December 26, 2024
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शौर्यपथ

शौर्यपथ

   शौर्यपथ / बॉलीवुड एक्ट्रेस कुब्रा सैत को उनकी शानदार एक्टिंग के लिए जाना जाता है। इसके अलावा वह सोशल मीडिया पर भी काफी एक्टिव रहती हैं और हर मुद्दे पर बेबाकी से अपनी प्रतिक्रिया देती हैं। हाल ही में उन्होंने लॉकडाउन पर सरकार की व्यवस्था को लेकर एक ट्वीट किया, जिस पर उन्हें एक यूजर ने भारत छोड़ने की बात कह डाली। एक्ट्रेस ने भी मजेदार अंदाज में इसका जवाब दिया।

कुब्रा ने लॉकडाउन को लेकर सरकार की कम तैयारी पर सवाल खड़े किए। उन्होंने ट्विटर अकाउंट पर लिखा, उन्होंने वादा किया था कि हमें इसकी जानकारी पहले दी जाएगी, लेकिन वे तो अभी भी गाइडलाइन्स तैयार कर रहे हैं। ये तो वही बात हो गई कि परीक्षा से एक रात पहले पूरी पढ़ाई करना।

एक्ट्रेस की ये बात यूजर्स को रास नहीं आई। एक यूजर ने तो कुब्रा सैत को देश छोड़ने के लिए ही कह दिया। यूजर ने रिप्लाई करते हुए कमेंट किया, आप देश क्यों नहीं छोड़ देती हो? यूजर के इस कमेंट पर कुब्रा ने भी ऐसा जवाब दिया कि उसकी बोलती बंद हो गई। एक्ट्रेस ने मजेदार तरीके जवाब देते हुए रिप्लाई किया, कोई भी नहीं जा सकता, लॉकडाउन चल रहा है, कुछ भी।

बता दें कि कुब्रा सैत पिछली बार फिल्म जवानी जानेमन में नजर आई थीं। यह फिल्म इस साल 31 जनवरी को रिलीज हुई है। इसमें सैफ अली खान और अलाया फर्नीचरवाला ने मुख्य भूमिका निभाई थी। फिल्म में कुब्रा, सैफ की दोस्त के रोल में दिखीं और उनके काम को काफी पसंद किया गया।

 

     शौर्यपथ / किसी देश के इतिहास में ऐसे मौके बहुत नहीं होते, जब विकास की राह बदलने का मौका मिलता है। देश में यह ऐतिहासिक मौका ‘आत्मनिर्भर भारत’ को महत्व देने के साथ ही विकास के स्थानीयकरण पर केंद्रित है। यह भारत में आर्थिक तरक्की की राह बदलने की एक विलक्षण सोच है। स्वायत्तशासी विकास की रणनीति का मुख्य तत्व एक ऐसी आर्थिक संरचना का निर्माण है, जो देश में उपलब्ध सभी संसाधनों की मात्रा और गुणवत्ता के लिए सबसे मुफीद हो। इसमें अपने संसाधनों पर आधारित राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था के आत्मनिर्भर विकास, सार्वजनिक व निजी उद्यमों के बीच संबंध-सहयोग और एमएसएमई व ग्रामीण अर्थव्यवस्था के पुनर्निर्माण जैसे उपायों को रणनीति का अभिन्न अंग बनाया गया है।
आर्थिक पैकेज का यह प्रयास आर्थिक सुधारों को एक विशेष क्रम में रखने की वकालत भी करता है। यह एक ऐसी बहस है, जो 1991 के बाद से शैक्षणिक और नीतिगत स्तर पर होती रही है। राहत पैकेज का विवरण वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने 13 से 17 मई तक पांच दिन में विस्तार से बताया है। प्रयास यह है कि लॉकडाउन से बाहर निकलने के साथ ही अर्थव्यवस्था के सामने जो प्रमुख चुनौतियां खड़ी हो सकती हैं, उन्हें संभालने के साथ-साथ उन प्रवासियों को लाभदायक रोजगार देना, जो शहर लौटना नहीं चाहते। प्रयास यह भी है कि आपूर्ति में पैदा व्यवधानों को दूर किया जाए। यह दर्ज करना दिलचस्प है कि इस आर्थिक पैकेज कार्यक्रम के तहत पांच अलग-अलग क्षेत्रों पर गौर करना प्रस्तावित है। सबसे अव्वल है, प्रभावित लोगों को सामाजिक सुरक्षा देना। दूसरा, ऋण और नकदी प्रवाह से समर्थन करना। तीसरा, बुनियादी ढांचा निर्माण को वित्तीय सहयोग देना। चौथा, शिक्षा के क्षेत्र में तकनीक आधारित सुधार करना। पांचवां, श्रम बाजार में नीतिगत सुधार करना। खासकर कोयला, रक्षा, खनिज, नागरिक उड्डयन, अंतरिक्ष व परमाणु ऊर्जा, रियल इस्टेट आदि में श्रम सुधार।
वैश्विक स्तर पर हम पाते हैं कि भारत द्वारा उठाए गए कदम अन्य देशों से मेल खाते हैं। विशिष्ट पैकेज के आकार, दायरे और आर्थिक सुधार कुछ भिन्न हो सकते हैं, लेकिन मजबूत नीति के लिए तय क्षेत्र कमोबेश समान हैं। आर्थिक पैकेज में सरकारों ने राजकोषीय, मौद्रिक व वृहद आर्थिक मजबूत नीतियों, दवाओं की पर्याप्त आपूर्ति, उपकरण व स्वास्थ्य के बुनियादी ढांचे, टीका विकसित करने, बेरोजगारों, कमजोर और बीमार व्यक्तियों को राहत देने, आवश्यक आपूर्ति सुनिश्चित करने, खाद्य सुरक्षा पर ज्यादा ध्यान दिया है।
आर्थिक पैकेज के आकार को देखें, तो कुछ देशों में दिए गए पैकेज ज्यादा हैं, जैसे जापान में जो आर्थिक पैकेज दिया गया है, वह वहां की जीडीपी का 21.1 प्रतिशत है, बेल्जियम में 13.5 प्रतिशत, ईरान में 13.7 प्रतिशत, सिंगापुर में 91.3 प्रतिशत और अमेरिका में 11 प्रतिशत है। अन्य ज्यादातर विकसित या विकासशील अर्थव्यवस्थाओं में दिए गए आर्थिक पैकेज उनकी जीडीपी का तीन से आठ प्रतिशत तक हैं। कुछ अफ्रीकी और एशियाई देशों में इससे भी कम आर्थिक पैकेज दिया गया है। भारत में दिया गया कुल आर्थिक पैकेज जीडीपी के 11 प्रतिशत से भी ज्यादा है। दुनिया के उभरते देशों के बीच देखें, तो भारत में दिया गया पैकेज अधिक ही है। मौजूदा स्थिति में आर्थिक पैकेज के पीछे जो मूल भावना है, उसे तेजी से लागू करने की जरूरत है। संबंधित मंत्रालयों को अति-सक्रियता से काम करना होगा, सामूहिक रूप से आगे बढ़ने के लिए सबको एक साथ लाना होगा। नौकरशाही को प्रेरित करना होगा।
दो अन्य खास कारक और भी हैं। एक यह कि देश में ज्यादा पूंजी वाली दीर्घकालिक परियोजनाओं के वित्त पोषण को संस्थागत तंत्र की जरूरत है। आईडीबीआई और आईसीआईसीआई के निजीकरण के बाद से भारत ने बहुत हद तक औद्योगिक विकास के वित्त पोषण को गंवा दिया है। जिन वित्तीय संस्थाओं पर बड़ी कंपनियां निर्भर रहती हैं, वे पूंजी संग्रह में धीमी वृद्धि का सामना कर रही हैं। दूसरा कारक, आरबीआई को प्रोत्साहित किया जाना चाहिए कि औद्योगिक विकास को बढ़ावा देने के लिए वह सरकारी बैंकों (पीएसबी) के साथ मिलकर बेहतर काम करे। जो सरकारी सहायता मिली है, उसे सरकारी बैंकों को हल्के में नहीं लेना चाहिए।
(ये लेखक के अपने विचार हैं)

 

     शौर्यपथ / कोरोना के खतरे के बावजूद चिकित्सक, पुलिसकर्मी, नर्स, स्वास्थ्यकर्मी, किराना व्यापारी, दवा विक्रेता जैसे लोग जनता की सेवा में लगे हुए हैं। किंतु यह अफसोस की बात है कि कुछ सिरफिरों द्वारा इन पर, खासतौर से पुलिसकर्मियों पर हमला किया जाता है। यह अपने आप में बहुत ही शर्मनाक विषय है। ऐसी प्रवृत्ति वाले लोगों पर सिर्फ मुकदमा दर्ज करने से कुछ नहीं होगा, बल्कि फास्ट ट्रैक कोर्ट में पेश करते हुए उन्हें सख्त से सख्त सजा देने की व्यवस्था होनी चाहिए। तभी इस प्रकार की घटनाओं को हम रोक सकेंगे। हमें अपने कोरोना योद्धाओं का सम्मान करना चाहिए और दूसरों को भी ऐसा करने के लिए अवश्य प्रोत्साहित करना चाहिए।
प्रमोद अग्रवाल गोल्डी, हल्द्वानी

लाल फीताशाही 
पिछली सदी के आखिरी दशक तक नौकरशाह खुद को सेवक नहीं, मालिक समझते थे। इसका दुष्प्रभाव हमने देखा भी। आज बेशक वह व्यवस्था कायम नहीं है, लेकिन सोच अब भी बहुत ज्यादा नहीं बदली है। ऐसे में, केंद्र सरकार ने जिस आर्थिक पैकेज की घोषणा की है, उसको जमीन पर लागू करने की भी उसे संजीदा कोशिश करनी होगी, ताकि वह लाल फीताशाही का शिकार न बने। जरूरी है कि केंद्र और राज्य सरकारों के बीच बेहतर समन्वय हो, अन्यथा ‘एक देश एक राशनकार्ड’ जैसी योजना को जमीन पर उतारना और लाभार्थियों को समुचित मदद करना मुश्किल होगा। असल में, हमारे नौकरशाह अमूमन परंपरागत तौर-तरीकों के आदी हैं। उनकी कार्यशैली जटिल है, जिसे वे बदलना नहीं चाहते। वे आमतौर पर सब कुछ अपने नियंत्रण में रखना चाहते हैं। इस सोच को बदलना जरूरी है। सरकार उन लोगों तक खुद पहुंचे, जिनके लिए नीतियां बनाई जाती हैं।
शादाब हुसैन खान, मांझी, छपरा

गांव लौटते मजदूर
जो संकट आज हम सड़कों पर देख रहे हैं, उसे जल्द भूल पाना आसान नहीं होगा। ये मजदूरों का पलायन नहीं, बल्कि मानव पूंजी का पलायन है, क्योंकि यही लोग हमारे देश की अर्थव्यवस्था के स्तंभ हैं। गांव लौटना इनको उचित इसलिए लगा कि वहां लोग उन्हें भूख से मरने नहीं देंगे। मुमकिन है कि इनमें से ज्यादातर अब फिर से गांव छोड़ना नहीं चाहें, क्योंकि उन्होंने सड़कों पर कई-कई दिनों तक तपती हुई दोपहर में जिंदगी और मौत की लड़ाई लड़ी है। साफ है, इनके दोबारा न लौटने से शहरों में कामगारों की कमी महसूस होगी, जिससे उत्पादन पर भी नकारात्मक असर पड़ेगा। हमारी अर्थव्यवस्था में रोबोट या ऑटोमेशन, या यूं कहें कि आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस की भूमिका बहुत सीमित है, इसलिए कामगारों पर उद्योगों की निर्भरता बनी हुई है। ऐसे में, इनका हमेशा के लिए पलायन चिंतनीय हो सकता है।
नीलम वर्मा,  अलीगंज, लखनऊ

प्रवासी सोचकर कदम बढ़ाएं
हर भारतीय का यह अधिकार है कि वह अपनी इच्छा के अनुसार कहीं भी जाकर अपने सपनों को पूरा करे। पलायन कोई आज की परिघटना नहीं है, पर क्या यह न्यायोचित है कि जब संकट विकराल हो, तो सावधानियों को ताक पर रखकर लोग ऐसा करें? भविष्य की चिंता, पैसे की तंगी, परिवार का भरण-पोषण, बीमारी का डर, अशिक्षा, राजनीति आदि कारणों से श्रमिक वर्ग ने पलायन का रास्ता चुना। वरना यह कैसे संभव है कि कोई इंसान वर्षों से जहां रह रहा हो, वहां सिर्फ एक संकट आने पर वह  पलायन की सोच ले। सड़कों पर उमड़ा जन-सैलाब संवेदनशील तबके का है। केवल स्थान बदलने से उनकी मुश्किलों का हल नहीं होगा, बल्कि गांव लौटने वाले लोग खतरा बढ़ाएंगे। इसलिए प्रवासियों को आगे कदम बढ़ाने से पहले यह सोचना चाहिए कि वे अपने साथ कितनी जान जोखिम में डाल रहे हैं? उन्हें थोड़ा इंतजार करना चाहिए, ताकि परिस्थिति बदलते ही वे अपने गंतव्य की ओर रवाना हो सकें। 
मृदुल कुमार शर्मा, गाजियाबाद

 

नई दिल्ली / शौर्यपथ / दुनिया भर में अलग-अलग क्षेत्रों से जुड़ी महिलाओं को सम्मान देने के लिहाज से हर साल 8 मार्च को अन्तरराष्ट्रीय महिला दिवस मनाया जाता है। इस खास अवसर पर खास महिलाओं को सम्मानित किया जाता है। ऐसे में आज आपको दो ऐसी बहनों के बारे में बता रहे है जिनकी सफलता पर आप गर्व करेंगे।
दरअसल, हरियाणा के सोनीपत की रहने वाली दो जुड़वा बहन नुंग्शी और ताशी मलिक ने माउंट एवरेस्ट पर फतह हाशिल कार विश्व रिकॉर्ड कायम किया, इन बनहनों ने पहली जुड़वा बहन, जिसने ऐवरेस्ट फतह किया का रिकॉर्ड अपने नाम किया है।

दोनों बहनों की सफलता पर हरियाणा के राज्यपाल कप्तान सिंह सोलंकी ने कहा था कि, इन दोनों ने न सिर्फ राज्य का बल्कि देश का नाम रौशन किया है और अन्य लड़कियों के लिए प्रेरणा का स्रोत भी बनी हैं। इन दोनों जुड़वा बहनों ने विश्व के सातों महाद्वीप के सबसे ऊंचे पर्वत शिखरों पर चढऩे के लक्ष्य के साथ माउंट एवरेस्ट पर तिरंगा फहराया है।

 

 

नुंग्शी और ताशी ने माऊंट एवरेस्ट के अलावा अब तक माऊंट किलिमानजारो, यूरोप में माउंट एलब्रस, दक्षिण अमेरिका में माऊंट एकोनकागुआ और आस्ट्रेलिया में माउंट कार्सटेन्स्ज पिरामिड पर भी फतह हाशिल किया है और अब भी अपनी सफता के पथ पर आगे बढ़ रही है।

आपको बता दें कि इन दोनों बहनों को अपने सफर के शुरुआती दौर में काफी संघर्ष का सामना किया। लेकिन इन बच्चियों को इनके पिता और परिवार से सहयोग मिला जिलका परिणाम है कि ये बेटियां आय दिन सफलता के नए झंडे गाड़ते हुए घर, परिवार और देश का नाम रोशन रही है।

ये दोनों बहने हॉकी और एथलेटिक्स की खिलाड़ी रह चुकी हैं, जिसके बाद ताशी-नुंग्शी ने पर्वतारोहण की शुरुआत साल 2009 में उत्तरकाशी स्थित नेहरू इंस्टीट्यूट ऑफ माउंटेनियरिंग में पर्वतारोहण के कोर्स के साथ किया।महिला दिवस के खास अवसर पर ऐसी सभी बेटियों और महिलाओं को शौर्यपथ परिवार  की ओर से खास बधाई, अपने पथ पर ऐसे ही बढ़ते रहिए...

   शौर्यपथ / चोरी करने से पहले चोर अपनी पहचान छुपाने के लिए नक़ाब आदि पहनते हैं. मगर अमेरिका में दो चोर एक दुकान में चोरी करने लिए ख़ास मास्क लगा कर पहुंचे. ये मास्क बना था तरबूज़ से, जी हां, तरबूज. इनकी तस्वीरें सीसीटीवी में कैद हो गई थीं, जिनमें वो फ़ोटो के लिए बड़े ही शान से पोज देते नज़र आ रहे थे.

ये पूरा मामला अमेरिका के Virginia राज्य का है. यहां दो चोर एक स्टोर में तरबूज़ का मास्क लगाकर चोरी करने गए थे. उनकी पहचान करने के लिए Louisa Police Department ने इनकी तस्वीरें सोशल मीडिया पर शेयर की थीं, जो देखते ही देखते वायरल हो गईं.

पुलिस के अनुसार, दोनों चोर तरबूज़ का मास्क लगाकर एक काले कलर के ट्रक में दुकान को लूटने आए थे. उन्होंने तरबूज़ के खोल को इस तरह पहना था कि उससे सिर्फ़ उनकी आंखें ही दिखाई दे रही थी. उन्हें ऐसे पहचानना मुश्किल था. 

ग़ौरतलब है कि पुलिस ने इन दोनों चोरों को पकड़ लिया है. उनकी असल तस्वीर किसी ने पुलिस को सोशल मीडिया की मदद से सेंड कर दी थी. इन तस्वीरों में वो दोनों वही कपड़े पहने हुए थे, बस उन्होंने तरबूज़ वाला मास्क नहीं लगा रखा था. इन्हें चोरी से कुछ समय पहले एक सीसीटीवी ने कैद किया था.

शौर्य की दुनिया / शख्सियत / 

गिरीश कर्नाड एक जाने-माने राइटर, एक्टर, डायरेक्टर और नाटककार थे. इसके साथ ही सामाजिक मुद्दों पर भी वो खुलकर अपनी राय दुनिया के सामने रखते थे. बाबरी मस्जिद को गिराने का विरोध करने से लेकर पीएम मोदी को सत्ता से बाहर रखने के लिए साइन किए पीटिशन तक में उनकी बेबाकी झलकती है. 

girish karnad
Source: theprint

उन्होंने हिंदी सिनेमा और थिएटर में भी ख़ूब काम किया. उनकी गिनती ऐसी शख़्सियतों में होती है जिन्होंने भारतीय थिएटर के लिए सबसे गंभीर नाटकीय लेखन की नींव रखी थी. गिरीश कर्नाड जी को लिखने का बहुत शौक़ था. साहित्य में रूची होने के चलते ही उन्होंने रंगमंच के लिए कई नाटक भी लिखे. 'ययाति', 'अंजु मल्लिगे', 'तुगलक', 'हयवदन', 'अग्निमतु माले', 'नागमंडल' ,'अग्नि और बरखा' जैसे नाटक उन्होंने लिखे थे. उनके इन नाटकों की दर्शकों ने ख़ूब प्रशंसा की थी.

 गिरीश कर्नाड जी को साहित्य अकादमी पुरस्कार, ज्ञानपीठ पुरस्कार, पद्मश्री और पद्म भूषण जैसे कई अवॉर्ड से भी सम्मानित किया गया था. उन्होंने 1970 में कन्नड़ फ़िल्म 'संस्कार' से अपने फ़िल्मी करियर की शुरुआत की थी. इसके बाद उन्होंने कन्नड़, तमिल, मलयालम, तेलुगू, मराठी और हिंदी फ़िल्मों में बेहतरीन अभिनय से दर्शकों का दिल जीता था.

उन्होंने 'निशांत', 'मंथन', 'पुकार', 'डोर', 'टाइगर ज़िंदा है', 'एक था टाइगर' जैसी हिंदी फ़िल्मों में काम किया था. गिरीशी जी ने छोटे पर्दे में भी अपना हाथ आज़माया था, इसमें 'मालगुड़ी डेज़' सबसे ख़ास है. इसमें उन्होंने शो के लीड कैरेक्टर स्वामी के पिता की भूमिका निभाई थी. लोग भले ही उन्हें फ़िल्में और थिएटर के लिए जानते हों मगर बचपन में वो एक कवि बनना चाहते थे. गिरीश कर्नाड ने अपने एक इंटरव्यू में इस बात का ख़ुलासा किया है.

कहते हैं- ’मेरे माता-पिता को नाटकों का शौक़ था. उनके साथ मैं भी नाटक देखने जाता था. यहीं से नाटकों ने मेरे मन में जगह बना ली थी. मैं बचपन से ही ‘यक्षगान’ का बहुत बड़ा फ़ैन रहा हूं. बचपन से ही मैं अंग्रेज़ी भाषा का कवि बनने का सपना देखता था. यहां तक कि जब मैं अपना पहला और सबसे प्रिय नाटक 'ययाति' लिख रहा था, तब नाटकों में रुचि होने के बावजूद मैंने नाटककार बनने का नहीं सोचा था.‘

उनकी आख़िरी हिंदी फ़िल्म 'टाइगर ज़िंदा है' थी. अपनी फ़िल्मों और नाटकों के ज़रिये वो सदा हमारे साथ रहेंगे.

   शौर्य की दुनिया / कुदरत ने फुर्सत के पलों में कई जीवों में जान फूंकी है. ज़रा अपने दायरे से बाहर निकल कर देखिए, दुनिया की हज़ारों ऐसी प्रजाती हैं जिन तक सिर्फ़ National Geographic या Discovery Channel वाले ही पहुंच सकते हैं. इन प्रजातियों का जिक्र किताबों में मिलना भी​ मुश्किल है. कुछ महासागर की गहराई में पाए जाते हैं, तो कुछ घने जंगलों के बीच बसे हैं. ऐसे ही दुर्लभ जीवों की सूची पेश है आपके लिए.

1. Okapi

ये जानवर ज़ेब्रा और जिराफ का मिश्रण है. ये मध्य अफ्रीका में पाया जाता है.

2. समुद्री सुअर या Sea Pig

Sea Pig को ज़्यादातर लोग Scotoplanes के नाम से भी जानते हैं. ये अटलांटिक, प्रशांत और हिंद महासागर की 1000 मीटर गहराई में पाए जाते हैं.

3. Shoebill

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इनकी चोंच जूते के आकार की होती है. इसी वजह से इनका नाम Shoebill पड़ा है.

4. Thorny Dragon

ये छिपकली आसानी से रेगिस्तान की मिट्टी में छिप जाती है. इसका एक नकली सिर होता है जिसे ये लोगों को धोखा देने के लिए निकालती है.

5. The Blue Parrotfish

ये नीली मछली अटलांटिक महासागर में पायी जाती है.

6. Indian Purple Frog

भारत में पाई जाने वाली मेंढ़कों की ये एक विचित्र प्रजाती है. इनका शरीर अजीब सा मोटा होता है. ये साल भर धरती के अंदर रहते हैं और संभोग के लिए सिर्फ़ दो हफ़्ते धरातल पर बिताते हैं.

7. The Saiga Antelope

ये साइगा हिरण अपनी अजीब नाक के लिए जाना जाता है.

8. The Bush Viper

ये सांप अफ्रीका के ट्रॉपिकल जंगलों में पाया जाता है और अपना ज़्यादातर शिकार रात के अंधेरे में करता है.

9. The Pacu Fish

इस मछली को Ball Cutter भी कहते हैं. इसके दांत कुछ-कुछ इंसानों जैसे होते हैं और ये अपने शिकार को काटने से चूकती नहीं हैं.

10. Glaucus Atlanticus

इसे ब्लू ड्रैगन भी कहते हैं. इसके पेट में गैस भरी होती जिसकी वजह से ये समुद्र के गुनगुने पानी की सतह पर तैरते दिखाई देते हैं.

11. Hummingbird Hawk-Moth

ये कीट फीलों के पराग खा कर जीवत रहते हैं और ​इनकी आवाज़ भी Hummingbird की तरह होती है.

12. Venezuelan Poodle Moth

ये पतंगा और मधुमक्खी जैसा दिखने वाला अजीब सा जीव साल 2009 में Venezuela में पाया गया था. इस जीव की कोई खास जानकारी नहीं है जीव वैज्ञानिकों के पास.

13. Umbonia Spinosa

ये कीड़े अपने चोंच से फूल के तने में छेद करके खाना खाते हैं. वैज्ञानिकों को इनके बारे में ज़्यादा जानकारी नहीं है.

14. Mantis Shrimp

इस जीव को Sea Locusts, Prawn Killer या Thumb Splitters भी कहते हैं. ये ट्रॉपिकल और सब-ट्रॉपिकल पानी में पाए जाते हैं. ये अधिक्तर वक्त अपने बिल में छिपे रहते हैं.

15. The Panda Ant

इन चीटों के शरीर पर सफेद और काले रोए होते हैं. जिसकी वजह से इन्हें Panda Ant कहते हैं. ये Chile में पाए जाते हैं और इनके रेशे काफी नोकीले होते हैं.

16. Penis Snake

इस जानवर को वास्तव में Atretochoana Eiselti कहते हैं. इसका अगला हिस्सा Penis जैसा दिखता है.ये एक चपटे सिर वाला बड़ा जीव है, जिसका शरीर काफी चिकना होता है.

17. Red-lipped Batfish

ये लाल होठों वाली मछली Galápagos Islands में पाई जाती है. ये मछली तैर नहीं पाती इसलिए समुद्री तल पर चलती है.

18. Goblin Shark

Goblin Shark लगभग पूरी दुनिया में पाई जाती है, पर समुद्री सतह के 100 मीटर की गहराई में. ये लोगों को कोई नुकसान नहीं पहुंचाती है.

 शौर्य की दुनिया / किसी बात की आदत होना गलत बात नहीं, लेकिन लत यानी एडिक्शन कई बार बहुत हानिकारक हो सकता है. दिल्ली में एक ऐसे ही हानिकारक एडिक्शन की बात पता चली है. दिल्ली के नजफगढ़ इलाके के रहने वाले सनी को एक ऐसे ड्रग की आदत लग गई थी जिसे घोड़ों को दिया जाता था. ये ऐसा ड्रग था जो परफॉर्मेंस बढ़ाता था और सनी को बॉडीबिल्डिंग का शौख था. धीरे-धीरे कर इंजेक्शन लेने लगे और इसके कारण ही अब उन्हें अस्पताल जाना पड़ा. वहां उनका इलाज हो रहा है.

एडिक्शन कई बार इतने अजीब हो जाते हैं कि बाकी सभी चीज़ें आम लगने लगती हैं. ये विक्स वेपोरब सूंघने या वीडियो गेम के दीवाने हो जाने जैसे एडिक्शन नहीं बल्कि कुछ तो इतने भयावह हैं कि उनके बारे में सोचकर ही डर लग जाए. दुनिया में ऐसे कई लोग हैं जो इतने अजीबो-गरीब एडिक्शन का शिकार हैं कि वो आम लोगों की तरह न जिंदगी जी सकते हैं और न ही अपने रोजमर्रा के काम कर सकते हैं.

1. कार के साथ सेक्स

एक इंसान जो कार के साथ सेक्शुअल रिलेशनशिप में है और उसी में अपना पार्टनर खोजता है. एरिजोना के निएंड्रिथल असल में Mechanophilia के मरीज हैं. इस बीमारी के मरीज मशीनों से खास तौर पर आकर्षित होते हैं और उनके साथ सेक्शुअल रिलेशनशिप भी रखते हैं.

2. तकिए का एडिक्शन

जोहानसबर्ग में रहने वाली टैमरा असल में अपने तकिए की एडिक्ट हैं. वो चाय पीने, खाना खाने, बाहर जाने, शॉपिंग करने हर काम के लिए अपने तकिए के साथ रहती हैं. उनके अनुसार उनके इस बॉन्ड को सिर्फ वही जान सकती हैं.

3. बिल्ली के बाल खाने वाली महिला

अमेरिका के मिशिगन राज्य के डेट्रॉइट शहर में रहने वाली लीज़ा की लत बेहद अजीब है. उन्हें अपनी बिल्ली के बाल खाना पसंद है. वो दिन में तीन हेयरबॉल (बालों का गुच्छा) खा लेती हैं और 20 साल से ये कर रही हैं. इतना ही नहीं वो अपनी बिल्ली के बाल उसी तरह से निकालती हैं जैसे जानवर एक दूसरे को जुबान से चाटते हैं.

बिल्ली के बाल खाती लीजाबिल्ली के बाल खाती लीजा

4. अपने पति की चिता की राख खाने वाली महिला

केसी के पति की मौत 2011 में हो गई थी और तब से लेकर अब तक वो अपने पति की मौत का दुख नहीं भुला पा रही हैं. वो एक बर्तन में अपने पति की राख संजो कर रखे हुए हैं और उन्हें उसे खाने का एडिक्शन है. वो अपनी उंगलियां बर्तन में डालती हैं. उनपर थोड़ी सी राख लग जाती है और फिर उसे चाट लेती हैं.

केसी अपने पति की राख हर रोज थोड़ी-थोड़ी कर खाती हैं.केसी अपने पति की राख हर रोज थोड़ी-थोड़ी कर खाती हैं.

5. हवा भरे हुए खिलौनो से प्यार

खिलौनों का प्यार अधिकतर बच्चों में पाया जाता है, लेकिन अगर कोई आपसे बोले कि एक आदमी अपने खिलौनो से इतना प्यार करे कि उनके साथ सेक्स भी करे तो? मार्क अपने 15 हवा भरने वाले खिलौनो के साथ रिलेशनशिप में हैं और वो नाहाने, सोने से लेकर दिन के हर काम को उन खिलौनो के साथ ही करते हैं.

6. शवों को सूंघने का एडिक्शन

लुइस स्क्वारिसी ब्राजीलियन नागरिक हैं. पिछले 35 सालों से वो एक अजीबोगरीब सनक के शिकार हैं. उन्हें शवों को सूंघना अच्छा लगता है और इस एडिक्शन के कारण वो कई बार अपनी नौकरी भी छोड़ चुके हैं. उन्हें शवों को सूंघना और लोगों की शवयात्रा में जाना बहुत पसंद है. 1983 में उनके पिता की मृत्यु हो गई थी और तब से ही वो ब्राजील के Batatais शहर की हर शवयात्रा में जाते हैं.

लुइस को अपनी नौकरी सिर्फ इस एडिक्शन के कारण छोड़नी पड़ी.लुइस को अपनी नौकरी सिर्फ इस एडिक्शन के कारण छोड़नी पड़ी.

7. इंसान और सुअर का खून पीने वाली महिला

कैलिफोर्निया की मिशेल असल मायने में वैंपायर की तरह हैं. उन्हें इंसान और सुअर का खून पीने की आदत है. पिछले 15 सालों में वो इतना खून पी चुकी हैं कि 23 बाथटब पूरे भर जाएं.

मिशेल ने धोखे से एक बार सुअर का खून पी लिया था और फिर उन्हें उसकी भी आदत लग गई.मिशेल ने धोखे से एक बार सुअर का खून पी लिया था और फिर उन्हें उसकी भी आदत लग गई.

8. घर की दीवारें खाने वाली महिला

किसी को ईंठ खाने का इतना शौख हो कि वो अपने घर की दीवारों पर ही छेद कर दे ऐसा सोचकर ही अजीब लगेगा. Patrice Benjamin-Ramgoolam असल में इतनी ही दीवानी हैं. उन्होंने 18 साल की उम्र से ही ये खाना शुरू किया और एक समय पर वो इतनी दीवानी हो गईं थीं कि उन्होंने अपने घर की दीवारों पर ही छेद कर दिया था.

9. सोफे और गद्दे खाने वाली महिला

अब ये एडिक्शन भी खाने से ही जुड़ा है. एक महिला सोफे और गद्दे के कुशन खाने की इतनी आदी है कि वो कई गद्दे और सोफे खा चुकी हैं.

10. टॉयलेट पेपर खाने का एडिक्शन

प्रेग्नेंसी में महिलाओं को अचार खाने का मन करता है, लेकिन ब्रिटेन की जेड सिल्वेस्टर को बेहद अजीब एडिक्शन होता है. जेड 5 बच्चों की मां हैं और प्रेग्नेंसी के वक्त वो टॉयलेट पेपर सूंघती हैं और खाती हैं. जेड एक दिन में प्रेग्नेंसी के दौरान पूरा एक रोल टॉयलेट पेपर खा जाती थीं.

जेड पांच बच्चों की मां हैं.

जेड पांच बच्चों की मां हैं.

साभार ( एजेंसी )

 

    शौर्यपथ / राजतंत्र के जमाने में नेपाल में एक तंजतारी चलती थी, ‘मुखे कानून छ’ यानी जो मुंह से निकल गया, वही कानून है। 28 मई, 2008 को राजशाही खत्म कर नेपाल में लोकशाही की घोषणा कर दी गई, मगर शासन का ढब वहां बदला नहीं। विगत बुधवार को सर्वदलीय बैठक में प्रधानमंत्री केपी शर्मा ओली ने बयान दिया था कि नेपाल भी नक्शा जारी करेगा। उनके इस बयान के पांच दिन बाद सोमवार को नए नेपाल का राजनीतिक नक्शा मंत्रिपरिषद ने जारी भी कर दिया। जो काम पिछले 26 साल में नहीं हो सका था, प्रधानमंत्री ओली ने पांच दिन में कर दिया? 
इस नए राजनीतिक नक्शे में लिंपियाधुरा, लिपुलेख और कालापानी से लगे भारतीय इलाकों को भी नेपाल का हिस्सा बता दिया गया है। नए नक्शे में गुंजी, नाभी और कुटी जैसे गांवों को भी नेपाली इलाके में दिखाया गया है। यह दीगर है कि 1975 में नेपाल ने जो नक्शा जारी किया था, उसमें लिंपियाधुरा के 335 वर्ग किलोमीटर क्षेत्र नहीं दर्शाए गए थे। मंगलवार 19 मई, 2020 से यह नेपाली संविधान की अनुसूची, सरकारी निशान और उसके पाठ्यक्रम का हिस्सा हो गया। सवाल यह है कि क्या इस नए नक्शे को हेग स्थित ‘आईसीजे’ या दुनिया की कोई भी न्यायपालिका मान लेगी? 
ब्रिटिश भारत में 1798 से लेकर 1947 तक जो नक्शे समय-समय पर जारी किए गए, उन पर नेपाल को कोई आपत्ति नहीं थी। प्रोफेसर लोकराज बराल 1996 में नई दिल्ली में नेपाल के राजदूत रह चुके थे। पिछले हफ्ते एक बातचीत में उन्होंने माना कि नेपाल उस दौर में भी ब्रिटिश इंडिया के नक्शे पर आश्रित था। भारत-नेपाल संयुक्त प्राविधिक समिति ने 26 वर्षों का समय लगाकर 182 स्ट्रीप मैप के साथ 98 प्रतिशत रेखांकन का कार्य संपन्न किया है। इसमें दो फीसदी कार्य कई वर्षों से बाकी है। इस पर भारतीय पक्ष की मुहर भी नहीं लगी है। नया विवाद 2 नवंबर, 2019 को शुरू हुआ, जब भारत ने कश्मीर-लद्दाख को लेकर नक्शा पुनर्प्रकाशित किया था। उसमें पड़ोसी मुल्कों को बांटती सीमाओं में कोई रद्दो-बदल नहीं हुआ था, पर भारतीय विदेश मंत्रालय के स्पष्टीकरण के बावजूद नेपाल मानने को तैयार नहीं था। वह विदेश सचिव स्तर पर इसे सुलझाना चाहता था। 
नए विदेश सचिव हर्षवद्र्धन शृंखला 29 जनवरी, 2020 को चार्ज लेने के साथ नेपाल से इस विषय पर संवाद करते, यह संभव नहीं था। उसके अगले पखवाडे़ इसकी तैयारी हो, तब तक कोरोना महामारी प्रारंभ हो चुकी थी। प्रश्न यह है कि यदि लिपुलेख मुद्दा ओली सरकार के लिए इतना ही महत्वपूर्ण था, तो 28 मार्च, 2019 को विदेश सचिव स्तर की बैठक में इसे शामिल क्यों नहीं किया गया? काठमांडू में आहूत उस बैठक में तत्कालीन भारतीय विदेश सचिव विजय कृष्ण गोखले व उनके नेपाली समकक्ष शंकरलाल वैरागी क्रॉस बॉर्डर रेलवे, मोतिहारी-अमलेखगंज तेल पाइपलाइन व अरुण-तीन जल विद्युत परियोजना पर सहमति बना रहे थे। 
दो-तीन बातें ध्यान में रखने की हैं। 1962 में युद्ध के समय से ही यहां पर इंडो-तिब्बतन फोर्स की तैनाती भारत ने कर रखी है। नेपाल इसे हटाने की मांग कई बार कर चुका है। कायदे से नेपाल को ऐसा कोई पत्र दिखाना चाहिए, जिसमें तत्कालीन भारत सरकार ने लिपुलेख ट्राइजंक्शन पर इंडो-तिब्बतन फोर्स की तैनाती का कोई अनुरोध किया था। सितंबर 1961 में जब कालापानी विवाद उठा था, उससे काफी पहले 29 अप्रैल, 1954 को भारत-चीन के बीच शिप्ला-लिपुलेख दर्रे के रास्ते व्यापार समझौता हो चुका था। सन 1954 से लेकर 2015 तक चीन ने कभी नहीं माना कि लिपुलेख वाले हिस्से में, जहां से उसे भारत से व्यापार करना था, नेपाल भी एक पार्टी है या यह ‘ट्राइजंक्शन’ है। 2002 में एक ज्वॉइंट टेक्नीकल कमेटी भी बनी। उन दिनों नेपाल की कोशिश थी कि चीन को इसमें शामिल करें। चीनी विदेश मंत्रालय ने 10 मई, 2005 को एक प्रेस रिलीज द्वारा स्पष्ट किया कि कालापानी भारत और नेपाल के बीच का मामला है, इसे इन दोनों को ही सुलझाना है। 
नेपाल, 1950 की संधि को भी ध्यान से नहीं देखता है। 31 जुलाई, 1950 को हुई भारत-नेपाल संधि के अनुच्छेद आठ में स्पष्ट कहा गया है कि इससे पहले ब्रिटिश इंडिया के साथ जितने भी समझौते हुए, उन्हें रद्द माना जाए। यह एक ऐसा महत्वपूर्ण बिंदु है, जो कालापानी के नेपाली दावों पर पानी फेर देता है। दरअसल, ओली सरकार कालापानी-लिपुलेख विवाद में फंसी हुई है। स्वयं सरकार के मंत्रियों को नहीं मालूम कि जिस सड़क का उद्घाटन 8 मई, 2020 को विडियो कान्फ्रेंसिंग के जरिए भारतीय रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह ने किया है, वह सड़क कब से बननी शुरू हुई थी। 
विदेश मंत्री प्रदीप ज्ञावाली कहते हैं, ‘भारत, लिपुलेख में 2012 से सड़क बना रहा था, यह मीडिया रिपोर्ट से मुझे मालूम हुआ।’ यह कुछ अजीब नहीं लगता कि जो विवादित इलाका नेपाल की राजनीति का ‘एपीसेंटर’ बना हुआ है, वहां की जमीनी गतिविधियों से ओली और ज्ञावाली अनभिज्ञ थे? पुराने टेंडर  व दस्तावेज बताते हैं कि शिप्किला-लिपुलेख दर्रे को जोड़ने वाली 75 किलोमीटर दुर्गम सड़क 2002 से निर्माणाधीन थी। यह परियोजना 2007 में ही पूरी हो जानी थी, जो बढ़ते-बढ़ते 2020 में पहुंच गई। 
सोचने वाली बात है कि प्रधानमंत्री ओली इस पूरे मामले को राष्ट्रीय अस्मिता की ओर क्यों धकेल रहे हैं? सर्वदलीय बैठक में पूर्व प्रधानमंत्री व जनता समाजवादी पार्टी के नेता बाबुराम भट्टराई ने यूं ही नहीं कहा था कि राष्ट्रवाद का भौकाल खड़ा करने की बजाय सरकार पुराने दस्तावेजों को जुटाए और कालक्रम को व्यवस्थित करे, तभी इस लड़ाई को वह अंतरराष्ट्रीय फोरम पर ले जा सकेगी। 
परिस्थितियां बता रही हैं कि लिपुलेख विवाद में पीएम ओली ने जान-बूझकर पेट्रोल डाला है। कालापानी के छांगरू गांव में नेपाली अद्र्धसैनिक बल, आम्र्ड पुलिस फोर्स (एपीएफ) की तैनाती ओली का खुद का फैसला था। उसके बारे में बुधवार को हुई सर्वदलीय बैठक में चर्चा तक नहीं हुई थी। ओली चाहते हैं कि सीमा पर तनाव बढ़े, ताकि देश का ध्यान उधर ही उलझा रहे। 29 मई, 2020 को बजट प्रस्ताव के बाद ओली पद पर रहें न रहें, कहना मुश्किल है। 44 सदस्यीय स्टैंडिंग कमेटी में प्रधानमंत्री ओली के पक्ष में केवल 14 सदस्य हैं। प्रचंड गुट के 17 और माधव नेपाल के 13 सदस्य मिलकर कोई नया गुल खिलाने का मन बना चुके हैं। 
(ये लेखक के अपने विचार हैं)

    दुर्ग / शौर्यपथ / दुर्ग सीमा पर पहुंचने वाले श्रमिकों को किसी तरह की दिक्कत न हो, इसका पूरा ध्यान प्रशासन द्वारा रखा जा रहा है। यहां से राजनांदगांव बार्डर में श्रमिकों को उनके गंतव्य तक ले जाने के लिए 40 बसें निरंतर आपरेट कर रही हैं। इसके अलावा जो लोग जिले की सरहद से प्रवेश कर रहे हैं उन्हें संबंधित गांवों के क्वारंटीन केंद्रों तक पहुंचाने के लिए चेकपोस्ट में पांच बसें उपलब्ध कराई गई हैं। ट्रेनों के माध्यम से पहुंचने वाले लोगों को क्वारंटीन केंद्रों तक पहुंचाने के लिए भी पृथक से बसों की व्यवस्था की गई है। सभी चेकपोस्ट में स्वास्थ्य परीक्षण करने के लिए स्वास्थ्य अमला मौजूद है। ट्रेनों के माध्यम से आने वाले लोगों के लिए स्वास्थ्य जांच स्टेशन में ही कराया जा रहा है। इसके पश्चात उन्हें भोजन पैकेट उपलब्ध कराये जा रहे हैं।
अब तक बाहर से आने वाले श्रमिकों एवं ग्रामीणों के लिए क्वारंटीन सेंटर बनाये गए हैं जिनमें अभी तक 2125 ग्रामीण क्वारंटीन किये गए हैं। इनके भोजन-पानी की एवं अन्य बुनियादी सुविधाएं स्थानीय अमले द्वारा उपलब्ध कराई गई है। यहां हेल्थ टीम भी मौजूद रहती है जो लगातार क्वारंटीन में रह रहे लोगों के स्वास्थ्य की मानिटरिंग करती है। कलेक्टर श्री अंकित आनंद एवं जिला पंचायत सीईओ श्री कुंदन कुमार ने तीनों ब्लाकों के क्वारंटीन केंद्रों की स्थिति जानी। उन्होंने चेकपोस्ट पर भी स्थिति जानी। यहां धमधा नाका के पास बेमेतरा के अधिकतर प्रवासी श्रमिक थे। हर आधे घंटे में बसों का फेरा लगाकर लगभग तीन हजार लोगों को उनके जिले तक छोड़ा गया। इसके अलावा अन्य पड़ोसी जिलों में भी श्रमिकों को छोडऩे के लिए वाहनों की व्यवस्था की गई।

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