November 21, 2024
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शौर्य की बाते ( सम्पादकीय )

शौर्य की बाते ( सम्पादकीय ) (160)

शौर्यपथ विश्लेषण / छत्तीसगढ़ में भाजपा की प्रभारी डी पुरंदेश्वरी हमेशा अपने बयानों के लिए विवाद में रहती हैं तीसरी बार जिस तरह डी पुरंदेश्वरी ने प्रदेश के मुख्यमंत्री भूपेश बघेल के लिए बयान जारी किया जिसमें सच ना बोलने पर तंज कसा वही सच कहने पर सिर के हजार टुकडे हो जाने का श्राप देने जैसा वक्तव्य जारी किया क्या यह भारतीय संस्कृति को अपना मानने वाली भारतीय जनता पार्टी कि एक नेता की ऐसी सोच है आज के इस युग में कौन सा नेता है जो हर बात सच बोल रहा है जब तक सत्ता में है सभी बेदाग हैं सत्ता हटते ही कई तरह के घोटाले उनके सामने आने लगते हैं .15 सालों से छत्तीसगढ़ में भाजपा का राज रहा और पूर्व मुख्यमंत्री डॉ रमन सिंह एक बेदाग छवि के मुख्यमंत्री के रूप में आम जनता के सामने आते रहे किंतु सत्ता जाते ही घोटालों की बौछार लग गई यही राजनीति है किंतु इस तरह की राजनीति में श्राप देने जैसा कार्य क्या  डी पुरंदेश्वरी को शोभा देता है .
  आज डी पुरंदेश्वरी एक बड़े पद पर आसीन हैं बावजूद इसके इस तरह का ब्यान देकर छत्तीसगढ़ की जनता को क्या बताना चाहती है अपने पिछले डोरे में भी डी पुरंदेश्वरी ने ऐसा ही विवादित बयान जारी किया था जिसमें यह कहा गया था कि अगर भाजपा कार्यकर्ता मिलकर थूक ही दे तो पूरी कांग्रेस सरकार उस में बह जाएगी क्या डी पुरंदेश्वरी थूकने और श्राप देने से उठकर जनता के हितों की कभी बात करेंगे आज रोजगार की बात है तो यह चुनावी वादा हर पार्टी करती है केंद्र की भाजपा सरकार के मुखिया प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने भी प्रतिवर्ष 2 करोड़ रोजगार देने की बात कही थी किंतु क्या रोजगार मिला अपितु इसके जवाब में पकौड़ा बेचना भी रोजगार में शामिल है जैसी बात सामने आ गई कांग्रेस ने भी रोजगार की बात कही किंतु वह भी रोजगार देने में फेल हो गई बावजूद इसके अगर बेरोजगारी की बात करें तो केंद्रीय एजेंसी ने भी छत्तीसगढ़ में बेरोजगारों की संख्या काफी कम होने की बात कहीं आज जैसा भी हो छत्तीसगढ़ में बेरोजगारों की संख्या अन्य प्रदेशों के हिसाब से काफी कम है और छत्तीसगढ़ प्रथम स्थान पर है बावजूद इसके बेरोजगारी पर और वादा निभाने पर तंज कसना एवं स्तर हीन शब्दों का इस्तेमाल कर आज डी पुरंदेश्वरी छत्तीसगढ़ के आम जनता की भावनाओं के साथ खिलवाड़ कर रही है राजनीति में हार और जीत लगा ही रहता है किंतु आरोपों की भी एक सीमा होती है किंतु थूकने श्राप देने सिर के हजार टुकडे होने जैसी बात कहकर डी पुरंदेश्वरी ने सिर्फ और सिर्फ छत्तीसगढ़ भाजपा का ही नुकसान किया है और कांग्रेस को आक्रमण करने का मौका दे दिया है इस तरह के बयान से भले ही भाजपा कार्यकर्ता खुश हो जाएं किंतु आम जनता इस तरह की अशोभनीय बयान बाजी को गंभीरता से लेते हैं .छत्तीसगढ़ी ही नहीं भारत की आम जनता सभी बातों को समझती है भले ही कह नहीं पाती किंतु अपना विचार मतदान के मत पेटी में देकर व्यक्त करती है आज छत्तीसगढ़ में जब छत्तीसगढ़िया की बात होती है तब एक दूसरे प्रदेश की नेता द्वारा थूकने , श्राप  देना ,सिर के हजार टुकडे होना जैसे बातों को कर सिर्फ और सिर्फ अपने विचारों को व्यक्त करती है जो कि उनके निजी विचार हो सकते हैं किंतु विश्व की सबसे बड़ी पार्टी का प्रतिनिधित्व करने वालों के मुंह से संस्कार की बात करना और इस तरह का बयान देना कहीं से शोभा नहीं देता आज भाजपा का चेहरा और सोच संसकारी पार्टी , हिंदुत्व ,देश भक्ति सुविचार के रूप में परिलक्षित है किंतु ऐसे बयान सिर्फ और सिर्फ भाजपा को ही नुकसान पहुंचा सकते हैं और ऐसे ब्यान बाजी से व्यक्ति की मानसिकता का भी आभास होता है जो आज प्रदेश में सत्ता में नहीं है फिर भी इस तरह की बात कह रही है अगर सत्ता में आ जाये तो फिर ना जाने इससे और क्या बड़ी बड़ी बाते कह सकती है ये तो भगवन ही जाने ...

शौर्यपथ लेख / कभी कभी इंसान की जिन्दगी में कुछ ऐसे पल आ जाते है जो सदैव के लिए यादो में अंकित हो जाति है ऐसी अमिट यादो को कभी भुलाया नहीं जा सकता . वो पल अच्छे भी हो सकते और बुरे भी . किन्तु आज हम जिन पालो की बात कर रहे है वो पल ऐसे है जिसे और सब तो भूल भी जाए कोई कुछ दिनों में कोई कुछ सालो में किन्तु उन पालो को सिर्फ एक ही व्यक्ति है जो कभी नहीं भूल सकता . मनीष पारख दुर्ग शहर के एक सामजिक और व्यावसायिक व्यक्ति है जिन्होंने जमीन से उठ कर आज आसमान की बुलंदियों तक पहुँचने में जो कार्य किया है वो दुर्ग शहर में किसी से छुपा नहीं है सफलता की सीढी चढ़ते हुए सामजिक कार्यो में भी सदा योगदान करना उनकी जिन्दगी में शामिल है . हर क्षेत्र के बारे में बारीकी पकड ही उनकी खासियत है . . इतने सालो की मेहनत के बाद उनके जन्मदिन को यादगार बनाने में जिस जिस ने भी अपनी सहभागिता निभाई वो तो अविस्मरनीय है किन्तु उससे भी बड़ी बात यह है कि उन सभी को ऐसा करने पर अपरोक्ष रूप से अपने कार्यो और सहभागिता के द्वारा प्रेरित करने का श्रेय मनीष पारख को ही जाता है . मनीष पारख जी को शौर्यपथ समाचार पत्र की ओर से जन्मदिन की हार्दिक शुभकामनाये . उनके यादगार जन्मदिन के पल को उन्होंने फेसबुक के माध्यम से जिन शब्दों में पिरोया वो आप सभी सम्मानित पाठको के सामने है  
  25 साल पहले जब मैंने अपना काम चालू किया था कब सोचा नहीं था कि इतना बड़ा काम कर पाऊंगा और इतने लोग मेरे साथ जुड़ जाएंगे बस मेरी एक ही इच्छा थी कि जो भी काम करो इमानदारी से करो और कुछ ऐसा कर सकूं की लोगों के लिए एक एग्जांपल खड़ा कर सकूं जीवन में बहुत से उतार-चढ़ाव देखे बहुत डाउन भी देखा आज से 20 साल पहले जब मैंने एक मोबाइल लिया था तब मेरा एक सपना था की मेरे पास इतने लोग हैं कि मैं फोन करूं और मेरा काम हो जाए और आज मुझे लगता है कि मैं वह कर पाया
   कल जब सुबह में नाश्ता करके उठा और अचानक से लाइफ केयर के पूरे स्टाफ आ गए मैं बहुत आश्चर्यचकित था और बहुत खुशी भी हुई बस रो नहीं पाया मेरे पास शब्द नहीं है कि मैं क्या लिखूं और क्या बोलूं। वह आंटी लोगों का ख़ुशी से झूमना और पूनम और ग्रुप का डांस करना वह निखत हैंड ग्रुप का गाना गाना ?रियली हार्ट टचिंग था । वह सभी स्टाफ का जो डायरेक्टली इनडायरेक्टली इस पूरे प्रोग्राम का हिस्सा थे सब ने बहुत मेहनत की।मैं अपनी खुशी बयान नहीं कर सकता कि कितना अच्छा लगा मुझे और मुझे सबसे ज्यादा इस बात की खुशी थी कि सब लोग मुझे इतना प्यार करते हैं।
अविश एजुकॉम में भी अनएक्सपेक्टेड था बहुत ही अच्छा सेलिब्रेशन किया सब ने मिलकर।
महावीर स्कूल के सभी टीचर से बहुत ही अच्छा सेलिब्रेशन किया जो मेरे लिए अनएक्सपेक्टेड था।
मेरी 25 साल की मेहनत में मुझे अब लगने लगा कि मैं जो प्यार और अपनापन अपने सब साथ ही लोगों से चाहता था वह मुझे मिल रहा है और मैं इसे कभी नहीं भूल सकता इतना प्यार और इतना अपनापन यह प्यार और अपनापन ऐसे ही बनाए रखना लिखना बहुत कुछ चाहता हूं पर शब्द ही नहीं मिल रहे हैं कि मैं कैसे एक्सप्रेस करूं अपनी फीलिंग को।
आज मैं जो कुछ भी कर पा रहा हूं वह लाइफ केयर में हो अविश एडु कॉम में हो या मेरी पर्सनल लाइफ में हो यह सब मेरे साथी मेरे स्टाफ इनकी वजह से ही है क्योंकि सब लोगों का साथ हमेशा रहा है हर वक्त हर पल मुझे आज भी याद है जब पहली बार कंप्यूटर सेंटर मैंने चालू किया था मेरे पास सैलरी देने के पैसे नहीं थे तो स्टाफ ने तीन महीना सैलरी नहीं ली थी और मुझे पूरा सपोर्ट किया था आज जो सेलिब्रेशन आप लोगों ने किया है उसके वीडियोस देख कर बहुत से लोगों के कमेंट से आए और बहुतों ने बोला कि तू बहुत खुशकिस्मत है फिर तुझे ऐसे स्टाफ मिले और वाकई में मैं बहुत खुशकिस्मत हूं की मुझे इतने अच्छे और इतने प्यार करने वाले लोग मिले जिनके लिए मेरे पास कोई शब्द ही नहीं है।
और पूरे स्टाफ को बांधे रखने के पीछे एक लीडर का बहुत बड़ा हाथ होता है और लीडर ही होता है कि जो पूरे स्टाफ को बांध के रखता है लाइफ केयर में आयशा प्रियंका और अविश एडु कॉम मैं नेहा नेहा प्रियो सभी अपना काम बहुत इमानदारी से कर रहे हैं।
   टीम लीडर सभी अच्छे हैं और सभी अपना काम बहुत इमानदारी से कर रहे हैं मैं इतनी बड़ी टीम है कि सबका नाम नहीं लिख पा रहा हूं और आज जब मैं लोगों को बताता हूं कि मेरी इतनी बड़ी टीम है और इतने अलग-अलग फील्ड में काम कर रहे हैं तो लोग आश्चर्यचकित हो जाते हैं कि कैसे इतने अलग-अलग फील्ड को आप मैनेज कर लेते हो मुझे बहुत खुशी होती है की इतने लोगों का परिवार हमारे इस ऑर्गेनाइजेशन की वजह से चल रहा है। एक समय की बात है एक बार मैं बहुत परेशान होकर सोचा कि यार सब काम बंद करते हैं और आराम से घर में बैठेंगे तो नीलेश के एक दोस्त ने एक शब्द बोला कि आप यह मत सोचो कि आप काम करके आराम से बैठोगे आप यह सोचो कि आप के वजह से 300 लोगों का परिवार चल रहा है और आप उनके लिए काम करो वह दिन है और आज का दिन है मैं कभी रुका नहीं मैंने हमेशा सोचा कि मैं अगर कर सकता हूं तो आगे काम करूंगा।
स्पेशल थैंक्स टू आयशा प्रियंका नेहा नेहा , प्रभा मैडम पारस मैडम प्रज्ञा और बाकी सब भी है किस किस का नाम लूं।
अंत मैं यही कहना चाहूंगा की सब लोग पूरी इमानदारी से इसी तरह काम करते रहे और इसी तरह आगे बढ़े मैं हमेशा हर वक्त सबके साथ खड़ा हूं। आप सबको बहुत-बहुत धन्यवाद देता हूं कि आप लोगों ने इतना समय मेरे लिए निकाला और मेरे बर्थडे को इतना अच्छा बनाया जो मैं कभी भूल नहीं सकता और इतना प्यार बहुत ही किस्मत वालों को नसीब होता है उनमें से मैं एक हूं।
साभार -मनीष पारख के फेसबुक वाल से ...

शौर्यपथ ( व्यंग लेख )। आज के जमाने में हैसियत के एक अलग ही मायने है । किसी की भी हैसियत के हिसाब से ही समाज में उसकी पूछ परख होती है । किंतु आज भी कुछ ऐसे कुंठा जीवी लोग समाज में बहुतेरे पाए जाते हैं जिनकी औकात चवन्नी की भी नही होती किंतु बाते आसमान से भी ऊंची ऐसे कुंठा जीवी को ये भी नही मालूम कि उनकी स्वयं की औकात कितनी धरातल की गहराई में है । ऐसा ही एक वाक्या हाल में ही देखने को मिला । जैसा कि आज कल समाज में बहुतेरे ऐसे व्यक्ति मिल जायेंगे जो पत्रकारिता से जुड़े है कुछ कार्य कर रहे तो बहुतेरे वसूली । पिछले दिनों हमारे मित्र का सामना ऐसे ही पत्रकार से हुआ । मित्र भी पत्रकार और मित्र को औकात दिखाने की बात करने वाला भी पत्रकार । जोश जोश में औकात की बात करने वाले पत्रकार ने एक सभा में मित्र के उपर ये व्यंग कस दिया कि कुछ पेपर की प्रति छापने वाले की क्या औकात बात बड़ी कह दी हमने मित्र की तरफ देखा सोंचा कि मित्र को सबके सामने नीचा दिखाया जा रहा मित्र कितना दुखी हो गया होगा किंतु मित्र के चेहरे में औकात बताने वाले पत्रकार की बात सुनकर गुस्सा या ग्लानि के बजाए मुस्कुराहट देखा तो मन संशय हुआ कि  सभी के सामने हसने का प्रयास किया जा रहा है शायद हम भी कुछ सोच कर चुप रहे ।
  जब एकांत में समय मिला तो हमने मित्र से संशय भरे शब्दों में पूछा कि एक व्यक्ति ने इतनी कड़वी बात कही फिर भी तुम्हारे चेहरे पर मुस्कुराहट ही रही आखिर बात क्या है कौन है वो फलाना पत्रकार जो ऐसे आरोप लगा रहा था और तुम हंस रहे थे ।
  तब मित्र ने जो बात कही उसे सुनकर हमे भी हंसी आ गई । मित्र ने बताया कि वो तथाकथित पत्रकार से क्या बहस करे सारा शहर जानता है कि जिस थाली में खाता उसी में छेद करता कई बार तो व्यापारियों ने इसकी पुलिस में शिकायत की वहा भी बेशर्म माफी मांग कर आ गया । तीन _चार अखबार का पंजीयन करा चुका पर एक दो अंक छापने के बाद टे बोल गया । फर्जी दस्तावेज के सहारे बड़ा पत्रकार बना फिरता है समाज में अकेला घूमता है शेर कहता है अपने आप को पर है तो शेर भी जानवर ही जिसे समाज रूपी शहर में सर्कस में मनोरंजन के लिए ही उपयोग किया जाता है । जिसकी खुद की औकात एक समाचार को सुचारू रूप से चलाने की नही उसकी औकात वाली बात का जवाब देना भी मूर्खता ही है । और इस तरह मैं और मेरा मित्र हंसते हुए घर को निकल गए ।
लेख - शरद पंसारी , प्रधान संपादक शौर्यपथ समाचार पत्र

छत्तीसगढ़ / शौर्यपथ / पेंशन योजना एक ऐसी योजना है जिसके कारण उन कर्मचारियों का परिवार में महत्तव अंतिम साँस तक बरक़रार रहता है जो औलादे अपने माता पिता को सोने का अंडा देने वाली मुर्गी समझती है . आज ऐसा कई जगह देखने को मिलता है जहा जो परिवार के बुजुर्ग जब सेवानिवृत होकर घर में अपना समय गुजरते है और सेवानिवृत की एक मुश्त राशि जब उनके बैंक खातो में आती है तो परिवार के अन्य सदस्य तब तक उनके आगे पीछे मंडराते है जब तक उनके बैंक खातो में लाखो रूपये रहते है एक बार ये रूपये उनके कब्जों में गए नहीं कि फिर असली रंग दिखना शुरू हो जाता है तब उम्र के आखिरी पडाव में ऐसे बुजुर्ग परिवार से तो दूर हो ही जाते है साथ ही एक एक रूपये के लिए भी तरसते रहते है . किन्तु पेंशन राशि के महीने दर महीने आने से परिवार के हर सदस्य का प्यार उन पर हमेशा बना रहता है . ऐसा नहीं कि हर बुजुर्ग के साथ यह होता है किन्तु कुछ के साथ ऐसी घटना अक्सर सामने आती रहती है . भूपेश सरकार की इस पेंशन योजना को पुनह लागू करने से कर्मचारियों में जिस तरह की ख़ुशी दिखाई दी उससे तो यह साफ़ है कि आने वाले समय में हर वो पेंशनधारी  अपनी जिन्दगी की आखिरी साँस तक सर उठा कर परिवार के मुखिया के रूप में अपनी जिन्दगी जीता रहेगा और परिवार में कभी तिरस्कार का सामना नहीं करना पड़ेगा क्योकि किसी ने भी क्या खूब कहा है पैसा भगवान् तो नहीं किन्तु भगवान् से कम भी नहीं . मेरे निजी नजरिये के के अनुसार भूपेश सरकार का यह फैसला कई परिवार को एक सूत्र में बांधे रखने में एक कारगार कदम है जिसकी जितनी भी सराहना कि जाए बहुत ही कम है जैसे सूर्य को रौशनी दिलाने के सामान . भूपेश सरकार के पेंशन स्कीम की पुनः लागू करने पर साधुवाद .
शरद पंसारी
संपादक - दैनिक शौर्यपथ समाचार पत्र 

शौर्यपथ / प्रदीप भोले एक गरीब परिवार का आदमी था।अपनी पत्नीऔर दो बच्चों के साथ मेहनत मजदूरी करके वह परिवार की जिंदगी की गाड़ी जैसे तैसे खींच रहाथा। बरसात के मौसम में लगातार बारिश की वजह से काम पर नहीं जा पाने के कारण घर में राशन पानी का संकट उठ खड़ा हुआ।आर्थिक तंगी से जूझने की नौबत आ गई थी।ऐसे में परिवार चलाने की जिम्मेदारी को निभाने के लिए भोले को खराब मौसम में भी काम पर जाना ही पड़ा।
    तब भोले की पत्नी घर पर गीली लकड़ी सुलगाते हुए चुल्हे पर रोटी पका रही थी।बच्चे भूख से ब्याकुल थे।वे रोटी पकने की बेसब्री से प्रतीक्षा कर रहे थे।तवे परअधपकी रोटी को मां ने चिमटे से पकड़कर चूल्हे कीआग में पलट पलट कर सेंकना शुरू किया।तभीभूख कीआग में जलती पेट कीअंतड़ियों को सहलाते हुए बच्चे ने सवाल किया- मां बहुत खराब मौसम है,फिर भी बाबूजी को काम करने क्यों जाना पड़ा?
   बच्चे के सवाल का जवाब देती हुई मां बोली-देखो बेटा,चूल्हे की धधकतीआग में रोटी को पकाने,उसे जलने से बचाने के लिए उलटने पलटने की जवाबदेही चिमटे की ही होती है।पकी हुई रोटी को निकालने के लिए चिमटे को आग मेंअपना मुंह जलाना ही पड़ता है।तुम्हारे बाबूजी भी चिमटे की तरह ही हैं।वेअपनी जिम्मेदारी निभाने निकले हैं।इतना कहते-कहते मां की आंखें धूंए से भर गई थी।
   इसे देखकर बच्चा उठा और मां कीआंखों से बहते आंसू को पोंछते हुए बोला- मां,तुझेऔर बाबूजी को गरम गरम रोटी खिलाने के लिए,बड़ा होकर मैं भी चिमटा ही बनूंगा।बच्चे की बात सुनते ही मां ने झट से रोटी का एक टुकड़ा बच्चे के मुंह में डालाऔर उसे कलेजे से लिपटा लिया।
 विजय मिश्रा 'अमित'
पूर्व अति.महाप्रबंधक(जन.) छग पावर कम्पनी,

  शौर्यपथ / गांव के सामान्य किसानों में प्रदीप भोले की गिनती होती थी।जमीन कम थी मगर उसका हौसला गज़ब का था। थोड़ी सी खेती में कुछअच्छा उपजा लेने की आस लिए बैंक से लोन लेने शहर के बैंक में भोले पहुंचा था।दो तीन महीने तक वह बैंक के चक्कर काट चुका था,पर फायदा ढेले भर का नहीं हुआ था।आखिर में बैंक के बड़े बाबू ने कुछ ले देकर भोले को लोन दिलाना पक्का कर दिया।
               लोन देने के पहले उसके खेत जमीन का प्रत्यक्ष मुआईना करने बड़े बाबू लोन के कागजात लेकर भोले के गांव पहूंचा।वह रात की पार्टी के बहाने भोले के घर रुका।आधी रात तक मुर्गा शराब खाने पीने के बाद मुंह फाड़ते हुए बाबू सोने के लिए पंलग के करीब पहुंचा।पंलंग में मछरदानी नहीं लगा था।इसे देखकर बौखलाए सांड़ की तरह वह भड़क उठाऔर बोला-बिना मच्छरदानी के मैं सो नहीं पाऊंगा।साले मच्छर तो रात भर में मेरे शरीर का पूरा खून चूस डालेंगे।
         बाबू की बातें सुनकर  भोले सकपकाया हुआ दौड़ते गयाऔरअपने बच्चे की खाट पर लगे मछरदानी को निकाल कर बैंक बाबू के पलंग में लगा दिया।बैंक बाबू अपने रूदबे के असर में डुबा बेखबर शीघ्र ही चैन की नींद सो गया।यह सब देखकर भोले का बच्चा पूछ पड़ा- बाबूजी,बैंक बाबू जैसे मच्छर हमें ना चूस सकें इसके लिए कोई मछरदानी नहीं बनी है क्या ? बच्चे के इस प्रश्न से भोले की सोई आत्मा जाग उठी।उसका स्वाभिमान उसे ललकारते हुए धिक्कारने लगा।
        भोले तमतमा उठाऔर सोते हुए बैंक बाबू के पलंग के करीब जा पहुंचा।उसने पलंग में लगे मछरदानी को झटके से निकाल कर वापस अपने बच्चे की पलंग पर लगा दिया।भोले का ऐसा भयानक रूप देखते ही बैंक बाबू सहम गया।थूक निगलते हुए वह उठाऔर साथ में लाए लोन के कागज पर कांपते हाथों से धड़ल्ले से हस्ताक्षर करता चला गया।
    हस्ताक्षर करने के उपरांत वह गिड़गिड़ाते हुए बोला -भोले ,मुझे अभीआधी रात को घर से मत भगाना।इस वक्त शहर जाना माने अपनी जिंदगी को खतरे में डालना है।दया करना मेरे छोटे छोटे बच्चे हैं।भोले ने हंसते हुए कहा-चिंता मत करो साहेब।हम मच्छर नहीं किसान हैं।अपना पेट भरने के लिए हम दूसरों का खून नहीं चूसते,बल्कि दूसरों का पेट पालने के लिएअपना खून-पसीना बहाते हैं। इसीलिए शोषक नहीं पालनहार पोषक कहलाते हैं। भोले की बातें सुनकर बैंक बाबू की आंखें शर्म से झुकी जा रही थीं।
विजय मिश्रा "अमित"
 पूर्व अति महाप्रबंधक (जन.)
छग पावर कम्पनी,

श्री ललित चतुर्वेदी, उप संचालक जनसंपर्क

रायपुर / शौर्यपथ / आदिवासी समुदाय प्रकृति प्रेमी होते हैं। उनकी जीवनशैली सरल और सहज होती है। इसकी स्पष्ट छाप उनकी कला, संस्कृति, सामाजिक उत्सवों और नृत्यों में देखने को मिलती है। प्रकृति से जुड़ा हुआ यह समुदाय न केवल उसकी उपासना करता है, बल्कि उसे सहेजकर भी रखता है। ऐसा ही एक समुदाय गोंड़ जनजाति है। जिसकी कई उपजातियां हैं। जिनके रीति-रिवाजों में लोक जीवन के अनेक रंग देखने को मिलते हैं।
     धुरवा जनजाति गोंड जनजाति की उपजाति है। धुरवा जनजाति छत्तीसगढ़ राज्य के बस्तर, दंतेवाडा तथा सुकमा जिले में निवास करती है। बांस के बर्तन एवं सामग्री बनाने मंे दक्षता के कारण धुरवा जनजाति को ‘बास्केट्री ट्राइब‘ अर्थात ‘बांस का कार्य‘ करने वाली जनजाति की संज्ञा दिया गया है। सन् 1910 के बस्तर के प्रसिद्ध (आदिवासी विद्रोह ‘भूमकाल के नायक शहीद वीर गुण्डाधुर की सेना द्वारा मड़ई नृत्य के माध्यम से अपनी भावना जनसामान्य तक पहुंचाने के लिए इसे मेला मड़ई मंे प्रदर्शित करते थे।
धुरवा युवक-युवतियां वीर रस से परिपूर्ण होकर मड़ई नृत्य करते हैं, पुरूष हाथ में  कुल्हाडी एवं मोरपंख का गुच्छा (मंजूरमूठा) लेकर उंगली से मुंह से सुईक-सुईक की आवाज निकाल कर दुश्मनों को ललकारते हुए नृत्य करते है। युवतियां-युवकों के पीछे-पीछे लय मिलाते हुए सामूहिक रूप में नृत्य करती हैं। नृत्य के दौरान हाथ में मोर पंख का गुच्छा (मंजूरमूठा) रखते हैं।
    मुरिया जनजाति छत्तीसगढ़ राज्य के दक्षिण मंे स्थित बस्तर संभाग में निवास करती है। मुरिया जनजाति गोड़ जनजाति की उपजाति हैं। मुरिया जनजाति के तीन उपभाग- राजा मुरिया, झोरिया मुरिया तथा घोटूल मुरिया होते है। रसेल एवं हीरालाल के ग्रंथ द टाइब्स एंड कास्टस ऑफ द सेन्टल प्रोविसेंस ऑफ इंडिया भाग-3, 1916 के अनुसार बस्तर के गोंड, मुरिया एवं माडिया दो समूह में बंटे हुए है। मुरिया शब्द की व्युत्पत्ति ‘मूर‘ अर्थात बस्तर के मैदानी क्षेत्रों में पाये जाने वाले पलाश वृक्ष या ‘मुर‘ अर्थात जड़ शब्द से हुई है‘‘। एक अन्य मान्यता के अनुसार ‘मूर‘ अर्थात ‘मूल‘ निवासी को मुरिया कहा जाता है।



वर्तमान में ग्राम देवी की वार्षिक, त्रि-वार्षिक पूजा के दौरान मड़ई नृत्य करते हैं

   वर्तमान में ग्राम देवी की वार्षिक, त्रि-वार्षिक पूजा के दौरान मड़ई नृत्य करते हैं, इसमें देवी-देवता के जुलूस के सामने मड़ई नर्तक दल नृत्य करते है एवं पीछे-पीछे देवी-देवता की डोली, छत्रा, लाट आदि प्रतीकों को जुलूस रहता है। मड़ई के अगले दिन मड़ई नर्तक दल ग्राम के सभी घरों में जाकर मड़ई नृत्य करते हैं, जिसे ‘बिरली‘ कहते हैं। ग्रामवासी मड़ई नर्तक दल को धान, महुआ और रूपए देते हैं। नृत्य के समापन के पश्चात ग्राम के मुखिया के साथ नर्तक दल भोज करता है और खुशियां मनाता हैं। नृत्य में धुरवा पुरूष सफेद शर्ट, काला हाफ कोट, धोती या घेरेदार लहंगा के साथ कपड़े मंे सिला हुआ कमर बंद या सिर में तुराई, पेटा (पगड़ी), मोर पंख, तुस (कपड़े से बनी पतली पट्टी), गले में विभिन्न प्रकार की मालाएं, पैरों में झाप (रस्सी में बंधा हुआ घुंघरू) का श्रृंगार करते हैं।
महिलाएं ब्लॉउज तथा पाटा, साड़ी पहनती हैं। बालों के खोंसा (जूडे़ में) कांटा, पनिया (बांस की कंघी), गले में चीप माला, सूता तथा बाजार में मिलने वाली विभिन्न प्रकार की मालाएं, कान में खिलवां, बांह में बांहटा, कलाई मंे झाडू तथा पैरों में पायल धारण करती हैं। मड़ई नृत्य वाद्य यंत्र हेतु ढोल, तुडबुड़ी, बांसुरी, किरकिचा, टामक, जलाजल, तोड़ी का उपयोग किया जाता है। नृत्य का प्रदर्शन मेला-मड़ई, धार्मिक उत्सव तथा मनोरंजन अवसर पर किया जाता है।
  धुरवा जनजाति विवाह के दौरान विवाह नृत्य करते हैं। विवाह नृत्य वर-वधू दोनों पक्ष में किया जाता है। विवाह नृत्य तेल-हल्दी चढ़ाने की रस्म से प्रारंभ कर पूरे विवाह में किया जाता है। इसमें पुरूष और स्त्रियां समूह मंे गोल घेरा बनाकर नृत्य करते हैं। पुरूष सफेद शर्ट, काला हाफ कोट, धोती या घेरेदार लहंगा के साथ कपड़े में सिला हुआ कमर बंद या सिर में तुराई, पेटा (पगड़ी), मोर पंख, तुस (कपड़े से बनी पतली पट्टी), गले में विभिन्न प्रकार की मालाएं, पैरों में झाप (रस्सी में बंधा हुआ घुंघरू) का श्रृंगार करते हैं।
   महिलाएं ब्लॉउज तथा पाटा, साड़ी पहनती है बालों के खोंसा (जूड़े में) कांटा, पनिया (बांस की कंघी), गले में चीप माला, सूता तथा बाजार में मिलने वाली विभिन्न प्रकार की मालाएं, कान में खिलवां, बांह में बांहटा, कलाई में झाडू तथा पैरों में पायल का श्रृंगार करती है। नृत्य के दौरान हाथ में मोरपंख का गुच्छा (मंजूरमूठा) रखती हैं। मड़ई नृत्य में ढोल, तुडबुड़ी, बांसुरी, किरकिचा, टामक, जलाजल, वाद्ययंत्रों का प्रयोग किया जाता है। नृत्य विवाह के अवसर पर तथा मनोरंजन हेतु किया जाता है।
    मुरिया जनजाति के सदस्य नवाखानी त्यौहार के दौरान के दौरान लगभग एक माह पूर्व से गेड़ी निर्माण प्रारंभ कर सावन मास के हरियाली अमावस्या से भादो मास की पूर्णिमा तक गेड़ी नृत्य किया जाता है। गेड़ी नृत्य नवाखानी त्यौहार के समय करते हैं। इसमें मुरिया युवक बांस की गेंड़ी में गोल घेरा में अलग-अलग नृत्य मुद्रा में नृत्य करते हैं। नृत्य के दौरान युवतियां गोल घेरे में गीत गायन करती है। पूर्व समय ग्राम में बारिश के दिनों में ग्राम में अधिक कीचड़ होता था, ऐसी स्थिति में गेड़ी के माध्यम से एक दूसरे स्थान पर जाते है। पूर्व में ऊंचे-ऊंचे गेड़ी का निर्माण करते थे।
गेड़ी नृत्य के समय मुरिया जनजाति की महिलाएं लुगड़ा या साड़ी, पुरूष काले रंग की फूल शर्ट, प्लास्टिक की लंबी माला, इसे दोनों कंधें से छाती एवं पीठ में क्रास स्थिति में पहनते हैं। कमर में कपड़े में सिला हुआ कमर बंद या पट्टा, कमर के नीचे लाल-पीले रंग का घेरेदार लहंगा सिर में लाल पगड़ी, मोर पंख या पंखों का गुच्छा, कपड़े में सिला हुआ कपड़े से बने फूलों की पट्टी, गले में कपड़े के लाल गुच्छों की माला और अन्य माला, पैरों में घुंघरू (रस्सी में बंध अुआ) का श्रृंगार करते हैं।


वाद्य यंत्रों में बांस से बना गेंड़ी का मुख्य रूप से उपयोग किया जाता है। जिसे विभिन्न रंगों से रंग कर सजाया जाता है। साथ ही वादक मांदरी, तुडबुडी, विसिल या सीटी एवं बांसुरी का उपयोग नृत्य में करते है।
     गेंड़ी नृत्य विवाह, मेला-मंड़ई, धार्मिक उत्सव के अवसर तथा मनोरंजन के लिए करते हैं। गेंड़ी नृत्य युवाओं को नृत्य है। गेंड़ी नृत्य संतुलन, उत्साह तथा रोमांस से परिपूर्ण है। मुरिया जनजाति में गेंड़ी के अनेक खेल, गेंड़ी दौड़ आदि प्रतियोगिता होती है। जिसमें पुरूष गेंड़ी पर चढ़कर नृत्य करते हैं।
   गंवरमार नृत्य में मुरिया जनजाति के नर्तक दल गौर-पशु मारने का प्रदर्शन करते है। यह नाट्य तथा नृत्य का सम्मिलित रूप है। इस नृत्य में दो व्यक्ति वन में जाकर गौर-पशु का शिकार करने का प्रयास करते है, किन्तु शिकार के दौरान गौर-पशु से घायल होकर एक व्यक्ति घायल हो जाता है। दूसरा व्यक्ति गांव जाकर पुजारी(सिरहा) को बुलाकर लाता है जो देवी आह्वान तथा पूजा कर घायल व्यक्ति को स्वस्थ्य कर देता है तथा दोनों व्यक्ति मिलकर गंवर पशु का शिकार करते है। इसी के प्रतीक स्वरूप गवंरमार नृत्य किया जाता है।
   महिलाएं लुगड़ा या साड़ी, पुरूष काले रंग की फूल शर्ट, प्लास्टिक की लंबी माला, इसे दोनों कंधों से छाती व पीठ में क्रास की स्थिति में पहनते हैं कमर में कपड़े में सिला हुआ कमरबंद या पट्टा कमर के नीचे लाल-पीले रंग का घेरेदार लहंगा, सिर में लाल पगड़ी मोर पंख या पंखों का गुच्छा, कपड़े में सिला हुआ कपड़े से बने फूलों की पट्टी, गले में कपड़े के लाल गुच्छों की माला एवं अन्य माला, पैरों में घुंघरू (रस्सी में बंधा हुआ) का श्रृंगार करते है।
   वाद्य यंत्रों में ढोलक, तुडबुडी, सिटि, बांसुरी आदि का प्रयोग किया जाता है। नृत्य का प्रदर्शन मुरिया जनजाति के सदस्य गंवरमार मेला-मंडई, धार्मिक उत्सव के अवसर पर तथा मनोरंजन के लिए किया जाता है।

श्री ललित चतुर्वेदी, उप संचालक जनसंपर्क

 शौर्यपथ लेख / राष्ट्रीय आदिवासी नृत्य महोत्सव में छत्तीसगढ़ की लोक संस्कृति, लोक गीत, नृत्य और संपूर्ण कलाओं से परिचित होगा देश और विदेश। छत्तीसगढ़ की राजधानी रायपुर में यह आयोजन 28 से 30 अक्टूबर तक किया जा रहा है। राजधानी का साईंस कॉलेज मैदान आयोजन के लिए सज-धज कर तैयार हो चुका है। इस महोत्सव में विभिन्न राज्यों के आदिवासी लोक नर्तक दल के अलावा देश-विदेश के नर्तक दल भी अपनी प्रस्तुति देंगे।
    छत्तीसगढ़ राज्य की 5 विशेष पिछड़ी जनजातियों में से एक बैगा जनजाति है। राज्य के कबीरधाम, मंुगेली, राजनांदगांव, बिलासपुर और कोरिया जिले में निवासरत है। बैगा जनजाति अपने ईष्ट देव की स्तुति, तीज-त्यौहार, उत्सव एवं मनोरंजन की दृष्टि से विभिन्न लोकगीत एवं नृत्य का गायन समूह में करते हैं। इनके लोकगीत और नृत्य में करमा, रीना-सैला, ददरिया, बिहाव, फाग आदि प्रमुख हैं। इसी प्रकार दण्डामी माड़िया जनजाति गांेड जनजाति की उपजाति है। सर डब्ल्यू. वी. ग्रिगसन ने अपने प्रसिद्ध ग्रंथ ’द माड़िया जनजाति के सदस्यों द्वारा नृत्य के दौरान पहने जाने वाले गौर सिंग मुकुट के आधार पर ’बायसन हार्न माड़िया‘ जनजाति नाम दिया। प्रसिद्ध मानव वैज्ञानिक वेरियर एल्विन का ग्रंथ ’द माड़िया-मर्डर एंड सुसाइड‘ (1941) दण्डामी माड़िया जनजाति पर आधारित है। बैगा और माड़िया जनजाति के रस्मों-रिवाजों पर आधारित प्रमुख लोक नृत्य इस प्रकार हैं।
’रीना सैला नृत्य‘
    बैगा जनजाति का प्रकृति एवं वनों से निकट संबंध है। जिसका बखान इनके लोक संस्कृति में व्यापक रूप से देखने को मिलता है। बैगा जनजाति की माताएं, महिलाएं अपने प्रेम एवं वात्सल्य से देवी-देवताओं और अपनी संस्कृति का गुणगान गायन के माध्यम से उनमें गीत एवं नृत्य से बच्चों को परिचित करने का प्रयास करती है। साथ ही बैगा माताएं अपने छोटे शिशु को सिखाने एवं वात्सल्य के रूप में रीना का गायन करती हैं। वेशभूषा महिलाएं सफेद रंग की साड़ी धारण करती हैं। गले में सुता-माला, कान में ढार, बांह में नागमोरी, हाथ में चूड़ी, पैर में कांसे का चूड़ा एवं ककनी, बनुरिया से श्रृंगार करती हैं। वाद्य यंत्रों में ढोल, टीमकी, बांसुरी, ठीसकी, पैजना आदि का प्रयोग किया जाता है।
    सैला बैगा जनजाति के पुरूषों के द्वारा सैला नृत्य शैला ईष्ट देव एवं पूर्वज देव जैसे-करमदेव, ग्राम देव, ठाकुर देव, धरती माता तथा कुल देव नांगा बैगा, बैगीन को सुमिरन कर अपने फसलों के पक जाने पर धन्यवाद स्वरूप अपने परिवार के सुख-समृद्धि की स्थिति का एक दूसरे को शैला गीत एवं नृत्य के माध्यम से बताने का प्रयास किया जाता है। इनकी वेशभूषा पुरूष धोती, कुरता, जॉकेट, पगड़ी, पैर में पैजना, गले में रंगबिरंगी सूता माला धारण करते है। वाद्य यंत्रों में मांदर,ढोल, टीमकी, बांसुरी, पैजना आदि का प्रमुख रूप से उपयोग करते हैं। बोली बैगा जनजाति द्वारा रीना एवं शैला का गायन स्वयं की बैगानी बोली में किया जाता है। यह नृत्य प्रायः क्वार से कार्तिक माह के बीच मनाए जाने वाले उत्सवों, त्यौहारों में किया जाता है।
’दशहेरा करमा नृत्य‘
    बैगा जनजाति समुदाय द्वारा करमा नृत्य भादो पुन्नी से माधी पुन्नी के समय किया जाता है। इस समुदाय के पुरूष सदस्य अन्य ग्रामों में जाकर करमा नृत्य के लिए ग्राम के सदस्यों को आवाहन करते हैं। जिसके प्रतिउत्तर में उस ग्राम की महिलाएं श्रृंगार कर आती है। इसके बाद प्रश्नोत्तरी के रूप में करमा गायन एवं नृत्य किया जाता है। इसी प्रकार अन्य ग्राम से आमंत्रण आने पर भी बैगा स्त्री-पुरूष के दल द्वारा करमा किया जाता है। करमा रात्रि के समय ग्राम में एक निर्धारित खुला स्थान जिस खरना कहा जाता है में अलाव जलाकर सभी आयु के स्त्री, पुरूष एवं बच्चे नृत्य करते हुए करते है। अपने सुख-दुःख को एक-दूसरे को प्रश्न एवं उत्तर के रूप में गीत एवं नृत्य के माध्यम से प्रस्तुत करते है।
    करमा नृत्य के माध्यम से बैगा जनजाति में परस्पर सामन्जस्य, सुख-दुःख के लेन देन के साथ ही नव युवक-युवतियां भी आपस में परिचय प्राप्त करते है। इस नृत्य में महिला सदस्यों द्वारा विशेष श्रृंगार किया जाता है। जिसमें यह चरखाना (खादी) का प्रायः लाल एवं सफेद रंग का लुगड़ा, लाल रंग की ब्लाउज, सिर पर मोर पंख की कलगी, कानों में ढार, गले में सुता-माला, बांह में नागमोरी, कलाई में रंगीन चूड़िया एवं पैरों में पाजनी और विशेष रूप से सिर के बाल से कमर के नीचे तक बीरन घास की बनी लड़ियां धारण करती हैं, जिससे इनका सौंदर्य एवं श्रृंगार देखते ही बनता है। पुरूष वर्ग भी श्रृंगार के रूप में सफेद रंग की धोती, कुरता, काले रंग की कोट, जाकेट, सिर पर मोर पंख लगी पगड़ी और गले में आवश्यकतानुसार माला धारण करते हैं। वाद्य यंत्रों में मांदर, टिमकी, ढोल, बांसुरी, ठिचकी, पैजना आदि का उपयोग किया जाता है।
’करसाड़ नृत्य‘
    दण्डामी माड़िया जनजाति नृत्य के दौरान पहने जाने वाले गौर सिंग मुकुट, बस्तर, दशहरा के अंतिम दिनों में चलने वाले विशालकाय काष्ठ रथ को खींचने का विशेषाधिकार और स्वभाव के लिए प्रसिद्ध है। इस नृत्य में दण्डामी माड़िया पुरूष सिर पर कपड़े की पगड़ी या साफा, मोती, माला, कुर्ता या शर्ट, धोती एवं काले रंग का हाफ कोट धारण करते हैं। वहीं महिलाएं साड़ी, ब्लाउज, माथे पर कौड़िया से युक्त पट्टा, गले में विभिन्न प्रकार की माला और गले, कलाई, पैरों पर बाजार में मिलने वाले सामान्य आभूषण पहनती हैं।
    करसाड़ नृत्य के लिए पुरूष सदस्य अपने गले में लटका कर ढोल एवं मांदर का प्रयोग करता है। महिलाएं लोहे के रॉड के उपरी सिरे में लोहे की विशिष्ट घंटियों से युक्त ’गुजिड़‘ नामक का प्रयोग करती है। एक पुरूष सदस्य सीटी का प्रयोग करत है, नृत्य के दौरान सीटी की आवाज से ही नर्तक स्टेप बदलते हैं। नृत्य के प्रदर्शन का अवसर दण्डामी माड़िया जनजाति में करसाड़ नृत्य वार्षिक करसाड़ जात्रा के दौरान धार्मिक उत्सव में करते हैं। करसाड़ दण्डामी माड़िया जनजाति का प्रमुख त्यौहार है। करसाड़ के दिन सभी आमंत्रित देवी-देवाताओं की पूजा की जाती हैं और पुजारी, सिरहा देवी-देवताओं के प्रतीक चिन्हों जैसे-डोला, छत्रा, लाट बैरम आदि के साथ जुलूस निकालते हैं। जुलूस की समाप्ति के पश्चात् शाम को युवक-युवतियां अपने विशिष्ट नृत्य पोषाक में सज-सवरकर एकत्र होकर सारी रात नृत्य करते हैं।
’मांदरी नृत्य‘
    दंडामी माड़िया जनजाति नृत्य के दौरान पहने जाने वाले गौर सिंग मुकुट, बस्तर दशहरा के अंतिम दिनों में चलने वाले विशालकाय काष्ठ रथ को खींचने का विशेषाधिकार और स्वभाव के लिए प्रसिद्ध है। दंडामी माड़िया जनजाति के सदस्य नृत्य के दौरान पहने जाने वाले गौर सिंग मुकुट को माड़िया समुदाय के वीरता तथा साहस का प्रतीक मानते हैं।
    इस नृत्य की वेशभूषा में दंडामी माड़िया पुरूष सिर पर कपड़े की पगड़ी या साफा, मोती माला, कुर्ता या शर्ट, धोती एवं काले रंग का हाफ कोट धारण करते हैं। वहीं महिलाएं साड़ी, ब्लाउज, माथे पर कौड़ियों से युक्त पट्टा, गले में विभिन्न प्रकार की माला और गले, कलाई, पैरों पर बाजार में मिलने वाले सामान्य आभूषण पहनी हैं। वाद्य यंत्र मांदरी नृत्य के लिए पुरूष सदस्य अपने गले में लटकाकर ढोल एवं मांदर वाद्य का प्रयोग करते हैं। महिलाएं लोहे के रॉड के उपरी सिरे में लोहे की विशिष्ट घंटियों से युक्त ‘गुजिड़’ का प्रयोग करती हैं। एक पुरूष सदस्य सीटी का प्रयोग करता है, नृत्य के दौरान सीटी की आवाज से ही नर्तक स्टेप बदलते हैं।
    यह नृत्य दंडामी विवाह, मेला-मंड़ई, धार्मिक उत्सव और मनोरंजन के अवसर पर किया जाता है। विवाह के दौरान अलग-अलग गांवों के अनेक नर्तक दल विवाह स्थल पर आकर नृत्य का प्रदर्शन करते हैं। जिसके बदले में उन्हें ‘लांदा’ (चावल की शराब) और ‘दाड़गो’ (महुए की शराब) दी जाती हैं। दंडामी माड़िया जनजाति के सदस्यों का मानना है कि गौर सिंग नृत्य उनके सामाजिक एकता, सहयोग और उत्साह में वृद्धि करता है। वर्तमान में दंडामी माड़िया जनजाति का गौर सिंग नृत्य अनेक सामाजिक तथा सांस्कृतिक आयोजनों में भी प्रदर्शन के लिए आमंत्रित किया जाता है।

राष्ट्रीय आदिवासी नृत्य समारोह की तैयारी में जुटा है दस साल का छयांक  
28 से 30 अक्टूबर तक साइंस कालेज मैदान में होगा आयोजन

रायपुर / शौर्यपथ / राष्ट्रीय आदिवासी नृत्य महोत्सव का आयोजन एक बार फिर राजधानी रायपुर में होने जा रहा है। छत्तीसगढ़ सरकार द्वारा किये जा रहे इस आयोजन में शामिल होने के लिए आदिवासी नृत्य से ताल्लुक रखने वाले कलाकार अपनी तैयारी में जुट गए हैं। कलाकार लगातार अभ्यास कर रहे हैं, उन्हें भरोसा है कि यदि उन्होंने अच्छे से मेहनत की तो उनका चयन निश्चित ही आदिवासी नृत्य समारोह के लिए होगा। आदिवासी नृत्य महोत्सव की तैयारी में बड़े-बड़े कलाकारों के बीच कुछ नन्हें कलाकार भी है, जो अपनी प्रतिभा दिखाने के लिए अपने स्तर पर कड़ी मेहनत कर रहे हैं। विशेष पिछड़ी जनजाति कमार से संबंधित विवाह कार्यक्रम के दौरान खुशियों को गीतों और पारम्परिक नृत्य के माध्यम से मंच पर प्रस्तुत करने दस साल का छयांक अपने पिता श्री अमर सिह और समूह के अन्य सदस्यों के साथ जुटा हुआ है। अभी तक कई कार्यक्रमों में अपनी प्रस्तुति दे चुके छयांक के नृत्य का कमाल देखकर देखने वाले भी ताली बजाने मजबूर हो जाते हैं।  
   रायपुर के साइंस कालेज मैदान में 28 से 30 अक्टूबर 2021 तक द्वितीय राष्ट्रीय आदिवासी नृत्य महोत्सव का आयोजन किया जा रहा है। इसकी तैयारी जोरो से चल रही है। कलाकार अपनी नृत्य कला का प्रदर्शन करने समय का इंतजार कर रहे हैं। धमतरी जिले के ग्राम मोहेरा से दस साल का छयांक कक्षा चौथी में पढ़ाई करता है। उसकी रूचि बचपन से ही नृत्य में है। इसलिए आदिवासी नृत्य से जुड़े उसके पिता श्री अमर सिह उन्हें भी कई कार्यक्रमों में साथ लेना नहीं भूलते। कमार जनजाति जो कि छत्तीसगढ़ में एक विशेष पिछड़ी जनजाति है। इनसे संबंधित जनजाति द्वारा विवाह के अवसर पर किये जाने वाले नृत्य और गाये जाने वाले गीत को पारम्परिक वाद्य यंत्रों के माध्यम से जय निरईमाता आदिवासी कमार नृत्य समूह द्वारा प्रस्तुत किया जाता है। समूह में 23 पुरूष सदस्य है। जिसमें छयांक भी बाल कलाकार के रूप में विशेष परिधान धारण कर नृत्य करता है। छयांक के पिता अमर सिह ने बताया कि वह जब 8 से 9 साल का था तब से नृत्य करता आ रहा है। पहले गांव-गांव जाकर नृत्य करता था। इसके बाद अनेक कार्यक्रमों में प्रस्तुति देता आ रहा है। आज वह अपने समूह का मुखिया है और सभी कलाकार उनके निर्देशन में उनके साथ ही सामूहिक रूप से नृत्य की प्रस्तुति देते हैं। उन्होंने बताया कि छयांक का भी लगाव नृत्य में हैं। इसलिए नृत्य कौशल का सम्पूर्ण प्रशिक्षण प्रदान किया गया है। छयांक ने बताया कि कमार जनजाति पर आधारित आदिवासी नृत्य उन्हें पसंद है। वह स्कूल भी जाता है। चूंकि आदिवासी नृत्य महोत्सव है। इसलिए कुछ दिनों के लिए वह अभ्यास में जुटा है और आदिवासी संस्कृति को आगे बढ़ाना चाहता है। छयांक के पिता अमर सिंह का कहना है कि छत्तीसगढ़ सरकार द्वारा आदिवासी समाज की संस्कृति, कला और परम्परा को उभारने के साथ छिपी हुई प्रतिभाओं को सामने लाने राष्ट्रीय स्तर पर आदिवासी नृत्य महोत्सव का आयोजन करना एक बेहतर माध्यम साबित होगा।

सरगुजा से लेकर बस्तर तक आदिवासी संस्कृतियों की दिखेगी झलक
28 से 30 अक्टूबर तक होगा राष्ट्रीय आदिवासी नृत्य महोत्सव का आयोजन

         रायपुर / शौर्यपथ लेख / नृत्य वह संगम है। नृत्य वह सरगम है। जिसमें न सिर्फ सुर और ताल का लय समाया है, अपितु जीवन की वह सच्चाई भी समाई हुई है जो हमें अपने उत्साह और खुशियों के साथ जीवन जीने की प्रेरणा देती हैं। नृत्य मुद्राओं, भाव-भंगिमाओं और भावनाओं, रूप-सौंदर्य के साथ खुशियों की वह अभिव्यक्ति भी है जो नृत्य करने वालों से लेकर इसे देखने वालों के अंतर्मन में उतरकर उन्हें इस तरह झूमने को मजबूर कर देता है कि शरीर का रोम-रोम ही नहीं सारे अंग झूम उठते हैं।

 छत्तीसगढ़ की संस्कृति
     छत्तीसगढ़ की भी अपनी अलग संस्कृति और पहचान है। सरगुजा से लेकर बस्तर तक वहाँ की प्रकृति में समाई नदी-नालों, झरनों,जलप्रपातों की अविरल बहती धाराओं की कलकल, झरझर की गूंज हो या बारिश में टिप-टिप गिरती पानी की बूंदे या उफान में रौद्र बहती नदियों की धारा, शांत जंगल में पंछियों का कलरव हो या छोटी-छोटी चिड़ियों की चहचहाहट, पर्वतों, घने जंगलों से आती सरसराती हवाएं हो या फिर वन्य जीवों की ख़ौफ़नाक आवाजें, भौरों की गुँजन, कीड़े-मकौड़े, झींगुरों की आवाज़ से लेकर पेड़ो से गिरते हुए पत्तों और जरा सी हवा चलने पर दूर-दूर सरकते सूखे पत्तों की सरसराहट सहित कई ऐसी धुने हैं जो सरगुजा से लेकर बस्तर के बीच जंगलों में नैसर्गिक और खूबसूरत दृश्यों के साथ समाई है। भले ही हम इन प्रकृति और प्रकृति के बीच से उठती धुनों की भाषाओं को समझ नहीं पाते, लेकिन इनके बीच कुछ पल वक्त गुजारने से ऐसा महसूस होता है कि जंगलों, नदी, पर्वतों, वन्य जीवों की भी सुख-दुख से जुड़ी अनगिनत कहानियां है जो अपनी भाषाओं, अपनी शैलियों में गीत गाते हैं, नृत्य करते हैं और इनका यह गीत और नृत्य इनके आसपास रहने वाले जनजातियों की संस्कृति में घुल-मिलकर वाद्य यंत्रों के सहारे हमें नृत्य के साथ देखने और समझने को मिलता है।
छत्तीसगढ़ की जनजातियों
   छत्तीसगढ़ की संस्कृति का दर्शन कराने के साथ हमें जीवन की कई चुनौतियों से लड़ने और खुशी के अलावा विषम परिस्थितियों में भी जीवन यापन करने की प्रेरणा और संदेश देने वाले आदिवासी समाज के नृत्य, संगीत और गीत से एक बार फिर राष्ट्रीय आदिवासी नृत्य महोत्सव के माध्यम से देशभर के लोगों को जुड़ने का मौका मिलेगा। छत्तीसगढ़ सरकार द्वारा राजधानी रायपुर में एक बार फिर 28 से 30 अक्टूबर तक राष्ट्रीय आदिवासी नृत्य महोत्सव का आयोजन साइंस कालेज मैदान में किया जा रहा है। महोत्सव की तैयारियां शुरू हो चुकी है।
   इस महोत्सव में देशभर के अलग-अलग राज्यों से कलाकार जनजाति समाज सहित अन्य परिवेश के नृत्यों की रंगारंग प्रस्तुतियां देंगे। संस्कृति की ही अभिव्यक्ति व संवाहक छत्तीसगढ़ का नृत्य वास्तव में बहुत प्राचीन और समृद्धशाली होते हुए लोक कथाओं से जुड़ी है। जोकि मनोरंजन मात्र के लिए नहीं है। इन नृत्यों में आस्था, विश्वास और धार्मिक कथाओं का संगम भी है। आदिवासी समाज द्वारा अपने विशिष्ट प्रकार के नृत्यों का अभ्यास कर विभिन्न अवसरों पर जैसे- ऋतुओं के स्वागत, परिवार में बच्चे के जन्म, विवाह सहित अन्य बहुत से पर्व को उल्लास के साथ मनाने के लिए गीत गाये जाते हैं और नृत्यों का प्रदर्शन किया जाता है। इनमें आदिवासी समाज के पुरूष तथा महिलाओं की समान सहभागिता भी सम्मिलित होती है। सामूहिक रूप से सभी पारम्परिक धुनों में कदम और चाल और ताल के साथ नृत्य करते हैं।
  छत्तीसगढ़ की जनजातियों द्वारा विभिन्न अवसरों में किए जाने वाले नृत्यों में विविधताओं के साथ कई समानताएं भी होती है। यहां आदिवासी समाज द्वारा सरहुल, मुरिया समाज द्वारा ककसार, उरांव का डमकच, बैगा और गोड़ समाज का करमा, डंडा, सुआ नाच सहित सतनामी समाज का पंथी और यदुवंशियों का राउत नाच भी प्रसिद्ध है।
   छत्तीसगढ़ राज्य के अनेक नृत्य है। जो राज्य ही नहीं देश-विदेश में भी अपनी पहचान रखते हैं। आदिवासियों का प्रमुख क्षेत्र बस्तर, सरगुजा संभाग है। प्रकृति के नैसर्गिक वातावरण में रहने वाले इन जनजातियों के अलग-अलग जातीय नृत्य हैं। इनमें माड़ियों का ककसार, सींगों वाला नृत्य, तामेर नृत्य, डंडारी नाचा, मड़ई, परजा जाति का परब नृत्य, भतराओं का भतरा वेद पुरुष स्मृति और छेरना नृत्य, घुरुवाओं का घुरुवा नृत्य, कोयों का कोया नृत्य, गेंडीनृत्य प्रमुख है। मुख्यतः पहाड़ी कोरवा जनजातियों द्वारा किये जाने वाले डोमकच नृत्य आदिवासी युवक-युवतियों का प्रिय नृत्य है। विवाह के अवसर पर किये जाने वाले इस नृत्य को विवाह नृत्य भी कहा जाता है। यह नृत्य छत्तीसगढ़ की लोक संस्कृति का पर्याय है। करमा नृत्य को बैगा करमा, गोंड़ करमा, भुंइयाँ करमा आदि का जातीय नृत्य माना जाता है। इसमें स्त्री-पुरुष सभी भाग लेते हैं। सरहुल नृत्य उरांव जाति का जातीय नृत्य है। यह नृत्य प्रकृति पूजा का एक आदिम रूप है। आदिवासियों का विश्वास है कि साल वृक्षों के समूह में जिसे सरना कहा जाता है। महादेव और देव पितरों को प्रसन्न करके सुख शांति की कामना के लिए चैत्र पूर्णिमा की रात इस नृत्य का आयोजन किया जाता है। समूह में बहुत ही कलात्मक ढंग से किये जाने वाले डंडा व सैला नृत्य पुरुषों का सर्वाधिक प्रिय नृत्य है। इस नृत्य में ताल का अपना विशेष महत्व होता है। इसे मैदानी भाग में डंडा नृत्य और पर्वती भाग में सैला नृत्य के रूप में भी जाना जाता है। छत्तीसगढ़ के जनजाति बहुल क्षेत्रों में ग्राम देवी की वार्षिक, त्रिवार्षिक पूजा के दौरान मड़ई नृत्य करते हैं, इसमें देवी-देवता के जुलूस के सामने मड़ई नर्तक दल नृत्य करते है एवं पीछे-पीछे देवी-देवता की डोली, छत्रा, लाट आदि प्रतीकों को जुलूस रहता है। धुरवा जनजाति द्वारा विवाह के दौरान विवाह नृत्य किया जाता है। विवाह नृत्य वर-वधू दोनों पक्ष में किया जाता है। विवाह नृत्य तेल-हल्दी चढ़ाने की रस्म से प्रारंभ कर पूरे विवाह मंे किया जाता है। इसमें पुरूष और स्त्रियां समूह में गोल घेरा बनाकर नृत्य करते हैं।
 इसी तरह राज्य में गेड़ी नृत्य भी प्रसिद्ध है। मुरिया जनजाति के सदस्य नवाखानी पर्व के दौरान लगभग एक माह पूर्व से गेड़ी निर्माण प्रारंभ कर देते हैं। गेड़ी नृत्य सावन मास के हरियाली अमावस्या से भादो मास की पूर्णिमा तक किया जाता है। गेड़ी नृत्य नवाखानी त्यौहार के समय करते हैं। इसमें मुरिया युवक बांस की गेंड़ी में गोल घेरा में अलग-अलग नृत्य मुद्रा मंे नृत्य करते हैं। नाट्य तथा नृत्य का सम्मिलित रूप गंवरमार नृत्य मुरिया जनजाति द्वारा किया जाता है। मुरिया जनजाति के नर्तक दल गौर-पशु मारने का प्रदर्शन करते हैं। इस नृत्य में दो व्यक्ति वन में जाकर गौर-पशु का शिकार करने का प्रयास करते हैं, किन्तु शिकार के दौरान गौर-पशु से घायल होकर एक व्यक्ति घायल हो जाता है। दूसरा व्यक्ति गांव जाकर पुजारी (सिरहा) को बुलाकर लाता है जो देवी आह्वान तथा पूजा कर घायल व्यक्ति को स्वस्थ्य कर देता है तथा दोनों व्यक्ति मिलकर गंवर पशु का शिकार करते हैं। इसी के प्रतीक स्वरूप गवंरमार नृत्य किया जाता है। यह एक प्रसिद्ध नृत्य है। जो देखने वालों को बहुत प्रभावित करता है।
सुआ नृत्य छत्तीसगढ़ के स्त्रियों द्वारा समूह में किये जाने वाला नृत्य है। इस नृत्य को करने वाली युवती या नारी की सुख-दुख की अभिव्यक्ति, मन की भावना नृत्य में प्रदर्शित होता है।

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