लिया। 1922 से 26 तक वे दक्षिण अफ्रीका में भारतीयों के समर्थन में आंदोलनरत रहीं और गांधीजी के प्रतिनिधि के रूप में 1928 में अमेरिका गईं।
सरोजिनी नायडू ने गांधीजी के अनेक सत्याग्रहों में भाग लिया और 'भारत छोड़ो' आंदोलन में वे जेल भी गईं। 1925 में वे भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के कानपुर अधिवेशन की प्रथम भारतीय महिला अध्यक्ष बनीं। वे उत्तरप्रदेश की गवर्नर बनने वाली पहली महिला थीं। वे 'भारत कोकिला' के नाम से जानी गईं। नायडू ने कानपुर कांग्रेस अधिवेशन के अध्यक्षीय भाषण के समय कहा था- 'भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस को (सभी को) जो उसकी परिधि में आते हों, एक आदेश देना चाहिए कि केंद्रीय और प्रांतीय विधानसभाओं में वे अपनी सीटें खाली करें और कैलाश से कन्याकुमारी तक, सिन्धु से ब्रह्मपुत्र तक एक गतिशील और अथक अभियान का श्री गणेश करें।'
'चुनाव के बाद जब तुम्हारा भव्य अभिनंदन किया जा रहा था, तो तुम्हारे चेहरे को देखते-देखते मुझे लगा, मानो मैं एक साथ ही राजतिलक और सूली का दृश्य देख रही हूं। वास्तव में कुछ परिस्थितियों और कुछ अवस्थाओं में ये दोनों एक-दूसरे से अभिन्न हैं और लगभग पर्यायवाची हैं।' -नायडू द्वारा पं. नेहरू को 29 सितंबर, 1929 को लिखे गए पत्र से।
उन्होंने भारतीय महिलाओं के बारे में कहा था- 'जब आपको अपना झंडा संभालने के लिए किसी की आवश्यकता हो और जब आप आस्था के अभाव से पीड़ित हों तब भारत की नारी आपका झंडा संभालने और आपकी शक्ति को थामने के लिए आपके साथ होगी और यदि आपको मरना पड़े तो यह याद रखिएगा कि भारत के नारीत्व में चित्तौड़ की पद्मिनी की आस्था समाहित है।'
सिर्फ 13 वर्ष की उम्र में उन्होंने 1300 पंक्तियों की कविता 'द लेडी ऑफ लेक' लिखी थी। फारसी भाषा में एक नाटक 'मेहर मुनीर' लिखा। 'द बर्ड ऑफ टाइम', 'द ब्रोकन विंग', 'नीलांबुज', ट्रेवलर्स सांग' उनकी प्रकाशित पुस्तकें हैं। 70 वर्ष की उम्र में 2 मार्च 1949 को दिल का दौरा पड़ने के कारण उनका देहांत हो गया। स्वतंत्रता संग्राम में अहम भूमिका निभाने वाली सरोजिनी नायडू ने भारत को आजादी दिलाने के लिए कड़ा संघर्ष किया था।
आस्था /शौर्यपथ कहते हैं कि क्षीरसागर में ही समुद्र मंथन हुआ था। इस मंथन के दौरान मंदरांचल पर्वत को मथनी और वासुकी नाग को रस्सी बनाया गया था। देवता और और दैत्यों ने मिलकर इस पहाड़ के द्वारा समुद्र को मंथन किया था। इस मंथन से पहले कालकूट नामक विष निकलने के बाद 14 तरह के अद्भुत चीजें प्राप्त हुई थी जिसमें अंतिम था अमृत। लेकिन जिस पहाड़ को मथनी बनाकर मंथन किया था वह पहाड़ वर्तमान में कहां है?
कहते हैं कि द्वारका नगरी के पास ही देवताओं और राक्षसों ने अमृत की प्राप्ति के लिए समुद्र मंथन किया था। इस मंथन के लिए मन्दराचल पर्वत का उपयोग किया था।
27 अक्टूबर 2014 को प्रकाशित हुई एक खबर के अनुसार आर्कियोलॉजी और ओशनोलॉजी डिपार्टमेंट ने सूरत जिले के पिंजरात गांव के पास समुद्र में मंदराचल पर्वत होने का दावा किया था। आर्कियोलॉजिस्ट मितुल त्रिवेदी के अनुसार बिहार के भागलपुर के पास स्थित भी एक मंदराचल पर्वत है, जो गुजरात के समुद्र से निकले पर्वत का हिस्सा है।
त्रिवेदी के अनुसार बिहार और गुजरात में मिले इन दोनों पर्वतों का निर्माण एक ही तरह के ग्रेनाइट पत्थर से हुआ है। इस तरह ये दोनों पर्वत एक ही हैं। जबकि आमतौर पर ग्रेनाइट पत्थर के पर्वत समुद्र में नहीं मिला करते। खोजे गए पर्वत के बीचोबीच नाग आकृति है जिससे यह सिद्ध होता है कि यही पर्वत मंथन के दौरान इस्तेमाल किया गया होगा इसलिए गुजरात के समुद्र में मिला यह पर्वत शोध का विषय जरूर है।
गौरतलब है कि पिंजरात गांव के समुद्र में 1988 में किसी प्राचीन नगर के अवशेष भी मिले थे। लोगों की यह मान्यता है कि वे अवशेष भगवान कृष्ण की नगरी द्वारका के हैं, वहीं शोधकर्ता डॉ. एसआर राव का कहना है कि वे और उनके सहयोगी 800 मीटर की गहराई तक अंदर गए थे। इस पर्वत पर घिसाव के निशान भी हैं।
ओशनोलॉजी डिपार्टमेंट ने वेबसाइट पर लगभग 50 मिनट का एक वीडियो जारी किया है. इसमें पिंजरत गांव के समुद्र से दक्षिण में 125 किलोमीटर दूर 800 की गहराई में समुद्रमंथन के पर्वत मिलने की बात भी कही है।
हालांकि कुछ शोधकर्ताओं का मानना है कि यह पर्वत बांका जिला के बौंसी में स्थित है जो बिहार राज्य में है। परंतु इस संबंध में कोई ठोस प्रमाण नहीं मिलते हैं। इस पर्वत की ऊंचाई लगभग 700 से 750 फुट है।
जब हम पुराणों में सुमेरू पर्वत का वर्णन पड़ते हैं तो कुछ और ही समझ में आता है। सुमेरू के दक्षिण में हिमवान, हेमकूट तथा निषध नामक पर्वत हैं, जो अलग-अलग देश की भूमि का प्रतिनिधित्व करते हैं। सुमेरू के उत्तर में नील, श्वेत और श्रृंगी पर्वत हैं, वे भी भिन्न-भिन्न देश में स्थित हैं।
इस सुमेरू पर्वत को प्रमुख रूप से बहुत दूर तक फैले 4 पर्वतों ने घेर रखा है। 1. पूर्व में मंदराचल, 2. दक्षिण में गंधमादन, 3. पश्चिम में विपुल और 4. उत्तर में सुपार्श्व। इन पर्वतों की सीमा इलावृत के बाहर तक है। सुमेरू के पूर्व में शीताम्भ, कुमुद, कुररी, माल्यवान, वैवंक नाम से आदि पर्वत हैं। सुमेरू के दक्षिण में त्रिकूट, शिशिर, पतंग, रुचक और निषाद आदि पर्वत हैं। सुमेरू के उत्तर में शंखकूट, ऋषभ, हंस, नाग और कालंज आदि पर्वत हैं।
इस वर्णन अनुसार तो पूर्व में मंदराचल पर्वत होना चाहिए और भारत के पूर्वी राज्य में ही यह पर्वत कहीं होना चाहिए। यदि हम बिहार में स्थित मानते हैं तो फिर यह पर्वत समुद्र में कैसे पहुंचकर पुन: यहां आ गया?
शिक्षा /शौर्यपथ /तक्षशिला और पाटलीपुत्र के ध्वंस के बाद महाभारत युद्ध और बौद्ध काल के बीच के हिंदू इतिहास के अब बस खंडहर ही बचे हैं। इस धूमिल से इतिहास को इतिहासकारों ने खुदाईयों और ग्रंथों की खाक छानते हुए क्रमबद्ध करने का प्रयास किया है। हड़प्पा, सिंधु और मोहनजोदड़ों सभ्यता का प्रथम चरण 3300 से 2800 ईसा पूर्व, दूसरा चरण 2600 से 1900 ईसा पूर्व और तीसरा चरण 1900 से 1300 ईसा पूर्व तक रहा। इतिहासकार मानते हैं कि यह सभ्यता काल 800 ईस्वी पूर्व तक चलता रहा। हालांकि एक नई शोध बताती है कि यह सभ्यता 8 हजार ईसापूर्व विद्यमान थी और महाभारत 5 हजार ईसापूर्व हुई थी।
कहते हैं कि सिंधुघाटी के प्रथम चरण के काल में महाभारत हुई, दूसरे चरण के काल में मिस्र के फराओं और भारत के कुरु और पौरवो के राजवंश थे। तीसरे चरण में यहूदी धर्म के संस्थापक इब्राहिम, मूसा, सुलेमान ने यहूदी वंशों का निर्माण किया तो भारत में सभी वंशों के 16 महाजनपदों का उदय हुआ। हड़प्पा से पहले सिंधु नदी के आसपास मेहरगढ़ की सभ्यता का अस्तित्व था। उससे पूर्व मध्यप्रदेश में भीमबेटका में भारत की सबसे प्राचीन सभ्यता को खोजा गया जिसका काल 9000-7000 ईसा पूर्व था। यहां गुफाओं में कुछ शैलचित्र ऐसे भी मिले हैं जिनकी उम्र कार्बनडेटिंग अनुसार 35 हजार ईसा पूर्व की मानी गई है।
Vसिंधु या मोहनजोदड़ो के काल में इराक में सुमेरी और मिस्र में सबाइन सभ्यता सबसे विकसित सभ्यता थी। मोहदजोदड़ों हड़प्पा से मिलने वली मुहरें, बर्तन, भित्तिचित्र आदि ईरान, मिस्र और इराकी सभ्यताओं में पाई गई मुहरों आदि से मिलती जुलती है। सिंधु घाटी की कई मोहरें सुमेरिया से मिली है जिससे यह भी सिद्ध होता है कि इस देश के उस काल में भारत से संबंध थे।
2800 से 1900 ईसापूर्व के बीच भारत में किन राजवंशों का राज था इसका उल्लेख पुराणों में मिलता है। इस काल में धर्म का केंद्र हस्तीनापुर, मधुरा आदि से हटकर तक्षशिला हो गया था। अर्थात पेशावर से लेकर हिंदुकुश के इलाके में बहुत तेजी से परिवर्तन हो रहे थे।
1300 ईसा पूर्व भारत 16 महाजनपदों में बंटा गया- 1. कुरु, 2. पंचाल, 3. शूरसेन, 4. वत्स, 5. कोशल, 6. मल्ल, 7. काशी, 8. अंग, 9. मगध, 10. वृज्जि, 11. चेदि, 12. मत्स्य, 13. अश्मक, 14. अवंति, 15. गांधार और 16. कंबोज। अधिकांशतः महाजनपदों पर राजा का ही शासन रहता था, परंतु गण और संघ नाम से प्रसिद्ध राज्यों में लोगों का समूह शासन करता था। इस समूह का हर व्यक्ति राजा कहलाता था।
महाभारत के बाद धीरे-धीरे धर्म का केंद्र तक्षशिला (पेशावर) से हटकर मगध के पाटलीपुत्र में आ गया। गर्ग संहिता में महाभारत के बाद के इतिहास का उल्लेख मिलता है। मुस्लिम आक्रांताओं द्वारा तक्षशिला और पाटलीपुत्र के संहार किए जाने के कारण महाभारत से बुद्धकाल तक के इतिहास का अस्पष्ट उल्लेख मिलता है।
यह काल बुद्ध के पूर्व का काल है, जब भारत 16 जनपदों में बंटा हुआ था। हर काल में उक्त जनपदों की राजधानी भी अलग-अलग रही, जैसे कोशल राज्य की राजधानी अयोध्या थी तो बाद में साकेत और उसके बाद बौद्ध काल में श्रावस्ती बन गई। महाभारत युद्ध के पश्चात पंचाल पर पाण्डवों के वंशज तथा बाद में नाग राजाओं का अधिकार रहा। पुराणों में महाभारत युद्ध से लेकर नंदवंश के राजाओं तक 27 राजाओं का उल्लेख मिलता है। महाभारत काल के बाद अर्थात कृष्ण के बाद उपनिषदों का काल था। ईसा से 1000 वर्ष पूर्व लिपिबद्ध किए गए छांदोग्य उपनिषद में महाभारत युद्ध के होने का जिक्र है।
वेद व्यास के कुल के महान संत 'सुतजी' थे। इस काल में वेद, उपनिषद, महाभारत और पुराणों को फिर से लिखा जा रहा था। इस काल में उत्तर वैदिक काल की सभ्यता का पतन होना शुरू हो गया था। इस काल में एक और जहां जैन धर्म के अनुयायियों और शासकों की संख्या बढ़ गई थी वहीं धरती पर यहूदियों के वंश विस्तार की कहानी लिखी जा रही थी। हजरत इब्राहीम इस इराक का क्षेत्र छोड़कर सीरिया के रास्ते इसराइल चले गए थे और फिर वहीं पर उन्होंने अपने वंश और यहूदी धर्म का विस्तार किया।
इस काल में भरत, कुरु, द्रुहु, त्रित्सु और तुर्वस जैसे राजवंश राजनीति के पटल से गायब हो रहे थे और काशी, कोशल, वज्जि, विदेह, मगध और अंग जैसे राज्यों का उदय हो रहा था। इस काल में आर्यों का मुख्य केंद्र 'मध्यप्रदेश' था जिसका प्रसार सरस्वती से लेकर गंगा दोआब तक था। यही पर कुरु एवं पांचाल जैसे विशाल राज्य भी थे। पुरु और भरत कबीला मिलकर 'कुरु' तथा 'तुर्वश' और 'क्रिवि' कबीला मिलकर 'पंचाल' (पांचाल) कहलाए।
अंतिम राजा निचक्षु : महाभारत के बाद कुरु वंश का अंतिम राजा निचक्षु था। पुराणों के अनुसार हस्तिनापुर नरेश निचक्षु ने, जो परीक्षित का वंशज (युधिष्ठिर से 7वीं पीढ़ी में) था, हस्तिनापुर के गंगा द्वारा बहा दिए जाने पर अपनी राजधानी वत्स देश की कौशांबी नगरी को बनाया। इसी वंश की 26वीं पीढ़ी में बुद्ध के समय में कौशांबी का राजा उदयन था। निचक्षु और कुरुओं के कुरुक्षेत्र से निकलने का उल्लेख शांख्यान श्रौतसूत्र में भी है।
जन्मेजय के बाद क्रमश: शतानीक, अश्वमेधदत्त, धिसीमकृष्ण, निचक्षु, उष्ण, चित्ररथ, शुचिद्रथ, वृष्णिमत सुषेण, नुनीथ, रुच, नृचक्षुस्, सुखीबल, परिप्लव, सुनय, मेधाविन, नृपंजय, ध्रुव, मधु, तिग्म्ज्योती, बृहद्रथ और वसुदान राजा हुए जिनकी राजधानी पहले हस्तिनापुर थी तथा बाद में समय अनुसार बदलती रही। बुद्धकाल में शत्निक और उदयन हुए। उदयन के बाद अहेनर, निरमित्र (खान्दपनी) और क्षेमक हुए।
मगध वंश में क्रमश: क्षेमधर्म (639-603 ईपू), क्षेमजित (603-579 ईपू), बिम्बिसार (579-551), अजातशत्रु (551-524), दर्शक (524-500), उदायि (500-467), शिशुनाग (467-444) और काकवर्ण (444-424 ईपू) ये राजा हुए।
नंद वंश में नंद वंश उग्रसेन (424-404), पण्डुक (404-294), पण्डुगति (394-384), भूतपाल (384-372), राष्ट्रपाल (372-360), देवानंद (360-348), यज्ञभंग (348-342), मौर्यानंद (342-336), महानंद (336-324)। इससे पूर्व ब्रहाद्रथ का वंश मगध
पर स्थापित था।
अयोध्या कुल के मनु की 94 पीढ़ी में बृहद्रथ राजा हुए। उनके वंश के राजा क्रमश: सोमाधि, श्रुतश्रव, अयुतायु, निरमित्र, सुकृत्त, बृहत्कर्मन्, सेनाजित, विभु, शुचि, क्षेम, सुव्रत, निवृति, त्रिनेत्र, महासेन, सुमति, अचल, सुनेत्र, सत्यजित, वीरजित और अरिञ्जय हुए। इन्होंने मगध पर क्षेमधर्म (639-603 ईपू) से पूर्व राज किया था।
खाना खजाना / शौर्यपथ /अच्छी सेहत के लिए जितना जरूरी पौष्टिक आहार है उतना ही जरूरी सलाद का सेवन करना भी माना गया है। लेकिन जाने-अनजाने कई बार गलत तरीके से किया गया सलाद का सेवन आपकी सेहत बनाने की जगह बिगाड़ने का काम कर देता है। ऐसा तब होता है जब लोगों को सलाद खाने के सही तरीके के बारे में पूरी जानकारी नहीं होती है। आइए जानते हैं अच्छी सेहत के लिए क्या है सलाद खाने का सही तरीका और समय।
कब खाएं सलाद-
फूड एक्सपर्ट्स की मानें तो सलाद का सेवन हमेशा खाना खाने से आधा या एक घंटे पहले करना चाहिए। ऐसा करने से आपको खाना खाते समय भूख कम लगती है और आप भोजन में कार्बोहाइड्रेट की मात्रा कम लेते हैं। साथ ही आपका वजन कंट्रोल रहता है और आपको प्रोटीन, फाइबर, विटामिन और मिनरल्स की प्राप्ति होती है।
कैसे करें सलाद का सेवन-
सलाद का स्वाद बढ़ाने के लिए अक्सर लोग उसमें ऊपर से नमक छिड़क देते हैं। लेकिन यह बात बहुत कम ही लोग जानते होंगे कि सलाद के ऊपर कभी भी नमक डालकर नहीं खाना चाहिए। बावजूद इसके अगर आप सलाद में नमक डालकर ही इसका सेवन करना चाहते हैं तो कोशिश करें कि काला या फिर सेंधा नमक का ही प्रयोग करें। इसके अलावा इस बात का भी ध्यान रखें कि खासकर बारिश के मौसम में सलाद को पहले से काटकर नहीं रखें। इस मौसम में बैक्टीरिया बहुत जल्दी एक्टिव हो जाते हैं। इस बात का भी ध्यान रखे कि खीरे का प्रयोग रात में बिल्कुल न करें।