May 09, 2025
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शौर्यपथ

शौर्यपथ

            मनोरंजन / शौर्यपथ/ सैफ अली खान और अमृता सिंह की बेटी सारा अली खान ने अभी तक 3 फिल्में की हैं और 3 फिल्मों से ही उन्होंने फैन्स के दिल में खास जगह बना ली है। बता दें कि सारा हर मुद्दे पर खुलकर बात करती हैं। कुछ दिनों पहले एक इंटरव्यू के दौरान अपने मम्मी-पापा के रिलेशन और पिता सैफ के साथ अपनी बॉन्डिंग पर बात की थी। सारा का यह इंटरव्यू सोशल मीडिया पर वायरल हो रहा है।

सारा ने अमृता और सैफ के बारे में कहा था, 'एक घर में एक दूसरे से नाखुश होकर रहने से अच्छा है कि आप अलग हो जाएं'। सारा ने कहा था कि तलाक के बाद दोनों अपनी-अपनी लाइफ में खुश हैं।

सारा से जब पूछा गया कि वह अपने पिता के साथ क्यों नहीं रहती हैं तो उन्होंने कहा था, 'मेरी मां ने मुझे बचपन से पाला है। इब्राहिम के होने के बाद से उन्होंने अपना पूरा समय हम दोनों को दे दिया था। मुझे किसी चीज की कोई कमी नहीं है। जब हम पापा से मिलते हैं तो उनके साथ भी अच्छा टाइम स्पेंड करते हैं।'

सारा ने कहा था, 'भले ही हम पापा के साथ नहीं रहते, लेकिन वह हमारी बहुत केयर करते हैं। ऐसा लगता ही नहीं कि वह हमसे दूर रहते हैं। एक फोन कॉल और वह हमारे पास होते हैं।'


बता दें कि एक इंटरव्यू में सारा ने सैफ और तैमूर की बॉन्डिंग को लेकर कहा था, 'अच्छा लगता है जब पापा तैमूर के साथ एंजॉय करते हैं। तैमूर के साथ वह फादरहुड अच्छे से एंजॉय करते हैं। तैमूर उनकी लाइफ में खुशियां लेकर आया है।'

 

          मनोरंजन/ शौर्यपथ / रामायण में लक्ष्मण का किरदार निभा चुके सुनील लहरी इन दिनों सोशल मीडिया पर काफी एक्टिव रहते हैं। वह रामायण की शूटिंग के वक्त के कुछ मजेदार किस्से फैन्स से शेयर करते रहते हैं। अब सुनील ने उस सीन के बारे में बताया जिसमें हनुमान जी, श्रीराम और लक्ष्मण को कंधे पर बिठाकर ले जाते हैं।

सुनील ने बताया कि उस सीन को नीले पर्दे, नीले टेबल और एक रैंप की मदद से शूट किया था। सुनील ने कहा, जब हनुमान जी, राम और लक्ष्मण को कंधे पर बिठाकर ले जाते हैं, उस सीन को शूट करना बहुत ही ट्रिकी और टेक्निकल था। हमें उसके लिए स्पेशल इफेक्ट्स की जरूरत थी। उस वक्त स्पेशल इफेक्ट्स के लिए जो साधन था वो सिर्फ क्रोमा था। क्रोमा के लिए ब्लू कलर के 2 स्टूल लगाए गए और फिर उन्हें ब्लू कलर के कपड़े से ही कवर किया। बैकग्राउंड भी पूरा ब्लू कर दिया गया था।

सुनील ने कहा, 'हनुमान जी के जो हाथ थे, जिस पर चढ़कर हमें जाना था। उसके लिए रैंप जैसा बनाया गया। रैंप पर चढ़कर हम चढ़ रहे थे तो ऐसा लगता था जैसे हनुमान जी के हाथ के ऊपर ही चढ़कर जा रहे हैं। हनुमान जी के हाथ में एक कड़ा भी था और सीन के मुताबिक हमें उसे पार करना था और वह हमारे मुकाबले बहुत बड़ा दिखना था। तो हमें यह सब इमेजिन करके चलना था।'

सुनील ने आगे बताया, जब हम दोनों हनुमान जी के कंधे पर बैठे होते हैं तो हमें समझ ही नहीं आ रहा था कि क्या हो रहा है और आगे क्या करना है। हम वही कर रहे थे जो रामानंद सागर साहब हमें कह रहे थे। वह कहते कि हनुमान जी की तरफ देखो तो हम उनकी तरफ देखते। लेकिन जब रिजल्ट देखा तो बहुत अच्छा लगा।'

 

        मेरी कहानी / शौर्यपथ / तब मनोरंजन के चंद मौके मिलते थे। या तो कोई संगीत-नाट्य की छोटी-बड़ी मंडली इलाके से गुजरती थी या फिर स्थानीय मेले में डेरा डाल धूम मचाती थी। मेले का कोलाहल सबको खींच लाता और वह लड़का भी चला आता था। उसके दिलो-दिमाग पर संगीत का जुनून सवार था। सब मेले से लौटते, तो सामान, पकवान की चर्चा करते, पर यह लड़का संगीत में डूबा लौटता। मेला धीरे-धीरे पीछे छूटता जाता, कान उसकी आवाजों से दूर निकल आते, लेकिन दिल में संगीत बजता रहता और रूह तबले की थाप-ताल पर सिमट आती थी। ज्यादातर मंडलियां कहरवे में रहती थीं। लगभग आधे गाने तबले की इस ताल पर सजते थे- धा गे न ति न क धि ना, धा गे न...। और कुछ गीत दादरे में खिलते थे- धा धि ना धा ति ना, धा धि ना...। कभी आधे गले से, तो कभी पूरे गले से गीत गूंजते, लेकिन उस लड़के के मन में सिर्फ तबला रह जाता था। ताल से ताल तक का सिलसिला ऐसे बना रहता, मानो सांसों का सिलसिला।
जम्मू-कश्मीर के सांबा जिले के घगवाल गांव में संगीत सुनने का शौक तो बहुतों को था, पर कोई भी उस लड़के जैसा जुनूनी चहेता नहीं हुआ था। गरीब परिवार में खूब सदस्य थे। हर मां-बाप के कुछ सपने होते हैं, तो उस लड़के के भी मां-बाप का सपना था, बेटा कुछ बड़ा होकर सेना में बहाल हो जाए। एक तरफ मां-बाप का सपना और दूसरी ओर तबला। सपना हावी होता, तो तबला गोल होता नजर आता। तबला हावी होता, तो सपना देखने वाले नाराज हो जाते। महज 12-13 की उम्र थी, पर समझ में आ गई थी कि तबला ताल में मुकम्मल बज गया, तो सपना देखने वाले भी नरम पड़ जाएंगे। यह भी तय था कि तबला छोड़ो, तो अपना दिल तोड़ो। छोटी उम्र में ही उसके दिमाग में जिरह-दलील के दौर चलते। गांव में ही किसी तरह तबले से संगत शुरू हुई, पर पूरा सीखना था।
लड़के ने सुन रखा था कि पंजाबी घराने के कोई नामी उस्ताद हैं लाहौर में, मियां कादिर बक्श। क्यों न उन्हीं से सीखा जाए? उस लड़के को सपने में एक संतनुमा शख्स बार-बार दिखते थे। एक बार उस्ताद कादिर बक्श की छपी हुई तस्वीर पर नजर गई, तो अचंभा हुआ कि यह तो वही शख्स हैं, जो सपने में दिखते हैं। दिल ने तय कर लिया, उस्ताद हो, तो ऐसा हो और दिमाग ने तैयारी शुरू कर दी। फिर वह दिन भी आ गया, जब ताल दिलो-दिमाग में बहुत गूंजने लगे - धा गे न ति न क धि ना, धा गे ना... और वह लड़का घर से भाग निकला। खाली हाथ, दिलो-दिमाग में सिर्फ तबले और ताल के साथ। गांव घगवाल से भागकर 100 किलोमीटर दूर गुरुदासपुर पहुंचा, वहां एक रिश्तेदार के यहां ठहरना हुआ। दिल के अरमान ने फरमान सुना दिया कि गांव नहीं लौटना, यहीं तबला सीखना है। वहां के स्थानीय उस्तादों से सीखना शुरू हुआ। गुरुदासपुर से लाहौर 110 किलोमीटर के आसपास था, लेकिन दिल में शक था कि मियां कादिर बक्श बहुत बडे़ उस्ताद हैं, जल्दी किसी को शागिर्द नहीं बनाते हैं। अत: पहले जरूरी है कि कुछ सीख लिया जाए और तब उस्ताद के दर पर दस्तक दी जाए। सीखते-सीखते दो साल बीत गए, कुछ लड़कों को कुछ-कुछ सिखाना भी शुरू कर दिया, लेकिन असली मंजिल तो लाहौर में बसे उस्ताद थे। एक दिन वह भी आया, जब एक मेले में बजाने का मौका मिला। वहां उस 15 साल के लड़के ने सतरह मात्राओं के कठिन ताल को तीन खंडों में बजा दिया। खुशनसीबी यह कि सुनने वालों में मियां कादिर बक्श भी तशरीफ लाए थे। उन्हें अच्छा लगा, तो उन्होंने पूछा, ‘तुम किसके शागिर्द हो?’ जवाब मिला, ‘आपका’।
‘लेकिन मैंने तो तुम्हें कभी नहीं देखा?’
बहुत नरमी से उस लड़के ने कहा, ‘मैंने आपको देखा है, आपने ही मेरे हाथ तबले पर रखे हैं’। उस्ताद मुस्कराए, ‘सीखो, लेकिन ढंग से।’ जवाब में वह लड़का बिल्कुल बिछ गया, ‘नाचीज आपके कदमों में है।’
हजारों शागिर्दों वाले उस्ताद सख्ती से सिखाते थे, आठ घंटे से बारह घंटे तक रियाज कराते। बनियान, लूंगी का पसीने से तर होना रोज की बात थी। गुजारे और उस्ताद को पैसे देने के लिए एक ढाबे में तपना-खटना पड़ता था। तपस्या का यह दौर पांच साल चला और संगीत की दुनिया में एक ऐसे बेमिसाल उस्ताद तैयार हुए, जिन्हें दुनिया अल्ला रक्खा खां के नाम से बहुत याद करती है। वह घर से भागे तो, पर संगीत, हुनर, प्यार, इल्म व इंसानियत के दूत बन गए। ऑल इंडिया रेडियो से लेकर फिल्मों में संगीत देने तक और पंडित रविशंकर के साथ दुनिया को भारतीय संगीत का रसास्वादन कराने तक, उनके थाप और ठेके हमेशा राह दिखाएंगे। तीन ताल, चार ताल या झप ताल- धी ना धी धी ना ती ना धी धी ना...।
प्रस्तुति : ज्ञानेश उपाध्याय
अल्ला रक्खा खां मशहूर तबलावादक

 

       जीना इसी का नाम / शौर्यपथ /कोई मां अपनी ग्यारह साल की बेटी को मजदूरी करने के वास्ते साथ चलने को कहे, तो उसे कैसा लगा होगा? मां को भी और उस मासूम को भी? मगर कहना पड़ता है। दुनिया की बहुत सारी माओं को उनकी किस्मत इस आजमाइश में डालती रही है। ढाका की एक बेहद गरीब बस्ती में पैदा हुई नजमा को जब उनकी मां ने अपने साथ गारमेंट फैक्टरी चलने को कहा, तब उन्हें बहुत दुख हुआ था, मगर उनके पास तो इसरार करने का भी विकल्प न था।
घर से फैक्टरी के रास्ते में नजमा जब अपनी हमउम्र बच्चियों को स्कूल जाते या खेलते देखतीं, तो उनका बालमन उदास हो जाता, मगर ऐसी तमाम हसरतें घर की दहलीज पर पहुंच दम तोड़ देतीं, क्योंकि अंदर एक बड़ा कुनबा इस इंतजार में होता कि मां-बेटी बाजार से कुछ सौदा लेकर आई हैं या नहीं? दादी-नानी और छोटे भाई-बहनों की आंखें उन दोनों पर ही टिकी होती थीं, क्योंकि नजमा के पिता की कमाई इतनी भी न थी कि वह सबका पेट भर पाते।
वर्षों के संघर्ष ने जिंदगी से शिकायतों का जैसे पन्ना ही फाड़ दिया। घरवालों को अभावों से कुछ राहत मिले, इसकी एक ही सूरत थी कि घर में पैसे आएं और इसके लिए नजमा ने दिल लगाकर काम सीखा। फिर वह लंबे-लंबे वक्त तक काम करने लगीं। किसी-किसी दिन तो चौदह घंटे तक सिलाई करती रह जातीं। मगर हासिल क्या होता? पगार में देरी, किसी न किसी बहाने उसमें कटौती, बल्कि कई बार तो बेवजह ही कम भुगतान किया जाता और सुपरवाइजरों, मालिकों के हाथों बेइज्जती सहनी पड़ती थी।
नजमा के भीतर इस शोषण और नाइंसाफी के खिलाफ गुस्सा गहराता रहा। फिर एक मोड़ आया, जब उन्होंने कुछ महिला कामगारों के साथ मिलकर इस सबका मुखर विरोध किया। जाहिर है, फैक्टरी प्रबंधन को यह नागवार गुजरा और उन्हें नौकरी से निकाल दिया गया। यही नहीं, नजमा का नाम काली सूची में डाल दिया गया, ताकि उन्हें फिर कभी काम पर नहीं रखा जा सके।
औरत की बगावत सामंती समाजों को हजम नहीं होती। फिर नजमा तो जिस फैक्टरी में काम करती थीं, वह एक स्थानीय बाहुबली की थी। वह अक्सर अपने कामगारों को डराता-धमकाता रहता। लेकिन इस बार सामने नजमा थीं। बदलाव के संकल्प से भरी एक युवती। फिर उनकी मांग भी कुछ ऐसी थी, जो ज्यादातर कामगारों को अपील कर रही थी। दरअसल, बांग्लादेश में रेडीमेड वस्त्र बनाने वाली फैक्टरियों में ज्यादातर औरतें काम करती हैं। बकौल नजमा इस क्षेत्र के कामगारों में महिलाओं की भागीदारी 80 प्रतिशत से भी ज्यादा है। फिर भी उनके साथ अच्छा सुलूक नहीं होता था।
नजमा की उम्र तब 27-28 साल रही होगी। उन्होंने कई मजदूर संघों से संपर्क किया। कुछ के लिए तो बाद में काम भी किया, मगर वे सब किसी न किसी सियासी जमात के हित-पोषक ज्यादा थे। इन मजदूर संगठनों में भी औरतों के अधिकारों को लेकर नजमा को दोहरापन महसूस हुआ। तब उन्होंने कुछ साथी कामगारों के साथ मिलकर अपना संगठन बनाने का फैसला किया। नाम रखा- ‘सम्मिलतो गारमेंट्स श्रमिक फेडरेशन।’ आज सत्तर हजार से अधिक महिला कामगार इसकी सदस्य हैं। नजमा ने इसके जरिए महिला कामगारों को समान तनख्वाह, फैक्टरियों के निर्णायक बोर्ड में उनकी नुमाइंदगी और उनके खिलाफ यौन हिंसा समेत हर तरह के दुव्र्यवहार पर रोक की मांग जोरदार तरीके से उठाई।
लड़ाई आसान न थी। नजमा ने एक जमे-जमाए सिस्टम को चुनौती दी थी। उन्हें जान से मारने की धमकियां दी जाने लगीं। जब नजमा इससे नहीं डरीं, तो फिर जैसा कि अक्सर महिलाओं के मामले में होता है, उनके चरित्र पर कीचड़ उछाला जाने लगा। बिरादरी में उनके बारे में तरह-तरह की अफवाहें उड़ाई गईं।
मेहनतकश लोगों को रोटी से कुछ कम अजीज अपनी आबरू नहीं होती। नजमा पर उनके बाबा और चाचा का दबाव पड़ने लगा कि वह इस सबमें और मुब्तला न हों। मगर उन्होंने अपने घर वालों को समझाया कि अगर वह झुक गईं, तो यह न सिर्फ अपने खिलाफ जारी दुष्प्रचार को सही ठहराना होगा, बल्कि उनके ऐसा करने से अनेक साथियों की उम्मीदें भी टूट जाएंगी। नजमा ने अपना संघर्ष जारी रखा। समूचे रेडीमेड गारमेंट सेक्टर के मजदूरों को उनका अधिकार दिलाने के इरादे से साल 2003 में नजमा ने आवाज फाउंडेशन की बुनियाद रखी। उनका यह संगठन ढाका और चिटगांव इलाके के हजारों मजदूरों को अब तक लगभग 19 करोड़ टका का बकाया हक दिला चुका है।
औपचारिक शिक्षा और स्कूल का कभी मुंह न देखने वाली नजमा अख्तर आज धारा प्रवाह अंग्रेजी बोलती हैं। उन्होंने स्वाध्याय से यह ज्ञान अर्जित किया है। वह साल 2006 से ही ‘बांग्लादेश मिनिमम वेज बोर्ड’ की सदस्य हैं। उनके प्रेरक संघर्ष और योगदान को सम्मान देते हुए संयुक्त राष्ट्र महासभा ने 2018 में उन्हें सुनने के लिए बुलाया। वह कहती हैं- इतने कम समय में इतना कुछ मिल गया कि जिंदगी से अब कोई शिकायत नहीं रही!
प्रस्तुति : चंद्रकांत सिंह नजमा अख्तर, बांग्लादेशी मजदूर नेता

 

bhilai / shouryapath news / छत्तीसगढ़ चेम्बर ऑफ कॉमर्स भिलाई के पदाधिकारियों के एक प्रतिनिधि मंडल ने आज एडीएम प्रकाश सर्वे से मुलाकात की। बाजारों में होलसेल मालवाहक वाहनों के कारण बिगड़ रही स्थिति को देखते हुए इनका समय निर्धारित करने की मांग की। प्रतिनिधि मंडल ने ज्ञापन देकर होलसेल दुकानों के माल वाहक वाहनों का भी समय सुबह 10 बजे तक निर्धारित करने की मांग की। 10 बजे के बाद सभी बड़े मालवाहक बाजारों से बाहर चले जा सके। ऐसा करने से भी बाजारों में ट्रैफिक की स्थिति सामान्य रहेगी।
मुलाकात के दौरान युवा चेंबर के प्रदेश अध्यक्ष अजय भसीन व प्रदेश चेम्बर के उपाध्यक्ष गार्गी शंकर मिश्रा ने कोरोना संकट के समय व्यापारियों द्वारा किए गए कार्यों को उनके सामने रखा। एडीएम प्रकाश सर्वे ने चेम्बर के कार्यों की सराहना की। साथ ही आश्वस्थ किया कि वे जल्द ही इस पर सकारात्मक कदम उठाएंगे। भिलाई चैंबर के संयोजक अजय भसीन ने जानकारी दी कि भिलाई चैम्बर सभी बाजारों में उन व्यापारियों को सम्मानित कर रहा है जिन्होंने करोना महामारी के दौरान शासन के निर्देशों का पूर्णत पालन किया है। एडीएम से मुलाकात के दौरान शंकर सचदेव, अंकुर शर्मा रवि विजवानी, सागर, संतोष गोयल व चिंटू कथूरिया उपस्थित रहे।
कोरोना के कर्मवीर का सम्मान
चेंबर द्वारा कोराना काल में अपना काम करने के लिए व्यापारियों का सम्मान किया जा रहा है। इसी कड़ी में आज लिंक रोड स्थित राजस्थान तेल एवम विजय ट्रेडिंग कंपनी को स्मृति चिन्ह देकर करोना के कर्मवीर पद से नवाजा गया। गार्गी शंकर मिश्रा ने जानकारी दी कि लॉक डाउन के समय सबसे पहले सोशल डिस्टेंस का पालन करने दुकान के बाहर चुने की मार्किंग राजस्थान तेल द्वारा की गई। क्रमबद्ध ग्राहकों को समान देने बेरिकेट जैसी व्यवस्था से एक अच्छा उदाहरण प्रस्तुत किया। होलसेल मार्किट से लिंक रोड के ही विजय ट्रेडिंग को भी बेहतर व्यवस्था हेतु सम्मा न दिया गया। सुपेला मार्किट से निर्मल हैंडलूम को भी करोना के कर्मवीर का सम्मान दिया गया। स्मृति चिन्ह एसोसिएशन के अध्यक्ष राकेश मल्होत्रा व नरेश जसवानी ने ग्रहण किया।

         नजरिया / शौर्यपथ / पिछले महीने और इस महीने भी, जब दुनिया भर के तमाम देश कोरोना वायरस से जूझने में जुटे हैं, हांगकांग में एक भी दिन ऐसा नहीं गुजरा, जब वहां चीन की सरकार के खिलाफ प्रदर्शन न हुए हों। बीते दिनों कई प्रदर्शनकारियों को गिरफ्तार किया गया है, पुलिस से लोगों की झड़पें हुई हैं। बीजिंग में बैठी सरकार ने हांगकांग की स्वायत्तता को खत्म करने के लिए नई-नई घोषणाएं की हैं और हांगकांग में जन-साधारण के लिए जो बातें पहले सामान्य मानी जाती थीं, उन सभी पर प्रतिबंध लगा दिया गया है। दरअसल, हांगकांग में पहले के लोकतंत्र समर्थक प्रदर्शनों को देखते हुए चीन ने पिछले सप्ताह अपनी संसद में हांगकांग से जुडे़ राष्ट्रीय सुरक्षा कानून का मसौदा पेश किया था, जो गुरुवार को पारित हो गया। इससे जनतंत्र समर्थक कानूनविद्, राजनेता और हांगकांग के 74 लाख लोग स्तब्ध हैं। उन्होंने सोचा न था कि चीन, जो 2047 में हांगकांग को पूरी तरह से नियंत्रण में लेने वाला था, वह दो दशक पहले ही इस प्रकार उसको डकार जाएगा।
कोरोना वायरस के कारण तमाम देशों में जिंदगी वैसे ही ठहर-सी गई है, लेकिन स्थानीय इलाकों पर धीरे-धीरे कब्जा करने की चीन की नीति में कोई बदलाव नहीं आया है। चीन ने हांगकांग की स्वायत्तता समाप्त करने की ऐसी ही कोशिश 2003 में भी की थी, लेकिन उस समय हुए जबर्दस्त जन-विद्रोह के कारण उसे पीछे हटना पड़ा था। मगर अब नए कानून के लागू हो जाने के बाद हांगकांग में लोकतंत्र समर्थक ताकतों पर रोक लगाने के साथ ही वहां बाहरी शक्तियों का आना भी रोक दिया जाएगा। हालांकि, हांगकांग बेशक चीन का भाग है, लेकिन उसके पास अब तक अपने कानून, अपनी अदालतें और पुलिस हैं। साफ है, चीन का यह कदम एक प्रकार से उसकी तानाशाही है। यह उस संयुक्त घोषणापत्र को पूरी तरह खत्म किए जाने के समान है, जिसके तहत इस पूर्व बिटिश उपनिवेश को 1997 में ‘एक देश, दो प्रणाली’ के साथ चीन को लौटाया गया था। यह घोषणापत्र हांगकांग को 2047 तक पश्चिम जैसी आजादी और अपनी कानून प्रणाली प्रदान करता है। अब राष्ट्रीय सुरक्षा कानून के बहाने चीन ने इस अद्र्ध-स्वायत्त क्षेत्र पर अपना नियंत्रण कर लिया है, जबकि वह अब तक हांगकांग से ऐसा कोई काम न करने का वादा करता आया था।
हांगकांग में ज्यादातर लोग चीनी नस्ल के हैं, लेकिन वे आमतौर पर चीन की पहचान नहीं रखना चाहते, खासकर युवा वर्ग। सिर्फ 11 फीसदी हांगकांगवासी खुद को चीनी कहते है, जबकि 71 फीसदी चीनी नागरिक होने पर गर्व महसूस नहीं करते। यही कारण है कि हांगकांग में हर रोज आजादी के नारे बुलंद होते रहते हैं। सन 1997 में जब हांगकांग को चीन के हवाले किया गया था, तब उसने कम से कम 2047 तक वहां के लोगों को स्वायत्तता और अपनी कानून-व्यवस्था बनाए रखने की गारंटी दी थी, लेकिन 2014 में वहां 79 दिनों तक चले ‘अंब्रेला मूवमेंट’ के बाद लोकतंत्र का समर्थन करने वालों के खिलाफ चीन सरकार कार्रवाई करने लगी। हांगकांग का अपना कानून है, साथ ही खुद की विधानसभा भी, लेकिन वहां मुख्य कार्यकारी अधिकारी को 1,200 सदस्यीय चुनाव समिति चुनती है, जिसमें ज्यादातर चीन समर्थक सदस्य ही होते हैं। यही नहीं, विधायी निकाय के सभी 70 सदस्य हांगकांग के मतदाताओं द्वारा सीधे नहीं चुने जाते हैं। मनोनयन वाली सीटों पर बीजिंग समर्थक सांसदों का कब्जा रहता है।
जाहिर है, चीन के ताजा कदम के बाद हांगकांग में अब और भी विरोध होना स्वाभाविक है। पिछले वर्ष की घटनाओं को देखते हुए आशंका यह भी है कि पुलिस अब और कडे़ कदम उठाएगी। बीजिंग को इस बात की कतई चिंता नहीं है कि उसके इस कार्य पर दूसरे देश क्या प्रतिक्रिया देते हैं। हालांकि, इस नए कानून के विरोध में दुनिया भर में आवाजें उठने लगी हैं।
कानूनी पर्यवेक्षकों और मानवाधिकार के पैरोकारों का मानना है कि इस कानून का सर्वाधिक दुरुपयोग मानवाधिकार कार्यकर्ताओं के बोलने की आजादी के विरुद्ध किया जाएगा। ऐसे मुखर लोगों को गिरफ्तार किया जाएगा और उन्हें जेल में बंद कर दिया जाएगा। फिर भी, माना यही जा रहा है कि प्रदर्शनकारी कहीं ज्यादा इसका विरोध करेंगे, क्योंकि पिछले वर्ष की अपेक्षा वे अधिक संगठित हुए हैं।
(ये लेखक के अपने विचार हैं)महेंद्र राजा जैन, वरिष्ठ हिंदी लेखक

 

bhilai / shouryapath /-भिलाई इस्पात संयंत्र ने कम्पनी की सेवा से मई, 2020 में सेवानिवृत्त हो रहे कार्यपालकों एवं गैर-कार्यपालकों को उनकी सेवानिवृत्ति के अवसर पर उन्हें संयंत्र के विभिन्न विभागों व सभागारों से विदाई दी। इस दौरान कोरोना वायरस से निर्मित विषेष परिस्थितियों को ध्यान में रखते हुए सोषल डिस्टेंसिंग का अनुपालन किया जाता है।
इन समारोहों को सादे रूप में प्रत्येक विभाग के विभागाध्यक्ष द्वारा अलग-अलग दिनों व समय पर आमंत्रित कर कार्मिकों व अधिकारियों को विदा किया गया। साथ ही इन समारोह में कोरोना वायरस हेतु जारी सोषल डिस्टेंसिंग का भी पूरा ख्याल रखा गया। इस हेतु कोई समारोह का आयोजन नहीं किया गया। इस माह बीएसपी से कुल 107 कार्मिक हुए सेवानिवृत्त। जिसमें 21 कार्यपालक एवं 86 गैर-कार्यपालक षामिल हैं।
भिलाई इस्पात संयंत्र की सेवा से मई में सेवानिवृत्त हुए अधिकारियों में महाप्रबंधक श्री के जी मुरलीधरन, श्री वी जे मैथ्यू, श्री एस के सिंह, श्री पी एस रविषंकर, सुश्री षुभा दासगुप्ता, श्री बी के महानंद, उप महाप्रबंधक श्री ए के मित्रा, डॉ आर आर बारले सहित सर्वश्री राजीव अमराउतकर, एस के षर्मा, एस एस प्रसाद, वी के गवान्डे, टी एस नायडू, दिनेष अकोटकर, जी आर नारंग, सुरेष कुमार, यू के तरफदार, आर के ठाकुर, वी के मिश्रा, ए आर साहू एवं जी एल साहू षामिल हैं।

        मेलबॉक्स / शौर्यपथ / लॉकडाउन के कारण रोजी-रोटी और रोजगार पर संकट बढ़ गया है। लोग बेरोजगार होने लगे हैं। ऐसे में, देश के विभिन्न हिस्सों में आपराधिक घटनाएं भी बढ़ने लगी हैं। राष्ट्रीय राजधानी दिल्ली हो या उत्तर प्रदेश, हर इलाके में छीना-झपटी, फिरौती और लूट की वारदातें दिन-दहाडे़ हो रही हैं। केंद्र और राज्य सरकारों को इस बाबत चौकन्ना हो जाना चाहिए और स्थानीय प्रशासन को मुस्तैद रहने का आदेश देना चाहिए। जाहिर है, यह भी लॉकडाउन का एक नकारात्मक पक्ष है। भूख और बेरोजगारी ने शायद कुछ लोगों को गलत रास्ते पर चलने को मजबूर कर दिया हो। इसलिए जरूरत यह भी है कि सरकार की राहत संबंधी घोषणाओं का लाभ तत्काल जरूरतमंदों को मिले, तभी आपराधिक घटनाओं में आई यह उछाल थम पाएगी।
अमन जायसवाल
दिल्ली विश्वविद्यालय

टिड्डियों का हमला
इस वर्ष की आधी अवधि भी नहीं गुजरी है और देश कई तरह की कुदरती आपदाओं से गुजर चुका है। कोरोना वायरस नाम का महासंकट तो बना हुआ है ही, कुछ दिनों पहले पश्चिम बंगाल और ओडिशा ने अम्फान नामक चक्रवाती तूफान का भी कहर झेला। अब राजस्थान, पंजाब, हरियाणा, उत्तर प्रदेश और मध्य प्रदेश जैसे राज्यों में टिड्डियों का हमला हो रहा है। इससे खेतों में खड़ी फसलों को काफी नुकसान हो रहा है, जिससे देश के सामने खाद्यान्न संकट भी पैदा हो सकता है। कोरोना की वजह से लगे लॉकडाउन से किसानों की हालत वैसे ही जर्जर है, टिड्डियों के इस हमले से वे खड़े होने लायक भी नहीं रह पाएंगे। इस चिंताजनक स्थिति में आपात उपाय अपनाने की आवश्यकता है।
अनिल रा. तोरणे, तलेगांव, पुणे

जाल में फंसता नेपाल
कुछ दिन पहले 8 मई को भारत ने लिपुलेख मार्ग का उद्घाटन किया था। उस वक्त नेपाल ने लिपुलेख को अपना हिस्सा बताकर इस पर आपत्ति जताई थी। अब उसने नया नक्शा जारी करके लिपुलेख को अधिकृत रूप से अपना हिस्सा बताया है। हालांकि, भारत के दबाव में कुछ पीछे हटा है, पर वह भूल रहा है कि ऐसा करके अपने परम मित्र देश भारत के साथ वह बेवजह का विवाद खड़ा कर रहा है। यहां यह कहना भी गलत नहीं होगा कि इस पूरे विवाद के पीछे चीन का हाथ है। सभवत: चीन ने इसके लिए नेपाल को आर्थिक मदद देने का लालच दिया हो। मगर नेपाल को यह सोचना चाहिए कि चीन सिर्फ अपने मतलब के लिए दूसरे देश को आर्थिक सहायता देता है। श्रीलंका का हंबनटोटा बंदरगाह इसका उदाहरण है कि किस तरह आर्थिक मदद के नाम पर चीन दूसरे देश पर नियंत्रण हासिल करना चाहता है। चीन इस विवाद के बहाने उसे भी हांगकांग या तिब्बत बना सकता है।
विवेक राज शुक्ला, धनबाद

खत्म होते मौके
कोरोना का यह दौर हर क्षेत्र के लिए कठिन और नुकसानदेह साबित हो रहा है। इसने हमारे हर अवसर को ठेस पहुंचाई है। शिक्षा क्षेत्र की ही बात करें, तो ऑनलाइन कक्षा से विद्यार्थी व शिक्षक, दोनों संतुष्ट नहीं दिख रहे हैं। इतना ही नहीं, छात्रों को अपनी प्रतिभा दिखाने के लिए वार्षिक परीक्षा का अवसर मिलता रहता है, इस बार उन्हें इससे भी वंचित होना पड़ा। पढ़ाई से इतर विद्यालय की तमाम गतिविधियां भी बंद हैं, जिनमें छात्र अपना हुनर दिखाते रहे हैं। इसी तरह, सिनेमा जगत और खेल जगत में भी प्रतिभाओं का प्रदर्शन नहीं हो पा रहा है। कल-कारखानों की बात करें, तो वहां भी स्थिति ठीक नहीं है। मजदूरों को पलायन, भूख और बेरोजगारी जैसीकई समस्याओं से जूझना पड़ रहा है। अभी सभी का ध्यान केवल कोरोना पर विजय पाने पर है, जिससे हर छोटे-बड़े अवसरों से हम समझौता कर रहे हैं।
हरीश कुमार शर्मा, दिल्ली

 

पचास पार वालों को जबािश्स वीआर लेने के लिए प्रबंधन बना रहा दबाव
सिम्पलेक्स और एटमास्कों ने तीस तीस और सिस्कोल यूनिट से 10 मजदूरों को निकाला काम से


durg ( bhilai ) / shouryapath news
औद्योगिक क्षेत्र भिलाई में मजदूरों को काम से निकाला जा रहा है साथ ही वेतन भुगतान भी नहीं किया जा रहा है। ऐडमास्टको से 30 मजदूर,सिम्प्लेक्स कास्टिंग से 30 मजदूर,सिस्कोल यूनिट 3 से 10 मजदूरों को छटनी कर बिना कारण बताओ नोटिस के गैर कानूनी तरीके से निकाल दिया गया है। इस मामले की पुष्टि छत्तीसगढ़ मुक्ति मोर्चा ने करते हुए इन कंपनियों पर आरोप लगाया है कि केन्द्र और राज्य सरकार द्वारा किसी को भी काम से नही निकालने और वेतन कटौती नही करने के स्पष्ट आदेश के बावजूद ये कंपनी के मालिक शासन प्रशासन के नियमो को ताक में रखकर अपनी मनमानी उक्त कंपनियों के अलावा अधिकांशतर कम्पनी में इसी तरह के हालात बना हुआ है, लाकडाउन का वेतन नही मिलने से राशन के जद्दोजहद में मजदूर खासा परेशान है,। कम्पनियो में सैकड़ो सप्लाई मजदूरों को काम पर नही लिया है। सिमलेक्स कास्टिंग में जिनका 50 साल 53 साल 54 साल हुआ है उनको भी 60 साल होने के नाम पर काम से बिठा दिया गया गया है जबकि ये मजदूर यह स्थाई मजदूर हैं। प्रबंधन द्वारा स्वैच्छिक सेवानिवृत्ति लेने के लिए दबाव बनाया जा रहा है, वही इन मजदूरो को यह भी कहा जा रहा है की उम्र के हिसाब कोरोना संक्रमित होने के आसार है इसलिए अंतिम भुगतान प्राप्त कर लें । सड़क पर अपने घर जाने देश के कोने कोने से निकले पैदल मजदूर हो या कम्पनी में कार्यरत मजदूर हो इन मजदूरो के प्रति सरकार को कोई चिन्ता नही है, मजदूरो का शोषण हो रहा है छटनी हो रहा है ।,छत्तीसगढ मुक्ति मोर्चा मजदूर कार्यकर्ता समिति मांग करता है कि सिस्कोल, ऐडमासको,सिम्प्लेक्स कास्टिंग से निकाले गए मजदूरों को काम पर तत्काल वापस ले स्थानीय मंत्री,विधायक संसद इन मामलों पर संज्ञान ले। छत्तीसगढ मुक्ति मोर्चा मजदूर कार्यकर्ता समिति और पी यू सी एल सैकडो मजदूर जिनके काम नही लगे है उनके परिवारों को कुछ राशन मुहैया करा रहे है जो नाकाफी है फिर भी संगठन के ओर से कोशिश जारी है

        ओपिनियन / शौर्यपथ / नरेंद्र मोदी सरकार के दूसरे कार्यकाल का एक वर्ष पूरा हो गया। सरकार ने 30 मई, 2019 को पदभार संभाला था। नरेंद्र मोदी का विश्व के लोकप्रिय कद्दावर नेता के रूप में उभरना भारत की लोकतांत्रिक राजनीति की एक असाधारण उपलब्धि है। हमारी सरकार के पहले कार्यकाल में सुधार, प्रदर्शन और परिवर्तन (रिफॉर्म, परफॉर्म और ट्रांसफॉर्म) के लिए किए गए कुछ दूरदर्शी फैसले देखने को मिले थे। सबसे महत्वपूर्ण हिस्सा सामान्य नागरिकों का समावेश और उनका सशक्तीकरण करना था। चाहे डिजिटल इंडिया के माध्यम से प्रौद्योगिकी का उपयोग हो, जेएएम ट्रिनिटी का उपयोग करके वित्तीय समावेशन का प्रयास हो या स्वच्छ भारत अभियान के रूप में स्वच्छता और स्वास्थ्य सुधार के लिए जन-आंदोलन या आयुष्मान भारत जैसे कार्यक्रमों के जरिए स्वास्थ्य सेवा पहुंचाने के प्रयास। हमारे प्रधानमंत्री एक ऐसे नेता के रूप में उभरे, जिनमें भारत के रणनीतिक और सुरक्षा हितों की रक्षा का साहस और दृढ़ निश्चय है। भारत को अद्भुत विचारों वाले देश के रूप में मान्यता मिली है।
भारत की जनता ने 2019 के आम चुनाव में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी पर फिर भरोसा जताते हुए उनके नेतृत्व में भाजपा को भारी बहुमत से जिताया। पिछले लगभग साठ वर्षों में ऐसा नहीं हुआ था, जब दोबारा चुनाव राष्ट्रीय स्तर पर बड़े पैमाने पर किए गए प्रदर्शन के आधार पर हुए हों। इस नए और भारी-भरकम जनादेश के बाद अधिक साहसिक सुधारों और गरीबों के लिए अनेक प्रकार की पहल की गई। पीएम किसान योजना के अंतर्गत प्रत्येक किसान को प्रतिवर्ष 6,000 रुपये प्रदान किए गए। किसानों, मजदूरों, व्यापारियों और स्वरोजगार करने वालों के लिए समर्पित पेंशन योजनाएं भी शुरू की गईं, ताकि उन्हें सामाजिक सुरक्षा प्रदान की जा सके।
भारतके सभी गांवों में बिजली पहुंचाना, आठ करोड़ परिवारों को सब्सिडी वाले एलपीजी कनेक्शन प्रदान करना और समावेश के लिए डिजिटल इंडिया कार्यक्रम हमारी सरकार की कुछ प्रमुख उपलब्धियां हैं। सरकार ने गरीबों को लाभ हस्तांतरित करने का तरीका बदल दिया है। 435 योजनाओं के तहत 11 लाख करोड़ रुपये सीधे लाभार्थियों के बैंक खातों में भेज दिए गए हैं, जिससे 1.70 लाख करोड़ रुपये की बचत हुई है, जो बिचौलियों व फर्जी उपयोगकर्ताओं के पास चला जाता था।
अनुच्छेद-370 को निरस्त करने, तीन तलाक पर रोक लगाने और पड़ोसी देशों में जुल्म के शिकार अल्पसंख्यकों को नागरिकता देने के लिए कानून बनाने की ऐतिहासिक पहल को पथ-प्रवर्तक कहा जा सकता है। आर्थिक मोर्चे पर भारत विदेशी प्रत्यक्ष निवेश के लिए एक पसंदीदा स्थान बन गया। ईज ऑफ डूइंग बिजनेस इंडेक्स में 2014 की 142वीं रैंकिंग को सुधारकर 2019 में 63वीं पर लाना भी उल्लेखनीय रहा। भारत दुनिया में दूसरा सबसे बड़ा मोबाइल फोन निर्माता बनकर उभरा।
हालांकि सबसे चुनौतीपूर्ण क्षण कोविड-19 के रूप में सामने आया, जब प्रधानमंत्री ने अनुकरणीय साहस, सहानुभूति और प्रतिबद्धता का परिचय दिया। इसे फैलने से रोकने के लिए लॉकडाउन एकमात्र तरीका था। एक आश्चर्यजनक तुलना से पता चलता है कि कोविड-19 से प्रभावित 15 प्रमुख देशों (चीन को छोड़कर) की जनसंख्या 142 करोड़ है और इन देशों में मरने वालों की संख्या 3.07 लाख से अधिक है, जबकि भारत की जनसंख्या 137 करोड़ है और यहां मौतों की संख्या 4,534 है। भारत में ठीक होने वालों की संख्या भी अधिक है। शुरुआती चरणों में प्रधानमंत्री ने स्वयं समाज के गरीब और कमजोर तबके के लिए 1.70 लाख करोड़ रुपये के भारी मुआवजे की घोषणा की। इसमें 80 करोड़ लोगों को तीन महीने के लिए मुफ्त राशन, 20 करोड़ महिला जन-धन खाताधारकों को वित्तीय लाभ देना शामिल है। बैंक से सीधे हस्तांतरण द्वारा भेजी गई कुल राशि 52,606 करोड़ रुपये के करीब है। बाद में आत्मनिर्भर भारत के निर्माण के लिए 20 लाख करोड़ रुपये के पैकेज की घोषणा हुई।
किसानों, ग्रामीण अर्थव्यवस्था, प्रवासी श्रमिकों, शहरी गरीब और मध्यम वर्ग के घर खरीदारों के लिए 3.16 लाख करोड़ रुपये रखे गए हैं। अगले दो महीने तक गरीब परिवारों को मुफ्त खाद्यान्न की अगली किस्त और रेहड़ी-पटरी वालों को 10,000 रुपये तक का आसान ऋण भी पैकेज में शामिल है। ग्रामीण रोजगार गारंटी योजना के लिए भी अतिरिक्त 40,000 करोड़ रुपये का आवंटन किया गया है। सरकार ने कृषि बुनियादी ढांचे के लिए 1.63 लाख करोड़ रुपये की घोषणा की है। कृषि उपज की बिक्री देश भर में कहीं भी किसी भी खरीदार को करने की अनुमति दी गई है। इससे किसान को उसकी उपज का अधिकतम मूल्य मिलेगा।
प्रधानमंत्री ने भारतीयों की रचनात्मक और उद्यमशील क्षमताओं के विकास की चुनौती को स्वीकार किया है। वह कोविड-19 के समय लंबित सुधारों का भी समाधान चाहते हैं, ताकि आत्मनिर्भरता के आंदोलन को प्रभावी बनाया जा सके। इसमें कोयला और खनन क्षेत्रों में साहसिक सुधार शामिल हैं। भारत विमान रख-रखाव और मरम्मत का एक केंद्र बनने की ओर बढ़ा है। रक्षा उत्पादन में स्वदेशीकरण हुआ है। कोविड-19 ने नवाचारों में एक बड़ा उछाल देखा है। आरोग्य सेतु जैसे प्लेटफॉर्म, वीडियो कॉन्फ्रेंसिंग पर नवीन भारतीय उत्पाद पाइपलाइन में हैं।
हां, प्रवासी मजदूरों की दुर्दशा वास्तव में बहुत पीड़ादायक है और हम सभी को इसे कम करने की पूरी कोशिश करनी होगी। मनरेगा की धनराशि के अधिक आवंटन जैसे कदम उठाए गए हैं, प्रवासियों के आने-जाने के लिए लगभग 3,500 श्रमिक स्पेशल टे्रनें चलाई गई हैं। प्रवासियों की स्क्रीनिंग के लिए मानवीय प्रावधान किए गए हैं, क्वारंटीन सुविधाएं प्रदान करने के लिए राज्य सरकारों को सहयोग और मुफ्त राशन की व्यवस्था की गई है। कोविड-19 ने पहाड़ के समान कठिनाइयां खड़ी की हैं। यह हमारे प्रधानमंत्री के निर्णायक नेतृत्व के अलावा राज्य सरकारों के एक टीम के रूप में साथ-साथ काम करने के कारण संभव हुआ है।
भारत ने दुनिया के अन्य देशों की तुलना में इस संकट को कहीं बेहतर तरीके से संभाला है। नरेंद्र मोदी सरकार ने जो साहस और सहानुभूति दिखाई है, वह निश्चित रूप से हमें इस संकट से उबरने में सक्षम बनाएगी। हमें यकीन है कि यह चुनौती देश के लिए एक बड़ा अवसर पैदा करेगी। भारत का समय आ गया है।
(ये लेखक के अपने विचार हैं) रवि शंकर प्रसाद, केंद्रीय विधि एवं न्याय, आईटी और दूरसंचार मंत्री

 

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