May 17, 2024
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शौर्यपथ

शौर्यपथ

लाइफस्टाइल /शौर्यपथ / बेदाग त्वचा और सेहतमंद रहने के लिए अच्छी इम्यूनिटी हर व्यक्ति की पहली ख्वाहिश होती है। व्यक्ति की ये दोनों ही ख्वाहिशें शरीर में पर्याप्त मात्रा में मौजूद विटामिन सी पूरा करता है। जी हां, शरीर में मौजूद विटामिन-सी व्यक्ति को कई गंभीर बीमारियों से लड़ने की क्षमता प्रदान करके उसे स्वस्थ रहने में मदद करता है। विटामिन सी की कमी की वजह से व्यक्ति में खून की कमी, हड्डियों का कमजोर होना जैसे लक्षण दिखाई देने लगते हैं। दरअसल, विटामिन सी हीमोग्लोबिन के लिए आवश्यक आयरन के अवशोषण में सहायता करता है। विटामिन सी सबसे ज्यादा खट्टे फल जैसे संतरा, मौसमी, किन्नू में पाया जाता है। लेकिन क्या आप जानते हैं इन फलों के अलावा 5 दूसरी चीजें भी हैं जो व्यक्ति के शरीर में विटामिन सी कमी इन फलों से भी जल्दी पूरी करती हैं।आइए जानते हैं आखिर क्या हैं वो 5 चीजें।

ब्रोकली-
ब्रोकली का सेवन करने से व्यक्ति को लगभग 132 मिलीग्राम विटामिन-C मिलता है। नियमित रूप से ब्रोकली का सेवन करने से व्यक्ति की इम्यूनिटी अच्छी होती है। जिसकी वजह से वो कैंसर जैसी कई जानलेवा बीमारी से भी दूर रहता है।

स्ट्रॉबेरीज-
स्ट्रॉबेरीज ना सिर्फ खाने में स्वादिष्ट होती हैं बल्कि सेहत के लिए भी उतना ही फायदेमंद हैं। स्ट्रॉबेरीज से भरे एक कप में लगभग 84.7 मिलीग्राम विटामिन सी, फोलेट की खुराक होती है। जिसकी वजह से व्यक्ति लंबे समय तक स्वस्थ रह सकता है।

अनानास-
अनानस भले ही एक फल हो लेकिन इसमें कई पोषक तत्व एकसाथ पाए जाते हैं। इस फल में 78.9 मिलीग्राम विटामिन सी के अलावा, ब्रोमेलैन भी मौजूद होता है। ब्रोमेलैन एक पाचन एंजाइम होता है जो भोजन को तोड़ने और सूजन को कम करके स्वस्थ रखता है।

लाल शिमला मिर्च-
जो लाल शिमला मिर्च आप अक्सर अपने घरों में बनाते या खाते हैं वो भी विटामिन-सी से भरपूर होती है। एक कप कटी हुई लाल शिमला मिर्च में 190 मिलीग्राम तक विटामिन सी पाया जाता है। इसके अलावा लाल मिर्च में मौजूद विटामिन ए आंखों की सेहत का भी ध्यान रखता है।

हरी शिमला मिर्च-
लाल शिमला मिर्च की तरह ही हरी शिमला मिर्च भी विटामिन-सी से भरपूर होती है। एक कप कटी हुई हरी शिमला मिर्च में 120 मिलीग्राम विटामिन सी होता है। इसके अलावा हरी शिमला मिर्च फाइबर का भी अच्छा स्रोत है। यह पाचन क्रिया और सेहत को बनाए रखने में मदद करता है।

 

          खेल /शौर्यपथ / टीम इंडिया के पूर्व सलामी बल्लेबाज और मौजूदा समय में स्टार हिंदी कमेंटेटर आकाश चोपड़ा ने मौजूदा वनडे इलेवन टीम चुनी है। सोमवार को आकाश चोपड़ा ने यूट्यूब पर एक वीडियो शेयर किया और इसमें उन्होंने मौजूदा बेस्ट वनडे इंटरनैशनल इलेवन टीम चुनी। चौंकाने वाली बात यह है कि आकाश चोपड़ा की इस खास टीम की कप्तानी विराट कोहली या रोहित शर्मा को नहीं मिली है, जबकि इंग्लैंड के इयोन मोर्गन इस टीम के कप्तान हैं। इयोन मोर्गन की कप्तानी में इंग्लैंड ने पिछले साल जुलाई में वर्ल्ड कप जीता था।

सलामी बल्लेबाजी की जिम्मेदारी आकाश चोपड़ा ने रोहित शर्मा और वेस्टइंडीज के शाई होप को दी है। होप ने पिछले कुछ समय में अपनी बल्लेबाजी से काफी प्रभावित किया है। शाई होप इस खास टीम में सलामी बल्लेबाज के अलावा विकेटकीपर की भूमिका भी निभाएंगे। आकाश चोपड़ा ने कहा कि सलामी बल्लेबाज के लिए उन्होंने एरन फिंच के नाम पर भी विचार किया था, लेकिन उन्हें टीम में विकेटकीपर भी चाहिए था, इसलिए उन्होंने शाई होप को चुन लिया।

नंबर तीन पर बल्लेबाजी के लिए उन्होंने विराट कोहली को चुना है, जबकि नंबर चार के लिए उन्होंने कीवी टीम के सीनियर बल्लेबाज रोस टेलर को चुना है। आकाश चोपड़ा ने कहा कि हम लोगों ने इस पर इतना ध्यान नहीं दिया है, लेकिन पिछले दो साल में टेलर ने सब-कॉन्टिनेंट में काफी रन बनाए हैं। नंबर पांच के लिए आकाश चोपड़ा ने इयोन मोर्गन को चुना है। मोर्गन को ही आकाश चोपड़ा ने कप्तान चुना है। आकाश चोपड़ा ने कहा कि उन्होंने इंग्लैंड में क्रिकेट को काफी बदला और इसीलिए उन्होंने मोर्गन को कप्तान चुना है।


आकाश चोपड़ा की इस खास टीम में छठे नंबर पर बांग्लादेश के ऑलराउंडर शाकिब अल हसन हैं, जबकि सातवें नंबर पर इंग्लैंड के ऑलराउंडर बेन स्टोक्स। बॉलिंग डिपार्टमेंट में आकाश चोपड़ा ने जसप्रीत बुमराह पर मोहम्मद शमी को तरजीह दी है। इसके अलावा उन्होंने ऑस्ट्रेलिया के मिशेल स्टार्क और न्यूजीलैंड के लॉकी फर्गसन को भी टीम में चुना है।

आठवें नंबर पर स्टार्क, नौवें नंबर पर कुलदीप यादव, 10वें नंबर पर मोहम्मद शमी और 11वें नंबर पर फर्गसन हैं। पाकिस्तान के स्टार बल्लेबाज बाबर आजम को आकाश चोपड़ा ने 12वें खिलाड़ी के तौर पर चुना है। आकाश चोपड़ा मौजूदा ODI XI: रोहित शर्मा, शाई होप, विराट कोहली, रोस टेवर, इयोन मोर्गन (कप्तान), शाकिब अल हसन, बेन स्टोक्स, मिशेल स्टार्क, कुलदीप यादव, मोहम्मद शमी, लॉकी फर्गसन, बाबर आजम (12वें खिलाड़ी)

 

मनोरंजन / शौर्यपथ / एकता कपूर का पॉपुलर शो नागिन 4 बंद हो रहा है और इसके बाद अब नागिन 5 आने वाला है। नागिन 5 को लेकर जबसे अनाउंसमेंट हुई है तभी से शो के लीड एक्टर्स को लेकर कई खबरें आ रही हैं। पिछले कुछ दिनों से ये खबरें आ रही थीं कि नागिन 5 में महक चहल नजर आएंगी। इन खबरों को सुनने के बाद महक ने इंस्टाग्राम पर इन बातों को सिर्फ अफवाह बताया है।

महक ने अपने इंस्टाग्राम स्टोरी पर लिखा, 'न तो मुझे नागिन 5 के लिए अप्रोच किया गया है और न ही मैं यह शो कर रही हूं। पता नहीं कहां से ये अफवाह आती हैं। जो भी खबर आप लोग सुन रहे हैं वो झूठी है'।

महक के इस स्टेटमेंट के बाद यह तो क्लीयर हो गया है कि महक नागिन नहीं बनने वालीं।


एकता ने की थी नागिन 5 की अनाउंसमेंट

एकता ने हाल ही में अपना वीडियो शेयर कर कहा था, 'मुझसे बार-बार पूछा जा रहा है कि क्या नागिन 4 खत्म हो रहा है या नागिन 5 शुरू हो रहा है। तो मैं आपको बता दूं कि हम नागिन 4 को खत्म कर रहे हैं और तुरंत नागिन 5 की शूटिंग शुरू कर देंगे। नागिन के चौथे सीजन पर मै फोकस नहीं कर पाई थी, लेकिन अब अगले सीजन में हम अच्छा करेंगे और वो सभी को पसंद आएगा।'

एकता ने कहा था, 'एक्टर्स की बात करें तो आपको बता दूं कि निया शर्मा, अनीता, विजेंद्र जैसे सभी स्टार्स ने अच्छा काम किया है। आप लोगों ने बहुत अच्छा काम किया। मैं इन एक्टर्स के साथ कुछ नया लेकर आने वाली हूं।'

एकता ने इस वीडियो को शेयर करते हुए लिखा था, 'क्या तुम मेरे नागिनटाइन बनोगे? रही बात रश्मि देसाई की तो उनका स्पेशल अपीयरेंस था। उन्होंने 2 एपिसोड में शानदार काम किया था।'

 

     धर्म संसार /शौर्यपथ / तब विदुर बताते हैं कि किस तरह आपका पुत्र आपकी राजनीतिक का शिकार हो गया। विदुर और धृतराष्ट्र के बीच धर्म और अधर्म को लेकर चर्चा होती है। विदुर हर तरह से धृतराष्ट्र को इस युद्ध के लिए दोषी ठहराते हैं। बाद में धृतराष्ट्र कहते हैं कि मेरे 100 पुत्रों के वीरगति को प्राप्त करने के पश्चात युधिष्ठिर शोक प्रकट करने नहीं आए।
फिर विदुर समझाते हैं कि अब भी आप धर्म को मान लीजिए राजन। मेरी विनती है कि विजयी पांडु पुत्र हस्तिनापुर आ चुके हैं। उन्हें आशीर्वाद दीजिए और वन की ओर प्रस्थान कीजिए भ्राताश्री। यह सुनकर धृतराष्ट्र मन-मसोककर रह जाते हैं।
श्रीकृष्ण सहित पांचों पांडवों का हस्तिनापुर के राजमहल में स्वागत होता है। सबसे पहले विदुर उनका स्वागत करते हैं। फिर भीतर सभी राजा धृतराष्ट्र के पास जाते हैं। तब धृतराष्ट्र खड़े होकर कहते हैं कि एक-एक करने आओ ताकि मैं तुम लोगों को पहचान सकूं।

यह सुनकर सबसे पहले श्रीकृष्ण आगे बढ़कर पास जाते हैं तो धृतराष्ट्र कहते हैं वासुदेव? फिर वासुदेव उन्हें नमस्कार करते हुए कहते हैं कि हस्तिनापुर नरेश के चरणों में सादर प्रणाम करता हूं। तब धृतराष्ट्र कहते हैं कि मैं तो समझा था कि पहले तुम शोक संवेदना प्रकट करोगे। तब श्रीकृष्ण और धृतराष्ट्र दोनों में के बीच वाद-विवाद होता है।


फिर युधिष्ठिर आगे बढ़कर धृतराष्ट्र के चरण स्पर्श करते हैं। धृतराष्ट्र कहते हैं आयुष्यमान भव। हे हस्तिनापुर नरेश आपके राजभवन में आपका स्वागत है। युधिष्ठिर कहता है कि महाराज तो आप ही हैं ज्येष्ठ पिताश्री। तब धृतराष्ट्र कहते हैं कि मुझे दान में राज देकर मेरा अपमान न करो युधिष्ठिर। यह कहकर वे कहते हैं कि अपने अनुजों को बुलाओ। भीम को बुलाओ।भीम मेरे निकट आओ पुत्र।
जब खुला दुर्योधन और पांडवों के समक्ष कर्ण का राज
भीम धीरे-धीरे धृतराष्ट्र के पास पहुंचने ही वाले रहते हैं तभी श्रीकृष्ण संकेत से उन्हें रोक देते हैं और एक मूर्ति को उनके समक्ष रखने का संकेत करते हैं। विदुर और पांडव यह समझ नहीं पाते हैं। भीम समझ जाता है और वह उसकी आदमकद मूर्ति को धीरे से उठाकर धृतराष्ट्र के सामने रख देता है।


फिर भीम धृतराष्ट्र के चरण स्पर्श करता है तो धृतराष्ट्र कहते हैं चरण स्पर्श नहीं पुत्र, आलिंगन करो। फिर श्रीकृष्ण इशारे से भीम को मना करके कहते हैं कि उस मूर्ति को आगे बढ़ाओ। भीम उस मूर्ति को आगे बढ़ा देते हैं।

तब धृतराष्ट्र क्रोध में उस मूर्ति को भीम समझकर उसका आलिंगन करते हैं और दुर्योधन का नाम लेते हुए उस मूर्ति को कस के पकड़ कर तोड़ देते हैं। यह देखकर श्रीकृष्ण मुस्कुरा रहे होते हैं। फिर धृतराष्ट्र रोते हुए अपने सिंहासन पर बैठ जाते हैं। रोते हुए कहते हैं, मेरे प्रिय अनुज पांडु, मुझे क्षमा कर देना। मैंने तुम्हारे पुत्र भीम की हत्या कर दी।

तब श्रीकृष्ण कहते हैं नहीं राजन। मैं जानता था कि आप कितने क्रोध में हैं। इसीलिए भीम को तो मैंने आपके निकट ही नहीं आने दिया। तब धृतराष्ट्र कहते हैं क्या भीम जिंदा है? यह सुनकर भीम कहता है, मैं आपके आशीर्वाद की प्रतिक्षा कर रहा हूं ज्येष्ठ पिताश्री। यदि अब भी आपके क्रोध की अग्नि शांत नहीं हुई हो तो मैं स्वयं आपकी बाहों में आ जाता हूं।

यह सुनकर रोते हुए धृतराष्ट्र कहते हैं नहीं, पुत्र नहीं। ऐसा मत कहो। अपने 100 पुत्रों को खो देने वाला ये पिता अब अपने अनुज पुत्रों को नहीं खोना चाहता।...तब भीम कहते हैं कि आज्ञा हो तो मैं आपकी छाती से ये बहता लहू पोंछ दूं। यह सुनकर धृतराष्ट्र कहते हैं आयुष्यमान भव पुत्र, आयुष्यमान भव।..फिर ऋषि वेदव्यास गांधारी को उपदेश देते हैं।
जब कर्ण करने ही वाला था अर्जुन का वध, दु:शासन वध
शाम के एपिसोड में गांधारी से मिलने के लिए कुंती के साथ पांचों पांडव उनके कक्ष में जाते हैं। तभी वहां पर विदुर के साथ धृतराष्ट्र पहुंच जाते हैं और वे अपने वन में जाने की बात करते हैं। कुंती भी उनके साथ वन में जाने की बात करती हैं। तब श्रीकृष्ण भी इस बात का समर्थन करते हैं। विदुर भी वन जाने की बात करते हैं। पांचों पांडव यह सुनकर दुखी हो जाते हैं। तब श्रीकृष्ण कहते हैं कि बड़े भैया के राज्याभिषेक तक तो आपको रुकना होगा।

फिर युधिष्ठिर का राज्याभिषेक होता है। राज्याभिषेक के समय द्रौपदी उनके साथ रानी बनकर बैठती है। फिर युधिष्ठिर की जय-जयकार होने लगती है। अंत में युधिष्ठिर सभी को प्रणाम करके अपना उद्भोधन देते हैं। अपने उद्भोधन में वह भीष्म, द्रोणाचार्य, दुर्योधन और कर्ण के रिक्त स्थान को प्रणाम करके कहते हैं कि यह स्थान हमेशा रिक्त रहेंगे। विदुर हस्तिनापुर के प्रधानमंत्री होंगे। भीम युवराज होंगे। अनुज अर्जुन सीमाओं की रक्षा का दायित्व संभालेंगे। प्रिय नकुल और सहदेव मेरे प्रधान अंगरक्षक होंगे। अंत में वे धृतराष्ट्र का चरण स्पर्श करते हैं।

फिर धृतराष्ट्र, गांधारी और कुंती वन में जाने के लिए निकलते हैं तब द्रौपदी और गांधारी के बीच संवाद होता है। गांधारी कहती है जो हुआ उसे भूल जाओ पुत्री और एक नवीन युग का शुभारंभ करो। द्रौपदी सभी को रोकने का प्रयास करती हैं।
जब किया श्रीकृष्ण ने चमत्कार, घटोत्कच का बलिदान
उधर, भीष्म पितामह अपनी माता से कहते हैं कि मैं जानता हूं कि अब मेरे जाने का समय आ गया है। तब श्रीकृष्ण के साथ सभी पांडव भीष्म पितामह के पास पहुंचते हैं। भीष्म कहते हैं कि हे वासुदेव मुझे तो तुम्हारे दर्शन करके जीते जी मोक्ष मिल गया है। श्रीकृष्ण कहते हैं कि यही तो मैं चाहता था पितामह। तब श्रीकृष्ण कहते हैं कि आप युधिष्ठिर को अपनी अंतिम शिक्षा देकर उसे धन्य करें पितामह। भीष्म कहते हैं कि आपके होते मैं शिक्षा देने वाला कौन? तब श्रीकृष्ण कहते हैं मेरे पास ज्ञान है लेकिन आपके पास अनुभव। इन्हें अनुभव देने वाला कोई नहीं हैं पितामह।

फिर युधिष्ठि को भीष्म पितामह राजधर्म की, राजनीति आदि की शिक्षा देते हैं। फिर ओम का उच्चारण करते हुए भीष्म पितामह अपना शरीर छोड़ देते हैं। अर्जुन रोने लगता हैं। फिर श्रीकृष्ण खड़े होकर कहते हैं, धन्य है वे आंखें जो नश्वर को अनश्वर होने का दृश्य देख रही है।

आसमान से देवतागण भीष्म पितामह के शव पर फूलों की वर्षा करते हैं। महर्षि वेदव्यास का जय काव्य आज समाप्त हुआ। महाभारत आज समाप्त हुई। जय श्रीकृष्णा।

मेरी कहानी / शौर्यपथ / यह 90 के दशक की बात है, मुझे मैहर से ‘इन्विटेशन’ आया कि वहां गाना है। मैं मुंबई में गाकर ट्रेन से मैहर पहुंची। वह फ्लाइट का जमाना नहीं था। मैं एक रात पहले ही वहां पहुंची थी। हालांकि मैंने तार-चिट्ठी सब भेज दी थी कि फलां ट्रेन से पहुंच रही हूं, लेकिन कोई सूचना नहीं पहुंची। आयोजकों ने सोचा कि मेरा पता तो दिल्ली का है, सो मैं दिल्ली से ही आ रही हूं। रात के करीब सवा नौ बजे मैं वहां पहुंची। छोटा सा स्टेशन। ट्रेन से उस स्टेशन पर इकलौती मैं ही उतरी थी। वहां कोई नहीं था आयोजकों की तरफ से। उन दिनों मोबाइल नहीं था। मैं अकेली थी, तो थोड़ा डर भी लग रहा था। देखा, तो झाड़ू लगाने वाले एक व्यक्ति वहां से कुछ दूरी पर घूम रहे थे। वह आए, नमस्कार किया और उन्होंने पूछा कि आप कार्यक्रम के लिए आई हैं? मैंने कहा- जी। उन्होंने कहा कि आप बिल्कुल चिंता मत कीजिए। मैं अभी स्टेशन मास्टर के कमरे में जाकर उन लोगों को खबर भेजता हूं। तब तक आप आराम से बैठिए। 10-15 मिनट में कोई आ जाएगा। मुझे समझ में नहीं आया कि यह सज्जन जो इतनी मदद कर रहे हैं, आतिथ्य दिखा रहे हैं, मैं उसे स्वीकार करूं भी या नहीं? उन्होंने स्टेशन मास्टर का कमरा खोला, मुझे वहां बिठाया। थोड़ी देर में चाय आ गई। कुछ ही मिनट के भीतर आयोजकों की तरफ से भी कुछ लोग आ गए। उन लोगों ने कहा- अरे आप मुंबई से आ गईं, हम लोग तो सोच रहे थे कि आप दिल्ली से आएंगी। हम लोग वहां से सामान लेकर निकलने लगे, तो वह सज्जन वहीं खड़े थे। मैंने उनके पास जाकर कहा कि मुझे समझ में नहीं आ रहा कि मैं कैसे आपका धन्यवाद करूं? उन्होंने कहा कि नहीं-नहीं, ऐसा कोई धन्यवाद नहीं, आप यहां आईं, यही बड़ी बात है। बस एक गुजारिश है कि ‘परज’ बहुत दिनों से नहीं सुना है। वह सुना दीजिएगा कल। मैं हक्की-बक्की रह गई।

लेकिन मैं सड़क पर निकलूं और लोग पहचान जाएं, वह समय अली मोरे अंगना और अबकी सावन गाने के बाद आया। 1996 में अली मोरे अंगना गाया और 1999 में अबकी सावन । इसमें कोई दो राय नहीं है कि इसके बाद मुझे अलग ही पहचान मिली। दिल्ली में एक स्टूडियो है, जो जवाहर वत्तल चलाते थे। उन दिनों वह बहुत काम कर रहे थे। उस समय के जो इंडी पॉप के स्टार थे- बाबा सहगल हों, दलेर मेहंदी हों, बडे़-बड़े स्टार्स हों, उनके बहुत हिट एल्बम हुए। उनके स्टूडियो में मैं मल्हार की रिकॉर्डिंग कर रही थी। रिकॉर्डिंग के बीच कभी-कभार जब वह आते, तो उनसे ‘हाय-हैलो’ हो जाती थी। एक दिन वह ‘रिकॉर्डिंग’ के दौरान आए और कहने लगे कि आज जब आपकी ‘रिकॉर्डिंग’ खत्म हो जाए, तो एक कप चाय पीएं मेरे साथ। उन्होंने चाय पीते-पीते ही कहा कि मेरे दिमाग में एक विचार आया है कि शास्त्रीय संगीत के बेस पर कोई गीत बनाया जाए। उसमें आप तानपुरा वगैरह रखिए, लेकिन मैं उसमें ‘ड्रम्स’ और ‘की बोर्ड’ भी डालूंगा। मैंने कहा कि मैंने ऐसा कभी किया नहीं है और यह भी नहीं जानती कि मैं कर पाऊंगी या नहीं। मैंने उन्हें यह भी बताया कि ‘मल्टी ट्रैक रिकॉर्डिंग’ क्या है, मुझे पता तक नहीं है। मैं तो हमेशा साज-संगत साथ लेकर गाती हूं। खैर, झिझकते-झिझकते ‘फाइनली’ एक रोज उन्होंने एक गाना गवाया मुझसे- अली मोरे अंगना। मुझे ‘चैलेंजिंग’ भी लगा कि गाना याद किया और झट से गा दिया। साथ में कोई नहीं, बस हेडफोन से सब सुनाई दे रहा है। इस तरह से वह एलबम तैयार हुआ।

इसके बाद मेरी गायकी से ऐसे श्रोता भी जुड़े, जो शायद पहले शास्त्रीय संगीत नहीं सुनते थे। कुछ लोग ऐसे जरूर होंगे, जिनको शायद यह बात पसंद न आई हो कि मैंने ‘पॉपुलर’ गाना क्यों गाया? या हो सकता है कि उन्हें मेरा गाना ही पसंद न होे। मेरे ख्याल से शास्त्रीय संगीत के जानकारों को एक चिंता यह रही होगी कि जब मैं राग यमन गाने बैठूंगी, तो कहीं कुछ उलटा-सीधा न कर दूं। यह फिक्र जायज है। मैं ऐसे लोगों को सम्मान देती हूं। मैं खुद इस बात को लेकर बेहद सजग रहती हूं कि मैं पंडित रामाश्रय झा, विनय मुद्गल, वसंत ठकार, जितेंद्र अभिषेकी, पंडित कुमार गंधर्व और नैना देवी की शिष्या हूं। मैं जब शास्त्रीय संगीत गा रही होती हूं, तो उसमें कोई हल्की चीज गाने की कोशिश नहीं करती। मैं ‘पॉपुलर म्यूजिक’ गा रही हूं, तो उसमें जबर्दस्ती ‘राग दरबारी’ नहीं थोपती। मैंने कभी इस ‘आइडिया’ से ‘पॉपुलर म्यूजिक’ नहीं गाया कि मैं इससे शास्त्रीय संगीत को आम लोगों के बीच लेकर जाऊंगी। मुझे लगता है कि मुझसे कहीं ज्यादा सशक्त संगीत है। वह किस तरह से, किसके हृदय पर, किसके कानों पर, कब चढ़कर बोलेगा, मुझे नहीं पता। अगर मेरी आवाज से हो जाए, तो मैं धन्य हूं। संगीत के अलावा मुझे तकनीक का बड़ा शौक है, इसीलिए अनीश और मैंने 2003 में गुरुजी की 75वीं वर्षगांठ पर ‘अंडरस्कोर रिकॉड्र्स’ शुरू किया, जिसमें भारतीय संगीत के तमाम रूपों, साहित्य, आर्टिकल, सामग्री का वितरण होता है।
शुभा मुद्गल, गायिका

 

         जीना इसी का नाम है / शौर्यपथ / जिस दिन तामांग विधवा हुईं, उस दिन उन्होंने सिर्फ अपना पति नहीं खोया, बल्कि सब कुछ गंवा दिया। ससुराल वालों का रवैया दिन-ब-दिन खराब होता गया। बात-बेबात उनके साथ मार-पीट की जाने लगी। उनका घर, बचत, सब कुछ हथिया लिया गया।नेपाल के एक रूढ़िवादी हिंदू परिवार में जन्मी राम देवी तामांग 20 साल की थीं, जब उनका विवाह प्रेम लामा के साथ हुआ। प्रेम एक गैर-सरकारी संगठन में काम करते थे और तामांग टेलरिंग का छोटा-मोटा कारोबार चलाती थीं। नेपाल जैसे देश में, जहां औरतों के लिए काम-काज के मौके बहुत सीमित हैं, तामांग के कारोबार की वजह से घर में खुशियों की भरपूर आमद थी। जिंदगी खुशगवार थी और पति-पत्नी, दोनों एक-दूसरे का दामन थामे बेहतर कल के सपने बुनने में जुटे थे।

शादी के एक साल बाद ही एक बेटी ने जन्म लेकर तामांग और प्रेम को मां-बाप के एहसास से आबाद कर दिया था। वे दोनों लगभग रोज इसके लिए अपने ईष्टदेव का धन्यवाद करते। जिंदगी रफ्ता-रफ्ता अपना सफर तय करती रही। इस बीच उन्हें एक और बेटी की खुशी नसीब हुई। मगर एक अनहोनी ने उनकी तमाम खुशियों को ग्रहण लगा दिया। प्रेम एक मोटरसाइकिल दुर्घटना में मारे गए। तामांग की पूरी दुनिया उजड़ गई। इस विपदा में जिन लोगों से उन्हें साथ और सहारे की सबसे अधिक उम्मीद थी, वहीं से उन्हें तोहमत और जिल्लत मिली। ससुराल वाले प्रेम की मौत के लिए उन्हें कमनसीब ठहराने लगे। तामांग कहती हैं, ‘उन्होंने मुझे अपने पति को खा जाने वाली कहा। वे यहीं तक नहीं रुके। मुझे लगातार कोसते रहे कि अगर मैं गांव में रही, तो सभी पुरुषों को खा जाऊंगी।’

जिस दिन तामांग विधवा हुईं, उस दिन उन्होंने सिर्फ अपना पति नहीं खोया, बल्कि अपना सब कुछ गंवा दिया। ससुराल वालों का रवैया दिन-ब-दिन खराब होता गया। सबसे पहले उन्होंने तामांग से उनका टेेलरिंग का कारोबार छीना। फिर बात-बेबात उनके साथ गाली-गलौज और मार-पीट की जाने लगी। उनका घर, बचत, सब कुछ हथिया लिया गया। सामाजिक रूढ़ि के कारण उनका अपना परिवार भी उनके साथ खड़ा नहीं हुआ, क्योंकि यह रवायत भी थी कि विधवा होने के बाद कोई लड़की अपने पिता के घर नहीं लौट सकती थी।

नेपाल के पारंपरिक हिंदू समाज में आज भी एक विधवा स्त्री पर तरह-तरह की बंदिशें लागू हैं। मसलन, वे पुनर्विवाह नहीं कर सकतीं, लाल कपडे़ नहीं पहन सकतीं और न ही कोई आभूषण धारण कर सकती हैं। उन्हें शाकाहारी भोजन ही करना पड़ता है और वे किसी धार्मिक-मांगलिक कार्य में भी हिस्सा नहीं ले सकतीं। एक तरह से वे बहिष्कृत जीवन जीने को बाध्य हैं। तामांग को जल्द ही एहसास हो गया कि इस घुटन भरी जिंदगी से मुक्ति के लिए उन्हें अपने पति का गांव छोड़ कहीं और ठिकाना ढूंढ़ना होगा।

वे नेपाल के उथल-पुथल भरे दिन थे। देश आंतरिक संघर्ष के चक्रव्यूह में फंसा था। तामांग को अपनी दो बच्चियों के भविष्य की चिंता खाए जा रही थी। वह उन्हें पढ़ा-लिखाकर काबिल बनाना चाहती थीं। अंतत: उन्होंने अपनी दोनों बच्चियों के साथ पति का गांव छोड़ दिया और काठमांडू से करीब 25 किलोमीटर पूरब स्थित बनेपा गांव में आ गईं। वह अपने साथ सिर्फ तीन सिलाई मशीन लेकर आईं। उनके लिए वे बेहद मुश्किल भरे दिन थे। दो छोटी बच्चियों की देखभाल के साथ उन्हें अपनी आजीविका का आधार तलाशना था। तामांग को अपने हुनर पर यकीन था। उन्होंने सिलाई का काम शुरू किया। साथ ही, वह घर में अचार बनाकर बेचने लगीं। आहिस्ता-आहिस्ता जिंदगी पटरी पर लौट आई। बेटियां स्कूल जाने लगीं।

लेकिन विधवा होने के बाद तामांग के भीतर कुछ दरक गया था। एक टीस थी, जो मुसलसल उन्हें बेधती रही। आखिर पति के रहते जिस परिवार और समाज से उन्हें मान-सम्मान मिलता रहा, वह एकाएक नफरत में क्यों बदला? वह भी तब, जब पति की मौत में उनकी कोई गलती न थी। उन्होंने बेवा औरतों को बदनसीब समझने वाली सोच से टकराने का फैसला किया। पूरे नेपाल में लाखों की संख्या में विधवाएं अभिशप्त जिंदगी जीने को मजबूर थीं।

तामांग अब विधवाओं के अधिकारों के लिए आवाज उठाने लगीं, उनके सशक्तीकरण के लिए उन्हें दस्तकारी और दूसरे तमाम तरह के हुनर सीखने को प्रेरित करने लगीं। वह कहती हैं, ‘औरतों ने ही बुरे वक्त में मेरा साथ दिया। मैं जिस तकलीफ से गुजर चुकी हूं, उससे उन्हें उबारना चाहती हूं। इसलिए मैं उन्हें प्रोत्साहित करती हूं कि वे हुनरमंद बनें। पैसे तो आते-जाते रहते हैं, मगर हुनर हमेशा आपके साथ रहता है।’

सामाजिक रूढ़ियों को तोड़ते हुए तामांग ने लाल लिबास और आभूषण पहनने शुरू कर दिए। समुदाय के लोग उनसे बार-बार कहते रहते थे कि वह सियासत में उतरें, क्योंकि उनकी बातों का असर लोगों पर होता है। तामांग को भी एहसास हुआ कि शायद इस तरह वह विधवाओं की बेहतर खिदमत कर सकेंगी। साल 2017 में नामोबुद्धा म्युनिसिपैलिटी के डिप्टी मेयर का चुनाव उन्होंने सीपीएन (यूएमएल) के टिकट पर लड़ा और चुनाव में फतह हासिल की। जिस महिला को कभी उनके समाज ने अभागिन कहकर अपमानित किया था, आज वह उनकी किस्मत से रश्क करता है।
प्रस्तुति : चंद्रकांत सिंह राम देवी तामांग, नेपाली सामाजिक कार्यकर्ता

 

        नजरिया / शौर्यपथ /कोरोना के इस संक्रमण काल में कई महान कलाकार हमसे विदा हो गए। इरफान खान और ऋषि कपूर के बाद गीतकार योगेश भी इस दुनिया को छोड़ गए। पिछली सदी के साठ और सत्तर के दशक में यागेश जी ने कई बेहतरीन गीत लिखे, जिनमें से कुछ तो कालजयी सिद्ध हुए। कोई भी संगीत-प्रेमी आनंद का मशहूर गीत जिंदगी कैसी है पहेली हाय... भला कैसे भूल पाएगा? उनके लिखे दर्जनों गीत ऐसे हैं, जिन्हें रसिक श्रोताओं से लेकर आम आदमी तक गुनगुनाता रहा है।
लखनऊ के गणेश गंज मुहल्ले में 1943 में जन्मे योगेश की आरंभिक शिक्षा-दीक्षा एक साहित्यिक-सांस्कृतिक माहौल में हुई थी, क्योंकि उनके पिता इंजीनियर होते हुए भी साहित्यिक अभिरुचि से संपन्न व्यक्ति थे। मगर पिता की असामयिक मृत्यु हो गई और घर में अभाव का यह हाल था कि पिता के अंतिम कर्म के लिए योगेश को चंदा एकत्रित करना पड़ा था। गरीबी सामने मुंह खोले खड़ी थी, और जिंदगी का लंबा सफर बाकी था। योगेश को पढ़ाई बीच में ही छोड़नी पड़ी। जीवन-यापन के लिए उन्होंने टाइपिंग सीखी। और काम तलाशने के सिलसिले में 1961 में वह मुंबई आ गए। मुंबई इसलिए, क्योंकि यहां उनके चचेरे भाई पहले से फिल्मों में लेखन का काम कर रहे थे। एक भरोसा था कि मुंबई में कोई तो जानने वाला होगा। मुंबई आने पर योगेश को दुनिया की कटु हकीकतों से दो-चार होना पड़ा। जिस उम्मीद के सहारे वह आए थे, वहां से अपेक्षित सहयोग नहीं मिल सका। फिर उन्होंने एक ‘चाल’ किराए पर ली। खुद खाना बनाते और जिंदगी को एक राह मिले, इसकी तलाश करते। इसी दौरान गुलशन बावरा से उनका संपर्क हुआ। उन्होंने ही योगेश को गीत लिखने की सलाह दी। शुरुआत तो योगेश ने कहानी लेखन से की, बाद में उन्होंने पटकथा व संवाद लिखने का भी काम किया। लंबे संघर्ष के बाद उन्हें एक गीतकार के रूप में काम मिला।
बतौर गीतकार सखी रौबिन से उनका पदार्पण हुआ। इस फिल्म में योगेश जी ने छह गीत लिखे। मगर तुम जो आओ तो प्यार आ जाए, जिंदगी में बाहर आ जाए तराने ने लोगों का ध्यान खींचा। इसके बाद उन्होंने कई फिल्मों के लिए अनुबंध किया। 1968 में आई एक रात के गीत सौ बार बनाकर मालिक ने सौ बार मिटाया होगा, ये हुस्न मुजस्सिम तब तेरा इस रंग पे आया होगा को मोहम्मद रफी ने बडे़ ही दिलकश अंदाज में गाया है। इस गीत को सुनकर लोग चौंक उठे। इस गाने ने बतौर गीतकार योगेश जी की पहचान स्थापित कर दी।
गीतकार के रूप में उनकी मुख्तलिफ पहचान का आधार थीं- उनकी प्रवाहमय भाषा और बोलों की दार्शनिकता। योगेश जी ने फिल्मों के लिए गीत लिखते हुए अपनी साहित्यिक-सांस्कृतिक विरासत को हमेशा जीवित रखा। आनंद, रजनीगंधा और मिली जैसी कामयाब फिल्मों के गीतों में इसका प्रभाव देखा जा सकता है। इन फिल्मों के गीतों ने अपने समय में धूम मचा दी थी। योगेश ने ऐसे समय में अपने गीतों में शुद्ध हिंदी शब्दों का इस्तेमाल करना शुरू किया, जब उर्दू लफ्जों से सराबोर गाने इंडस्ट्री में छाए हुए थे। फिल्म आनंद से उनकी सलिल चौधरी के साथ जोड़ी बन गई। इस जोड़ी ने कई फिल्मों में साथ काम किया। उस दौर के श्रेष्ठ संगीतकार एस डी बर्मन के साथ भी उन्होंने काम किया। योगेश जी ने आर डी बर्मन, बप्पी लाहिड़ी, राजेश रोशन के साथ भी काम किया और कई अविस्मरणीय गीत रचे। जिंदगी के तमाम थपेड़ों के बीच एक सकारात्मकता उनमें हमेशा बनी रही और यह उनके गीतों में भी दिखती रही।
योगेश को इस बात का बहुत मलाल रहा कि वह कपूर परिवार के लिए कोई गीत न लिख सके। एक साक्षात्कार में उन्होंने स्वीकार किया था कि एक बार राज कपूर ने उनको बुलाया था और वह आरके स्टूडियो पहुंचे भी, लेकिन उनके गार्ड ने उन्हें गीतकार मानने से मना कर दिया। दो-तीन प्रयास के बाद भी वह राज कपूर से नहीं मिल सके। दूसरी तरफ, राज साहब को शायद यह महसूस हुआ कि योगेश उनसे मिलने आए ही नहीं।
योगेश जी के देहांत पर लता मंगेशकर का शोक संदेश ही उनके कद की ऊंचाई को उजागर कर देता है। मगर सच का एक पहलू संगीतकार निखिल का वह ट्वीट है, जिसमें उन्होंने लिखा है, हम योगेश जी को वह सम्मान न दे सके, जिसके वह वाकई हकदार थे।
(ये लेखक के अपने विचार हैं) पवन कुमार, प्रशासनिक अधिकारी

 

        सम्पादकीय लेख / शौर्यपथ / लॉकडाउन लगाना और चलाना जितना कठिन था, उससे कहीं अधिक कठिन है लॉकडाउन हटाना व सामान्य स्थिति में लौटना। लॉकडाउन खुलते समय जिस तरह का तनाव या विवाद राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र दिल्ली में हुआ है, वह अभूतपूर्व ही नहीं, चिंताजनक भी है। दिल्ली से लोग नोएडा या गाजियाबाद में काम करने निकले, तो उन्हें सीमा पर ही उत्तर प्रदेश की पुलिस ने रोक लिया। ठीक ऐसा ही विवाद हरियाणा-दिल्ली सीमा पर एकाधिक बार देखने में आया है। गुरुग्राम की सीमा पर पिछले सप्ताह एक समय पथराव की स्थिति बन गई थी। स्वाभाविक है, अब दफ्तर खुल रहे हैं, तो किसी को दिल्ली जाना है, किसी को दिल्ली से बाहर जाना है। जहां दिल्ली लॉकडाउन 4 के समय से ही कमोबेश खुल चुकी है, वहीं गुरुग्राम, नोएडा और गाजियाबाद में स्थिति अभी सामान्य नहीं है। 1 जून को जब दिल्ली के लोगों को सीमाओं पर रोका गया, तो मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल का रोष स्वाभाविक था, उन्होंने भी दिल्ली की सीमाओं को 8 जून तक बंद रखने का आदेश दे दिया।
आखिर ऐसा क्यों हो रहा है? दिल्ली के पड़ोसी राज्यों की दुविधा को कोरोना संक्रमण के आंकड़ों से समझा जा सकता है। जहां दिल्ली में 18,550 लोग संक्रमित हो चुके हैं, वहीं उत्तर प्रदेश में 7,750 और हरियाणा में महज 1,923 मामले हैं। जहां दिल्ली में 31 मई तक 416 मौतें हो चुकी हैं, वहीं उत्तर प्रदेश में 201 और हरियाणा में 20 लोगों की जान गई है। आंकड़े गवाह हैं कि संक्रमण की स्थिति दिल्ली में गंभीर है। ऐसे में, दिल्ली से आ रहे लोग उत्तर प्रदेश व हरियाणा, दोनों के लिए चिंता की बात हों, तो कोई आश्चर्य नहीं। दिल्ली अपनी अर्थव्यवस्था से और समझौता करने की मुद्रा में नहीं है, तो इसे समझा जा सकता है, पर ध्यान रहे, यह समय रोष का नहीं, बल्कि होश से कदम आगे बढ़ाने का है।
पूरे एनसीआर क्षेत्र के तमाम प्रशासन को कुछ अलग ढंग से मिलकर सोचना होगा। यह एक ऐसा क्षेत्र है, जिसमें लोगों का परस्पर जुड़ाव व्यापक है, लोगों के व्यावसायिक,सामाजिक, पारिवारिक हित जुडे़ हुए हैं। राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र को एक इकाई मानकर चलने की जरूरत है। इस वृहद क्षेत्र की जब रूपरेखा तैयार की गई थी, तब पूरे क्षेत्र के सुख-दुख को एक माना गया था, हालांकि राज्य सरकारों की अपनी-अपनी गुणवत्ता के अनुसार ही ये क्षेत्र कुछ-कुछ बंटे रहे हैं। इसलिए यह क्षेत्र कल भी आदर्श नहीं था और आज भी नहीं है। उदाहरण के लिए, सोमवार को ही दिल्ली के मुख्यमंत्री ने एक एप की घोषणा की है, जिससे कोविड-19 के मामलों की निगरानी की जाएगी, लेकिन क्या राष्ट्रीय राजधानी के पूरे क्षेत्र के लोगों को इसमें शामिल किए बिना कोविड-19 की निगरानी में कामयाबी मिल सकेगी? इस एप के जरिए या किसी विशेष स्वास्थ्य जांच तंत्र के जरिए दिल्ली सरकार को आगे बढ़कर नई लकीर खींचनी चाहिए। साथ ही, जो क्षेत्र दिल्ली से जुड़े हुए हैं, उन्हें भी खास दिल्ली और उसके लोगों के रोजगार के बारे में सोचना चाहिए। यह क्षेत्र उत्तर भारत का व्यावसायिक इंजन है, इसके विभिन्न चालक-संचालक तभी कारगर व कामयाब होंगे, जब उनके बीच समन्वय होगा। काम पर निकले लोगों की जगह-जगह पुख्ता निगरानी हो, लेकिन किसी को काम पर जाने से रोका न जाए, तभी राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र देश के सामने एक मिसाल पेश कर पाएगा।

 

       मेलबॉक्स / शौर्यपथ / कोरोना वायरस से जहां सभी देशों की अर्थव्यवस्था डगमगा रही है, वहीं भारत के सामने नए अवसर भी पैदा हो रहे हैं। अपनी कमियों को पहचानने के साथ-साथ यह हमें आत्मनिर्भर बनने का मौका भी दे रहा है। हालांकि, यह आत्मनिर्भरता केवल औद्योगिक क्षेत्रों से नहीं आ सकती, इसकी बुनियाद बेहतर शिक्षा में छिपी है। आज हमारे देश में युवा और शिक्षित लोगों की कमी नहीं है, फिर भी वे इतने योग्य नहीं कि देश को आत्मनिर्भर बना सकें। लिहाजा आत्मनिर्भर बनने के लिए सबसे पहले हमें गुणवत्तापूर्ण और व्यावहारिक शिक्षा की ओर बढ़ना होगा। शोध के क्षेत्र में प्रोत्साहन ज्यादा जरूरी है। देश के सभी शिक्षण संस्थानों में निरंतर प्रायोगिक कक्षाएं होनी चाहिए। आज हमारे देश में विद्यार्थी प्रतियोगी परीक्षाओं के लिए ज्यादा उत्साहित रहते हैं, वे शोध के क्षेत्र में जाने से कतराते हैं। इस सोच को बदलने की दिशा में सरकार को काम करना चाहिए। शोध-कार्यों को बढ़ावा देकर ही आत्मनिर्भरता की ओर बढ़ा जा सकता है।
प्रतीक राज, झांसी

और सजगता जरूरी
कोविड-19 से निपटने के लिए लगाए गए लॉकडाउन को सरकार ने चरणबद्ध तरीके से खोलने का एलान कर दिया है। लॉकडाउन की वास्तविक पाबंदियां अब सिर्फ कंटेनमेंट जोन में ही लगेंगी। मगर अब हम सबकी जिम्मेदारी कहीं ज्यादा बढ़ गई हैं। हमें ठीक ढंग से दो गज की दूरी का पालन करना होगा। ऐसा इसलिए, क्योंकि पिछले कुछ दिनों से देश में संक्रमण और मौत के आंकडे़ जिस रफ्तार से बढ़ रहे हैं, वे चिंताजनक हैं। चूंकि अर्थव्यवस्था को खोलना भी जरूरी है, इसलिए सुरक्षा के लिहाज से जरूरी है कि लोग खुद पर अनुशासन रखें। खतरा अभी टला नहीं है।
काव्यांशी मिश्रा, मैनपुरी

साल एक, काम अनेक
मोदी सरकार 2.0 के एक साल पूरे हो चुके हैं। बीते एक वर्ष में सरकार कई मुद्दों पर विपक्ष के निशाने पर रही, लेकिन उसने कई ऐसे काम भी किए, जो आम जनता के हित में रहे। मोदी सरकार की सबसे खास बात यह है कि उसके मंत्री भ्रष्टाचार से दूर हैं। इसके अलावा, बरसों से चले आ रहे तीन तलाक को खत्म करके सरकार ने मुस्लिम वर्ग की महिलाओं को बड़ी राहत दी। जम्मू-कश्मीर में अनुच्छेद 370 रद्द करके अलगाववादियों द्वारा देश को विभाजित करने के प्रयासों को भी उसने एक झटके में नाकाम कर दिया। देश की अर्थव्यवस्था को प्रगति-पथ पर आगे बढ़ाना, सभी वर्गों के लोगों को साथ लेकर चलना और उनके हित में काम करना, गरीबों के लिए अपने ही क्षेत्र में रोजगार की संभावनाएं तलाशना, देश में चल रहे आंतरिक विवादों को निष्पक्ष होकर सुलझाना और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर अपनी सफल कूटनीति द्वारा ताकतवर राष्ट्रों के बीच अच्छे संबंध बनाना सरकार के ऐसे कार्य हैं, जो बहुत ही प्रशंसनीय हैं।
अभिषेक सिंह, जौनपुर

दुव्र्यवहार दुखद
महानगरों से लौटने वाले प्रवासियों के साथ कई गांवों में दुव्र्यवहार की खबरें आ रही हैं। ऐसा देखा जा रहा है कि ग्रामीणों के साथ-साथ जन-प्रतिनिधि भी उन्हें गांवों में प्रवेश से रोक रहे हैं। स्वास्थ्य विभाग की जांच के उपरांत, जिन्हें होम क्वारंटीन की सलाह दी गई है, उन्हें भी गांवों से बाहर रहने को कहा जा रहा है। आखिर ऐसा क्यों हो रहा है? घर लौटे प्रवासियों के साथ इस तरह की बदसुलूकी क्यों की जा रही है? जागरूकता के अभाव में वे ऐसा कर रहे हैं। सरकारी अधिकारी गण ऐसे ग्रामीणों और जन-प्रतिनिधियों को बताएं कि संदिग्ध मात्र से कोई कोरोना का मरीज नहीं हो जाता, और फिर, कोरोना के कई मरीज तो घर में भी ठीक हो सकते हैं। घर लौटे प्रवासियों के साथ ऐसा रूखा व्यवहार बंद होना चाहिए।
भूपेंद्र सिंह रंगा, हरियाणा

 

     ओपिनियन / शौर्यपथ / सन् 1972 की गरमियों की एक शाम। लू के थपेडे़ अभी नरम पड़े ही थे कि हम कुछ लड़के छात्रावास से निकले और पीछे बैंक रोड पर स्थित फिराक गोरखपुरी के बंगले की तरफ बढ़ चले। उस गरमी में यह हमारा रोज का कार्यक्रम था। उन दिनों इलाहाबाद विश्वविद्यालय में गरमियों की छुट्टियों में सभी हॉस्टल खाली करा दिए जाते थे और केवल उन छात्रों को, जिन्होंने प्रतियोगी परीक्षाओं का फॉर्म भरा हो, समर हॉस्टल में रुककर अपनी तैयारी का मौका मिलता था। इस बार समर हॉस्टल गंगा नाथ झा छात्रावास था, जिसके ठीक पीछे फिराक का निवास था। अपने जीवन में ही किंवदंती बन चुके उनका बैठका साहित्य, संस्कृति, भाषा और समाज जैसे विषयों पर खुद को समृद्ध करने का सबसे बड़ा अड्डा था।
फिराक साहब की महफिल अभी सजी नहीं थी और हम छात्र वहां पहुंचने वाले पहले ही थे। उस दिन बात भारतीय गांवों पर छिड़ गई। जाहिर है, इन सत्रों में ज्यादातर बोलते फिराक ही थे और हमारी भूमिका श्रोता की अधिक होती थी, पर उस दिन कुछ ऐसा हुआ कि हम भड़क गए। अपने हाथ का जाम स्टूल पर रखते हुए, उंगलियों में फंसे सिगरेट की राख खास अंदाज में झाड़कर और कंचों-सी आंखें अंदर तक धंसे कोटरों में घुमाते हुए उन्होंने जो कहा, वह किसी बम विस्फोट से कम नहीं था। उनके अनुसार, भारत के गांवों को नष्ट कर देना चाहिए। इनके बने रहने तक देश जहालत, गंदगी और पिछडे़पन से मुक्त नहीं हो सकता। इनकी जगह पचास हजार से एक लाख की आबादी वाले छोटे नगर बसने चाहिए, जिनमें मुख्य गतिविधियां कृषि आधारित उद्योगों के इर्द-गिर्द घूमती हों। हम सभी शहरों में आ तो गए थे, पर हमारी जड़ें गांवों में थीं। हम उन पर टूट पडे़, पर फिराक तो फिराक ही थे।
उन्होंने हमें उन ऐतिहासिक बहसों के बारे में बताया, जो भारतीय गांवों को लेकर चली थीं। इनमें सबसे महत्वपूर्ण थी महात्मा गांधी की पुस्तक ‘हिंद स्वराज्य’ या ‘ग्राम स्वराज्य’ और गांव को लेकर उनके प्रेम पगे अव्यावहारिक आग्रहों पर डॉ आंबेडकर की तीखी और जमीनी यथार्थ से जुड़ी प्रतिक्रिया। गांधी के लिए गांव स्वर्ग थे और जो कुछ कुरूप तत्कालीन भारतीय समाज में था, वह सिर्फ आधुनिक तकनीक की वजह से था। उनका सपना था कि गांव आत्मनिर्भर हों। वे अपनी जरूरत की सारी चीजें खुद पैदा करें, उनका स्थापत्य व अदालती निजाम भी स्थानीय हो और खेती-किसानी में उन्हीं यंत्रों का प्रयोग हो, जिन्हें गांव के बढ़ई या लोहार बनाते हों। उनके अनुसार, रेलवे को इसलिए बंद कर देना चाहिए, क्योंकि उससे हैजा फैलता है।
अब इस पर बहस करने की जरूरत नहीं है कि यदि गांधी के आदर्श गांव की परिकल्पना मान ली गई होती, तो हमारी खाद्य सुरक्षा का क्या होता, पर हमारे लिए आंबेडकर की प्रतिक्रिया आज भी प्रासंगिक है। गांधी के स्वर्ग को सिरे से खारिज करते हुए आंबेडकर ने भारतीय गांवों को साक्षात नरक बताया। कलेजा चीर देने वाली तड़प के साथ उन्होंने लिखा कि गांधी अगर ‘अछूत’ परिवार में पैदा हुए होते, तब उन्हें इस स्वर्ग की असलियत पता चलती। जिनका गांवों से जीवित संबंध है, वे आज भी महसूस करते हैं कि आंबेडकर के समय का ‘अछूत’, ‘हरिजन’ की यात्रा करते हुए ‘दलित’ जरूर हो गया है, पर गांव अभी भी उसके लिए नरक ही है।
फिराक गोरखपुरी के साथ बिताई वह शाम आज एक खास वजह से याद आ रही है। हमारी समकालीन स्मृति में कोरोना के मारे महानगरों से अपने गांव क्षत-विक्षत लौटते लाखों मजदूरों के विजुअल्स हमेशा के लिए टंक गए हैं। उनकी यातना और पीड़ा पर मैं पहले ही लिख चुका हूं, यहां मकसद उस विमर्श को रेखांकित करना है, जो उत्तर प्रदेश सरकार की महत्वाकांक्षी घोषणा से शुरू हुआ है। ज्यादातर लौटने वाले पूर्वी उत्तर प्रदेश के हैं और जिन राज्यों के विकास के लिए उन्होंने अपना खून-पसीना बहाया था, विदाई के समय उनका व्यवहार काफी हद तक अमानवीय था, इसलिए यह स्वाभाविक ही था कि यूपी सरकार ऐसी स्थिति से दुखी और नाराज होती, पर ऐसे में उसकी योजना को देखना जरूरी होगा।
पहले तो यह समझना होगा कि शहरों की ओर पलायन सिर्फ आर्थिक कारणों से नहीं होता। शहर और बाजार दलितों व पिछड़ों को मनुष्य की पहचान देते हैं। गांवों में अभी भी दक्षिण टोला मौजूद है। आज भी किसी दलित को उसकी जाति के तोडे़-मरोड़े नाम से ही पुकारा जाता है, मां-बाप का दिया नाम तो उसे शहर में आकर याद आता है। दक्षिण टोला से निकलकर वे शहरों में किसी गंदे नाले या रेल लाइन के किनारे झुग्गी-झोपड़ी के नरक में सिर्फ इसलिए नहीं रहते कि वहां उन्हें आर्थिक सुरक्षा मिलती है, बल्कि इससे अधिक उन्हें मनुष्य जैसी पहचान भी मिलती है। कोरोना शुरुआत में तो हवाई जहाजों से उतरा, पर संक्रमण की आदर्श स्थितियों के कारण जल्द ही महानगरों के स्लम उसके प्रसार स्थल बन गए। अनियोजित और अमानवीय शहरी विकास के कारण हमारे नगरों में गगनचुंबी इमारतें, साफ-सुथरी सड़कें और हरे-भरे पार्क हैं, और उनके ठीक बगल में बजबजाते नालों पर किसी तरह से सिर छिपाने भर की जगह वाली कच्ची बस्तियां। आजादी के बाद कभी नहीं हुआ कि मनुष्यों के रहने लायक शहर बसाने के प्रयास किए जाएं। स्लमों को हटाकर वहां साफ-सुथरी रिहाइशें बसाने की कोशिशें नहीं की गईं। इसकी जगह स्लम में बिजली, पानी जैसी सुविधाएं देने की बातें राजनीतिक-आर्थिक रूप से ज्यादा फायदेमंद थीं, इसलिए उसी की बातें होती रहीं।
ऐसे में, किसी सरकार का यह सोचना कि वह चालीस लाख से अधिक श्रमिकों को गांवों में ही रोक लेगी और उन्हें स्थानीय स्तर पर रोजगार दे देगी, यह देखने वाली बात होगी। पूरी दुनिया में शहरीकरण बढ़ रहा है और भारत में भी अब लगभग आधी आबादी शहरों में रहती है। भविष्य अंतत: शहरों का ही है। गांव में रोककर इन लाखों लोगों को रोजगार देने की जगह उन्हें फिराक गोरखपुरी की सलाह पर गौर करना चाहिए और गांवों का मोह त्यागकर छोटे-छोटे नगर बसाने की सोचना चाहिए। ये नगर साफ-सुथरे मकानों, सड़कों, सीवर, ड्रेनेज, पेयजल और हरियाली वाले रिहाइशी इलाके होंगे, जो वर्ण-व्यवस्था की गलाजत से मुक्ति दिलाकर उन्हें मानवीय बनाएंगे। इनमें छोटे-छोटे उद्योग-धंधे होने चाहिए, जो रोजगार भी दें व पर्यावरण भी बचाएं। पूर्वांचल एक्सप्रेस वे पर ही कई मिनी नोएडा बसाए जा सकते हैं।
(ये लेखक के अपने विचार हैं)विभूति नारायण राय, पूर्व आईपीएस अधिकारी

 

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