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जीना इसी का नाम है /शौर्यपथ / वह जिस देश और समाज से आती हैं, वहां बेटे और बेटियों में भले कभी फर्क रहा हो, मगर आज वह दुनिया के सबसे तरक्कीपसंद समाजों में से एक है। अमेरिका की न्यू जर्सी प्रांत में पैदा मैरी रॉबिन्सन की परवरिश एक खुले माहौल में हुई। अपने पापा की बेहद दुलारी रहीं मैरी। उनका परिवार एक अच्छी और खुशहाल जिंदगी जी रहा था। मगर जिंदगी तो सबका इम्तिहान लेती है, सो मैरी के लिए भी उसने कुछ आजमाइशें तय कर रखी थीं।
आज से करीब 46 साल पहले की बात है। तब मैरी की उम्र सिर्फ 14 साल थी। एक रोज उन्हें पता चला कि पिता कैंसर के आखिरी स्टेज पर हैं। और मैरी कुछ समझ पातीं, इसके पहले ही पिता चल बसे। उनके जनाजे में पूरे रास्ते मैरी अपने भाई को पकडे़ खामोश चलती रहीं। उन्हें यह यकीन ही नहीं हो पा रहा था कि डैड अब कभी उनसे बातें नहीं कर सकेंगे। मैरी को गहरा मानसिक आघात लगा था, लेकिन कोई भी उनकी और उनके भाई की जहनी कैफीयत को समझने वाला नहीं था।
मैरी खुद में सिमटती चली गईं। उन्होंने दोस्तों के साथ बाहर खेलने जाना बंद कर दिया, पढ़ाई से भी मन उचट गया, जाहिर है, उनके ग्रेड गिरने लगे थे, वह बात-बात पर झल्ला उठती थीं। मैरी के भाई के व्यवहार में भी काफी बदलाव आ गया था। उन दोनों को उस वक्त किसी ऐसे परिजन या बडे़ स्नेही की जरूरत थी, जो उनके मर्म को छू पाता।इसके उलट उन्हें बिगडे़ बच्चे के रूप में देखा जाने लगा। मैरी कहती हैं, ‘मैं बुरी नहीं, उदास बच्ची थी।’
करीब छह वर्षों तक अपनी पीड़़ा और उदासी से मैरी रॉबिन्सन अकेले ही जूझती रहीं। फिर वह दुखी और अनाथ बच्चों की सहायता करने वाले एक समूह से बतौर वॉलंटियर जुड़ गईं। वहां बच्चों की मदद करके मैरी को काफी सुकून मिलता। फिर उन्होंने एक बड़ा फैसला किया और करीब दो दशक पहले अपनी नौकरी छोड़ दी, ताकि वह गमगीन बच्चों को अपना पूरा वक्त दे सकें। मैरी यह अच्छी तरह जान चुकी थीं कि जब किसी मासूम के मां-बाप, भाई-बहन में से किसी की मौत हो जाती है, तो उसे कितना गहरा सदमा पहुंचता है, इसलिए वह नहीं चाहती थीं कि कोई बच्चा या किशोर-किशोरी वर्षों तक शोक की हालत में रहे।
एक अध्ययन के मुताबिक, अमेरिका में लगभग पचास लाख बच्चे 18 साल से पहले अपने माता-पिता, भाई-बहन में से किसी न किसी प्रियजन को खो देते हैं। और ऐसे बच्चों के अवसाद-ग्रस्त होने, अपना आत्म-विश्वास खो देने या पढ़ाई में पिछड़ जाने का जोखिम सबसे ज्यादा होता है। इन्हीं सबको देखते हुए साल 2011 में मैरी ने एक गैर-लाभकारी संगठन ‘इमैजिंग, अ सेंटर फॉर कोपिंग विद लॉस’ की नींव रखी। इसके जरिए वह किसी अजीज परिजन की मौत के गम से डूबे बच्चों की सहायता करने में जुट गईं।
बच्चों की मदद करने का मैरी का तरीका काफी अनूठा है। इसकी शुरुआत वह एक पिज्जा पार्टी से करती हैं। इससे सबको आपस में घुलने-मिलने का मौका मिलता है और फिर बच्चों के परिवार के सदस्य और संस्था के वॉलंटियर एक घेरा बनाते हैं और एक ‘टॉकिंग स्टिक’ आपस में पास करते हैं। फिर जिसकी बारी आती है, वह अपनी दास्तान सुनाता है कि उसने अपने किस अजीज परिवारी-जन को खोया है। मैरी का मानना है कि शोक से बाहर निकालने में उस व्यक्ति का जिक्र बहुत अहम रोल निभाता है, जो हमसे हमेशा के लिए बिछड़ा है।
बच्चों को लगता है कि हरेक व्यक्ति ने अपने किसी न किसी प्रिय जन को खोया है और यही एहसास असरकारी दवा का काम करता है। मैरी के मुताबिक, हरेक बच्चा, बल्कि किशोर भी, अपने दिवंगत प्रिय के किसी चुटीले वाकये या उनकी जिंदगी की किसी यादगार घटना के बारे में बार-बार सुनना चाहता है। कभी उसकी आंखों से, तो कभी गहरी सांसों के साथ भीतर की पीड़ा पिघलकर बाहर आ जाती है। उम्र के हिसाब से शोकाकुल बच्चों को अलग-अलग समूहों में बांटा जाता है। संगठन के स्वयंसेवी उन्हें मेमोरी बॉक्स जैसी गतिविधियों के जरिए अपनी भावनाएं साझा करने के लिए प्रोत्साहित करते हैं। बच्चे मानो ज्वालामुखी की तरह अपने भीतर के सारे दुख, आक्रोश को बाहर फेंककर शांत हो जाते हैं। मैरी कहती हैं, ‘शोक तो जिंदगी का अटूट हिस्सा है, मगर हमारे बच्चों को कोई नहीं बताता कि वे इससे कैसे उबरें?
इमैजिंग में आने वाले बच्चे जब अपनी मानसिक वेदना से मुक्त होकर अपने दिवंगत परिजन को याद करते हैं, तो मैरी को लगता है कि उनके पिता जहां भी होंगे, जरूर खुश होंगे कि उनकी बेटी ने कुछ अच्छा किया है। उन्होंने अब तक सैकड़ों मासूमों को गहरे शोक से उबारा है। इतना ही नहीं, मैरी अब घूम-घूमकर देश-दुनिया के स्कूलों में शिक्षकों को प्रशिक्षण देती हैं कि शोकाकुल बच्चों के प्रति उनका आचरण कैसा होना चाहिए। इस नेक काम के लिए सीएनएन ने मैरी रॉबिन्सन को पिछले साल ‘हीरो ऑफ द ईयर’ के लिए नामित किया था।
प्रस्तुति : चंद्रकांत सिंह मैरी रॉबिन्सन अमेरिकी सामाजिक कार्यकर्ता
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