August 03, 2025
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         जीना इसी का नाम है / शौर्यपथ / बेनाला (विक्टोरिया) की एंजला बार्कर के हिस्से में खुशियां बेशुमार थीं। वह अच्छी एथलीट थीं। ऊंची कूद में उनका नाम था। नेटबॉल में वह सेंटर पोजीशन पर खेला करती थीं। स्क्वायड बास्केटबॉल में माहिर थीं। दोस्तों के साथ गाना उनका शगल था। साइकोलॉजी में करियर बनाने की मंशा थी। हर फैसले में साथ देने वाला परिवार था। और एक सजीला ब्वॉयफ्रेंड हाथ थामने को तैयार था। मानो ईश्वर ने उनके लिए बाहों भर कायनात तय कर रखा था। मगर जो तय नहीं था, वह थी उनकी नियति।
यह घटना 2002 की है। तब एंजला सोलह साल की थीं। ब्वॉयफ्रेंड डेल कैरी लेपोइडविन के आक्रामक व्यवहार को वह समझने लगी थीं। उसका वक्त-बेवक्त हाथ उठाना उन्हें अखरने लगा था। लिहाजा इस रिश्ते को सींचना उनके लिए मुश्किल हो गया। उन्होंने लेपोइडविन को छोड़ने का मन बना लिया। 7 मार्च वह दिन था, जब देर शाम एक सुपरमार्केट की कार-पार्किंग में उन्होंने लेपोइडविन को मना किया। नाराज लेपोइडविन हैवानों की तरह उन पर टूट पड़ा। उसने लात-घूंसों की बौछार कर दी। एंजला का पूरा शरीर ऐंठ गया। उनके कान और मुंह से खून निकलने लगा। वह उन्हें तब तक पीटता रहा, जब तक कि वह बेहोश न हो गईं।
डॉक्टरों के लिए एंजला ‘वेजेटेटिव-स्टेट’ में पहुंच चुकी थीं, यानी करीब-करीब कोमा की स्थिति। दिमाग के अंदरुनी हिस्सों में गंभीर चोट थी। चेहरा पूरा सूज गया था। मां हेलेन बार्कर बताती हैं, ‘एंजला एक निर्जीव देह की तरह हमारे सामने पड़ी थी। हम यह मान चुके थे कि अब वह ज्यादा दिनों तक हमारे बीच नहीं रहेगी। मगर कहीं न कहीं यह आस भी थी कि ईश्वर इतना बेरहम नहीं हो सकता।’ और, जब तीन हफ्तों के बाद एंजला की आंखें खुलीं, तो वह अपनी आवाज खो चुकी थीं और चलना भी उनके लिए सपना हो चला था।
वह करीब आठ हफ्तों तक अस्पताल में रहीं। फिर उन्हें बेनाला के ओल्ड एज नर्सिंग होम में भेज दिया गया। सभी यही कह रहे थे कि उनका बाकी जीवन अब बिस्तर पर ही बीतने वाला है। लेकिन मजबूत इरादों वाली एंजला को यह मंजूर नहीं था। सभी को गलत साबित करने में उन्हें तकरीबन तीन साल लगे। वह बताती हैं, ‘मुझे पता था कि हर चीज मेरे खिलाफ है। मगर मुझे बिस्तर से उतरना था। अपने पांवों पर खड़ा होना था। बोलना था। अपनी अधूरी पढ़ाई पूरी करनी थी। पुराने दिनों को फिर से जीना था।’
इन तीन वर्षों का सफर काफी कष्टदायक रहा। इस दौरान उन्होंने न जाने किस हद तक दर्द झेले। यह उनकी जिद ही थी कि बिस्तर का साथ जल्द छूट गया। अब व्हील चेयर उनका साथी है। पिता इयान बार्कर बताते हैं, ‘जब वह घर लौटी, तो उसकी आंखें भींगी हुई जरूर थीं, पर उनमें उसका आत्मविश्वास साफ झलक रहा था। हां, अपनी आवाज को फिर से पाने में उसे पांच साल लग गए।’
एंजला आज भी टूटे-फूटे शब्दों में ही बोल पाती हैं, लेकिन हिंसा के खिलाफ उनके ये शब्द काफी धारदार होते हैं। साल 2004 में ऑस्ट्रेलिया की संघीय सरकार ने उनके जज्बे को आदर्श बताकर लव्स मी, लव्स मी नॉट नाम से एक डीवीडी जारी की, जो घरेलू हिंसा के खिलाफ सरकारी अभियान का हिस्सा है। आज भी एंजला तमाम दर्द के बावजूद हिंसा के खिलाफ लोगों को जागरूक करने में पीछे नहीं रहतीं। अब तक हजारों छात्रों, पुरुषों, महिलाओं, स्वास्थकर्मियों, पुलिसकर्मियों, राजनेताओं, कैदियों से वह संवाद कर चुकी हैं। संयुक्त राष्ट्र तक में अपनी बात रख चुकी हैं। वह कहती हैं, ‘हिंसा खत्म करने में शिक्षा की भूमिका काफी अहम है। बच्चों को जन्म से ही एक-दूसरे का सम्मान करना और एक-दूसरे को समान समझना सिखाया जाना चाहिए। नौजवान भी रिश्तों में दुव्र्यवहार के बीज पहचानना सीखें, क्योंकि प्यार की पहली अवस्था में उन्हें भी मेरी तरह सब कुछ खुशनुमा लग सकता है। शारीरिक और भावनात्मक दुव्र्यवहार करने वाला कभी भी प्रेमी नहीं हो सकता।’
एंजला को हादसे से पहले के 12 महीने याद नहीं हैं। मगर यह पता है कि उनका ब्वॉयफ्रेंड अब दूसरे के साथ ऐसा नहीं कर सकता। वह साढ़े दस साल के लिए हवालात के अंदर है। हालांकि मां हेलन इस सजा को नाकाफी मानती हैं। वह आज भी कहती हैं कि उनकी बेटी को ताउम्र दर्द देने वाला इंसान जिंदगी भर जेल में बंद रहना चाहिए। उसने एंजला का सब कुछ छीन लिया। मगर एंजला के मन में ऐसा कोई मलाल नहीं है। वह अपनी खुशमिजाजी छोड़ना नहीं चाहतीं।
साल 2010 में एंजला बेनाला छोड़कर मेलबर्न आ गईं। जल्द ही उन्हें नेशनल ऑस्ट्रेलिया बैंक में पार्ट-टाइम नौकरी भी मिल गई। उन्हें 2011 में विक्टोरियन यंग ऑस्ट्रेलियन ऑफ द ईयर अवॉर्ड से नवाजा जा चुका है। मेलबर्न की 100 प्रभावशाली शख्सियतों में भी वह शुमार हैं। आज भी जब उनकी यादों को कुरेदा जाता है, तो वह कहना नहीं भूलतीं- खुद पर विश्वास रखो, कुछ भी पाना असंभव नहीं।
प्रस्तुति : हेमेन्द्र मिश्र
एंजला बार्कर ऑस्ट्रेलियाई सामाजिक कार्यकर्ता

 

         नजरिया / शौर्यपथ / कठिन दौर की कैसी होती है राजनीति? कुछ राजनीतिक विचारकों का मानना है कि कठिन दौर की राजनीति जीवन की कठोर सच्चाइयों से निर्मित होती है, न कि दूरस्थ आशावाद से। भविष्य के सपने और मिथकीय सच्चाई, दोनों ही थोड़ी देर के लिए स्थगित हो जाते हैं। आज हमारे जीवन के केंद्र में वायरस है। अत: आज की राजनीति भी वायरस के विमर्श पर केंद्रित है।
आज की राजनीति विषाणु व जैविक देह की रक्षा के इर्द-गिर्द घूम रही है। आज नेताओं की क्षमता व प्रभाव की रेटिंग उनके इस विषाणु को रोकने-थामने में सफलता-विफलता के आधार पर हो रही है। यह न सिर्फ भारत, बल्कि आज पूरी दुनिया के राजनीतिक-विमर्श के केंद्र में है। चीन, ब्राजील, दक्षिण कोरिया, सिंगापुर, अमेरिका, इटली या भारत, सभी देशों के शासनाध्यक्षों का मूल्यांकन देश या देश के बाहर इन्हीं आधारों पर हो रहा है। दुनिया की राजनीति, जिसके केंद्र में जहां पहले मानवाधिकार, समानता, उपेक्षित समूहों के प्रश्न महत्वपूर्ण होते थे, वहां अब इस वायरस के विरुद्ध लड़ाई, इसके लिए संसाधन व उनका वितरण राजनीति के केंद्र में है। जो देश इस लड़ाई में अच्छा प्रदर्शन करेगा, उसकी राजनीति और राजनेताओं को पूरी दुनिया में सम्मान मिलेगा। पूरी दुनिया में चिकित्सा की राजनीति व राजनीति की चिकित्सा का दौर है। विश्व स्वास्थ्य संगठन के इर्द-गिर्द खड़ा हो रहा विवाद भी यही साबित करता है कि अब महामारी व संक्रमण के विमर्श को राजनीति में प्रतीकात्मक शक्ति प्राप्त हो जाएगी। जो भी इस नैरेटिव को अपने पक्ष में रच लेगा, वह राजनीति में प्रभावी हो जाएगा।
भारत में कोरोना के समय और उत्तर कोरोना काल में भी विकास व कल्याणकारी योजनाओं की राजनीति कुछ पीछे चली जाएगी। पहले नेताओं की छवि उनके द्वारा शुरू की गई कल्याणकारी योजनाओं और राज्य के संसाधनों के विकासपरक वितरण से बनती-बिगड़ती थी। बिजली, सड़क, पानी विकास के मानक थे, जिनसे नेताओं की सफलता-विफलता का मूल्यांकन होता था। राजनीति की इस नई प्रवृत्ति को दुनिया के कुछ सिद्धांतकारों ने बॉयो-पॉलिटिक्स के उभार का दौर माना है। कोरोना महामारी ने जनतांत्रिक राजनीति के चरित्र में आमूल-चूल परिवर्तन ला दिया है, भले ही ये परिवर्तन अस्थाई हों।
महामारियां आज भी और पहले भी सामाजिक अंतर्विरोध को बढ़ाती रही हैं और अमीरी-गरीबी के बीच की खाई को और गहरी कर देती हैं। यह पूरी दुनिया में हो रहा है। ऐसे में, भारतीय राजनीति में भी फिर से गरीब, मजदूर जैसे सामाजिक रूप केंद्र में आ सकते हैं। इस नए दौर में भारतीय राजनीति की भाषा में एक बड़ा बदलाव आएगा। जन-स्वास्थ्य, असुरक्षा बोध, चिकित्सकीय सुविधा जैसे शब्द हमारी राजनीति की भाषा में महत्वपूर्ण हो जाएंगे। जाति की जगह ‘जैविक देह’ की चिंता हमारी राजनीति को शक्ल देगी। संभव है, जातिगत आधार पर राज्य से सुविधाओं की मांग थोड़ी देर के लिए गरीब, मजदूर व श्रमिक वर्ग के प्रश्नों के साथ जुड़ जाए।
भारतीय राजनीति में जनता व नेता के बीच संवाद अब वर्चुअल तो हो ही जाएगा। साक्षात संवाद के अवसर कम होते जाएंगे। कुछ समय तक तो सोशल साइट्स, ऑनलाइन संवाद, न्यूज चैनल व अखबार ही संवाद के माध्यम रहेंगे। जो भी इनकी परिधि में नहीं होगा, वह राजनीतिक संवादों की सीमा के बाहर हो जाएगा।
जन-स्वास्थ्य में उपेक्षितों-वंचितों की जगह क्या हो, उनके साथ कैसा व्यवहार हो रहा है, ये धीरे-धीरे राजनीतिक मूल्यांकन के संकेतक बनते जाएंगे। ये संकेतक कोरोना बाद भी महत्वपूर्ण रहेंगे। इस महामारी से लड़ने के लिए केंद्र द्वारा राज्यों को दी जा रही मदद भी राजनीति का हिस्सा बनेगी। राज्य-सत्ता पहले से ज्यादा प्रभावी व मुखर हो सकती है। ऐसे में, सत्ता पक्ष और विपक्ष में संवाद-विवाद मानवीय अस्तित्व के बड़े सवालों की ओर बढ़ सकते हैं। कोरोना संकट के इस हस्तक्षेप ने अर्थव्यवस्था की निरंतरता को भंग कर दिया है। फलत: आर्थिक मंदी के शिकार सामाजिक समूहों के मुद्दे भारत में अब जनतांत्रिक राजनीति के अहम प्रश्न हो सकते हैं। संभव है, सत्ता केंद्रित राजनीति की स्वार्थपरकता कुछ कमजोर हो व सेवाभाव की राजनीति का विस्तार हो। विपदाओं के समय का जवाब सेवाभाव ही होता है, इसी पैमाने पर राजनीति को पहले से भी ज्यादा परखा जाएगा।
(ये लेखक के अपने विचार हैं)

 

          शौर्यपथ / सम्पादकीय / कोरोना वायरस के संकेत मानव जाति को 1930 के दशक में ही मिलने लगे थे, लेकिन इस पर सबसे पहला अध्ययन एक महिला वैज्ञानिक डोरोथी हामरे ने किया था। इस वायरस पर उनका पहला शोध पत्र 1966 में प्रकाशित हुआ था, जिसमें उन्होंने इशारा कर दिया था कि यह मनुष्य की श्वसन प्रणाली पर चोट करने वाला घातक वायरस है। डोरोथी पहली वैज्ञानिक थीं, जिन्हें कोरोना प्रजाति के वायरस को अलग करने में कामयाबी मिली थी। इसके कुछ ही दिनों बाद डेविड टायरेल और मैल्कम ब्योने ने भी ऐसी ही कामयाबी हासिल की थी। डेविड टायरेल की ही प्रयोगशाला में जून अलमेदा ने पहली बार शोध करके बताया था कि कोरोना दिखता कैसा है। इस वायरस की संरचना मोटे तौर पर माला की तरह होती है। ग्रीक शब्द ‘कोरोने’ से लातीन शब्द ‘कोरोना’ बना था। ग्रीक में ‘कोरोने’ का अर्थ होता है माला या हार। यह शब्द पहली बार 1968 में इस्तेमाल हुआ, लेकिन तब यह वायरस बहुत खतरनाक नहीं हुआ था।
कोरोना परिवार के वायरस सार्स का खतरा इसी सदी में सामने आया। सार्स सबसे पहले साल 2002-03 में 26 देशों में फैला था और मर्स 2012 में करीब 27 देशों में। यह विडंबना ही है कि जो कोरोना वायरस मर्स सबसे ताकतवर था, वह सबसे कम फैला और जो कोविड-19 सबसे कमजोर है, उसने दुनिया को तड़पा रखा है। मर्स में तीन में से एक मरीज की जान चली जाती है। सार्स से दस में से कोई एक जान गंवाता है, लेकिन कोविड-19 सौ मरीजों में से दो की भी जान नहीं ले रहा है। त्रासद यह कि अभी चिकित्सा विज्ञान के पास तीनों में से किसी का पक्का इलाज नहीं है। विश्व स्वास्थ्य संगठन अगर बार-बार कह रहा है कि संभव है, कोविड-19 की दवा या वैक्सीन कभी न मिले, तो कोई आश्चर्य नहीं। मुश्किल यह कि कोरोना ही नहीं, लगभग सभी वायरस अपनी प्रजाति बदलते रहते हैं। अमेरिका में कोविड-19 की जो प्रजाति है, ठीक वही भारत में नहीं है, इसीलिए किसी देश में ज्यादा मरीजों की मौत हो रही है और कहीं कम। अमेरिका के वैज्ञानिक भी इससे वाकिफ हैं और उन्हें इसकी दवा खोजने की सबसे ज्यादा जल्दी है।
हालांकि अभी सबसे बड़ा सवाल है, अगर इलाज नहीं मिलेगा, तो क्या होगा? विशेषज्ञों के अनुसार, या तो दवा मिल जाए या फिर इंतजार करना होगा कि दुनिया के 65 प्रतिशत लोगों को एक-एक बार कोरोना हो जाए, जब उन सबके शरीर में कोविड-19 की एंटीबॉडी तैयार हो जाएगी, जब इस वायरस को नया ठौर नहीं मिलेगा, तब संक्रमण में गिरावट आती जाएगी। बोस्टन के वैज्ञानिक डॉक्टर डेन बराउच ने यह दावा किया है कि कोविड-19 का संक्रमण एक बार ठीक होने के बाद दूसरी बार नहीं होता है। बोस्टन में ही वायरोलॉजी और वैक्सीन रिसर्च सेंटर में सात और 25 के समूह में बंदरों पर अलग-अलग किए गए अध्ययन के नतीजे सकारात्मक हैं। जाहिर है, इससे वैक्सीन खोजने वालों को भी बल मिलेगा और इसके साथ ही प्लाज्मा थेरेपी के माध्यम से हो रहा प्रयोग भी विश्वास के साथ आगे बढ़ सकेगा। कोविड-19 पर विजय के लिए महायुद्ध जारी है। खोज में लगे वैज्ञानिक यह भी उम्मीद कर रहे हैं कि इस बीच यह दुश्मन वायरस अपना स्वरूप न बदले और इंसानों के शिकंजे में आ जाए।

 

   शौर्यपथ / सब्जी उत्पादकों का दर्द
देशव्यापी लॉकडाउन में लगातार हो रहे विस्तार से सब्जी उत्पादक किसानों की स्थिति बेहद खराब होती जा रही है। वाहनों की आवाजाही बंद होने से सब्जियां मंडी तक नहीं पहुंच पा रही हैं, जिससे खेतों में सब्जियों की कीमतें लगातार कम हो रही हैं। इससे किसानों के लिए लागत मूल्य निकालना भी मुश्किल होता जा रहा है। यही वजह है कि औने-पौने दाम में भी किसान खेत में ही अपनी फसल बेच रहे हैं। न बिकने पर वे फसलों को नष्ट भी कर रहे हैं। ऐसी स्थिति में सब्जी उगा रहे किसानों के हित में सरकार को त्वरित कदम उठाना चाहिए। फौरन ऐसी व्यवस्था बने कि सब्जियां मंडियों तक पहुंचें और किसानों को लागत मूल्य मिल सके। इससे शहरी बाजार में सब्जियों की कीमतें भी कम होंगी।
तकनीकी शिक्षा के खिलाफ
हाल ही में मिलिट्री इंजीनिर्यंरग सर्विस के 9,304 पद समाप्त करने को रक्षा मंत्री ने मंजूरी दे दी। यह सूचना जितनी दुखद है, उससे कहीं ज्यादा समाज में व्याप्त आर्थिक असमानता (क्योंकि अस्थाई कर्मचारियों की नियुक्ति से किसी व्यक्ति विशेष को तो फायदा होगा, पर कर्मियों को उचित वेतन नहीं मिलेगा) बढ़ाने वाली भी है। लिहाजा केंद्र सरकार को किसी फैसले के सकारात्मक पहलू के साथ-साथ नकारात्मक पक्ष पर भी ध्यान देना चाहिए। नकारात्मक पक्ष की बात करें, तो जिस तरह से रेलवे में भी तकनीकी छात्रों के लिए बहुत से पद समाप्त किए गए हैं और सार्वजनिक क्षेत्र की कंपनियों को निजी क्षेत्र में बदला जा रहा है, उससे तकनीकी छात्र हताश हो रहे हैं। इससे आने वाले समय में तकनीकी शिक्षा के प्रति छात्रों की रुचि कम हो जाएगी। यह भारत जैसे विकासशील देश के लिए घातक स्थिति होगी।
गहराता सीमा विवाद
भारत और नेपाल में इन दिनों सीमा विवाद चल रहा है। आखिर यह क्यों हो रहा है? दरअसल, नेपाल के व्यापार और राजनीति में मधेसियों का अच्छा-खासा वर्चस्व रहा है। विगत वर्षों में राजनीति में मधेसियों को किनारे किए जाने से नाराज भारत ने कई दिनों तक नेपाल के लिए सप्लाई भी रोक दी थी, जो बात उसे नागवार गुजरी थी। वहां जब से वामपंथी सरकार बनी है, उसका झुकाव स्वाभाविक रूप से चीन की तरफ भी बढ़ा है। चूंकि विश्व पटल पर कोरोना संकट चीन के लिए गले की हड्डी बन गया है, और विश्व स्वास्थ्य महासभा में उसकी जबावदेही तय करने की बात भारत ने भी कही है, इसलिए लिपुलेख दर्रे के बहाने उसने नेपाल के कान भरे हैं। भारत को तंग करने के लिए चीन बहाना खोजता रहता है। इस समय भी भारत पर मनोवैज्ञानिक दबाव बनाने के लिए उसने नेपाल को उकसाया है, जबकि वह खुद अभी एक बडे़ भंवर में फंसा हुआ है। अब देखने वाली बात यह है कि चीन-नेपाल की मूक दोस्ती कितनी दूर तक जाती है। डर यह है कि कहीं नेपाल भी चीन का उपनिवेश न बन जाए?
शर्मसार करती सियासत
मजदूरों के नाम पर सियासत करके कुछ लोग अत्यंत घृणित व मानवता को शर्मसार करने वाली मानसिकता का परिचय दे रहे हैं। जो मजदूर रोजी-रोटी के चक्कर में गांव से पलायन करके शहर आए, वहां आज उनके लिए सिवाय पीड़ा के कुछ नहीं बचा है। आज भी पैदल यात्रा कर रहे मजदूरों की दशा हृदय को उद्वेलित करती है, लेकिन लोग इस पर भी राजनीति कर रहे हैं। ऐसा लगता है कि अति आधुनिक बनने के चक्कर में इंसान संवेदनशून्य हो गया है। इस जटिल परिस्थिति में मजदूरों की सहायता के लिए बेहतर विकल्प तलाशे जाने चाहिए, न कि उन पर राजनीति करनी चाहिए। इस तरह की सियासत तुरंत बंद हो।

 

               ओपिनियन / शौर्यपथ / इसमें कुछ भी नया नहीं है। बंगाल की खाड़ी से एक चक्रवाती तूफान उठा और जान-माल के भारी नुकसान के झटके देकर विदा हो गया। तूफान गुजर जाने के बाद जब हम इसका आकलन कर रहे हैं, तो वही कहा जा रहा है, जो हर बार कहा जाता है- ‘प्राकृतिक आपदा को तो हम नहीं रोक सकते, लेकिन उससे होने वाले जान-माल के नुकसान को कम कर ही सकते हैं।’ यह सिर्फ चक्रवाती तूफान का चिंतन नहीं है। हर बार जब कहीं बाढ़ आती है, अतिवृष्टि होती है या भूकंप आता है, तो देश के बौद्धिक समुदाय में ऐसे वाक्यों को दोहराए जाने की होड़-सी लग जाती है। यह परंपरा काफी समृद्ध हो चुकी है। यही कोसी की बाढ़ में हुआ था, यही केदारनाथ की त्रासदी में और पिछले साल मुन्नार की अतिवृष्टि में भी यही दिखाई दिया। आपदा जब सिर पर आ चुकी होती है, तब हमें पता चलता है कि उसके मुकाबले के लिए हमारी तैयारियां पूरी नहीं थीं। अम्फान तो दो दिन पहले पश्चिम बंगाल और ओडिशा के तटों से टकराया है, पर पूरा देश तो पिछले दो महीनों से ही इस समस्या से लगातार दो-चार हो रहा है।
यह कहा जा सकता है कि हर कुछ साल बाद आने वाले चक्रवाती तूफान की तुलना में कोरोना वायरस के संकट को खड़ा नहीं किया जा सकता। महामारी का ऐसा संकट भारत में लगभग एक सदी बाद आया है, पिछली करीब चार पीढ़ियों ने महामारी के ऐसे प्रकोप को सिर्फ किताबों में पढ़ा है, और महामारी से कैसे निपटा जाता है, इससे आजाद भारत का प्रशासन पूरी तरह अनजान है। लेकिन बात शायद इतनी आसान नहीं है।
देश में पिछले डेढ़ दशक से एक राष्ट्रीय आपदा प्रबंधन प्राधिकरण है। इसी के साथ हमने आपदा से निपटने के लिए एक आपदा राहत बल भी बनाया था। प्राधिकरण की स्थापना के समय ही इससे उम्मीद बांधी गई थी कि यह सभी तरह की प्राकृतिक और मानवीय आपदाओं के लिए देश को तैयार रखेगा। इस संस्था के आलिम-फाजिल से यह उम्मीद तो की ही जानी चाहिए कि किसी आपदा के समय क्या-क्या समस्याएं खड़ी हो सकती हैं, इसका एक खाका और इसके सभी परिदृश्य वे पहले से ही सोचकर रखें। मार्च में लॉकडाउन घोषित होने के बाद पूरा देश उस समय सोते से जागा, जब एक दिन अचानक पता चला कि पूरे देश में लाखों विस्थापित मजदूर अपने-अपने घरों को लौटने के लिए निकल पड़े हैं। ऐसा क्यों हुआ या ऐसी स्थिति क्यों पैदा हुई, यह एक अलग मामला है, परआपदा प्रबंधन के लिए बने संगठन ने ऐसे किसी परिदृश्य के बारे में सोचा भी नहीं था, यह जरूर एक परेशान करने वाला मसला है। अगर सरकार के सामने ऐसे परिदृश्य रखे गए होते, तो शायद उसके फैसले और इंतजाम अलग तरह के हो सकते थे।
मामला सिर्फ विस्थापित मजदूरों का नहीं है। हम यह पहले से ही जानते थे कि दुनिया के मुकाबले हमारे पास चिकित्सा सुविधाएं काफी कम हैं। न सिर्फ अस्पताल और उपकरण, बल्कि डॉक्टर और चिकित्साकर्मी भी आबादी के हिसाब से नाकाफी हैं। पर आपदा आई, तो अचानक ही हमें पता चला कि जो डॉक्टर और चिकित्साकर्मी हैं भी, उनके लिए भी हमारे पास न तो मानक स्तर के पर्याप्त मास्क हैं और न ही पीपीई किट। यह ठीक है कि जल्द ही देश के उद्यमियों ने मोर्चा संभाला, तो यह कमी कुछ ही समय में दूर हो गई, लेकिन कुछ मामलों में तो सचमुच देर हो गई। इसे इस तरह से देखें कि हमारे यहां आबादी के लिहाज से डॉक्टरों का जो अनुपात है, कोरोना का शिकार बनने वाले लोगों में डॉक्टरों का वह अनुपात कहीं ज्यादा है। यही बात बाकी चिकित्साकर्मियों के बारे में भी कही जा सकती है। उम्मीद है कि आगे ऐसी समस्या शायद न आए, लेकिन अभी तक जो हुआ, उसके लिए हम खुद को कभी माफ नहीं कर पाएंगे। और, इसमें एक बड़ा दोष निश्चित रूप से देश के योजनाविदों का है।
हालांकि एक सच यह भी है कि हालात पूरी दुनिया में लगभग ऐसे ही हैं। खासकर अमेरिका में जो हुआ, वह उसके बारे में कई धारणाएं बदलने को मजबूर कर देता है। एक ऐसा देश, जो पिछले कई दशकों से जीवाणु-युद्ध के खतरों का खौफ पूरी दुनिया को बांटता रहा हो, उससे यह उम्मीद तो की जानी चाहिए कि वह जीवाणुओं के किसी भी हमले के लिए हमेशा तैयार होगा। लेकिन इस पूरे दौर में अमेरिकी प्रशासन ने सिर्फ यही दिखाया कि उसका स्तर भी बहुत कुछ हमारे राष्ट्रीय आपदा प्रबंधन प्राधिकरण जैसा ही है।
लेकिन एक फर्क जरूर है। चक्रवाती तूफान अमेरिका में भी आते हैं, और शायद ज्यादा ही आते हैं, पर भारत के मुकाबले वह अपने लोगों को इसके कहर से काफी कुछ बचा लेता है। भयानक चक्रवाती तूफानों के बीच अक्सर लंबा अंतराल होता है, न हम अपने लोगों को हर दूसरे साल आने वाली बाढ़ से बचा पाते हैं और न सूखे से। आपदा ही क्यों, हर साल जब बरसात शुरू होती है और देश के छोटे-बड़े तमाम शहरों की सड़कें व गलियां जलमग्न होने लगती हैं, तब पता चलता है कि नालियों की सफाई का सालाना काम अभी तक किया ही नहीं गया। आने वाली समस्याओं को लेकर यही परंपरागत रवैया हमारे नीति-नियामक अक्सर आपदाओं के मामले में भी अपनाते हैं। जो प्रशासनिक तंत्र हर साल आने वाली समस्याओं के लिए पहले से तैयारी नहीं रख पाता, उससे यह उम्मीद कैसे की जाए कि वह कोरोना और अम्फान जैसी अचानक आ टपकने वाली आपदाओं के लिए देश को पहले से तैयार रखेगा? इन दिनों आपदा को अवसर में बदलने की बातें बहुत हो रही हैं, लेकिन आपदा से सबक लेना हम कब शुरू करेंगे?
(ये लेखक के अपने विचार हैं)

 

 रायपुर / शौर्यपथ /  मुख्यमंत्री भूपेश बघेल ने प्रदेशवासियों को ईद पर्व की मुबारकबाद दी है। मुख्यमंत्री ने कहा है कि ईद का पर्व प्रेम, सौहाद्र्र और भाईचारे का प्रतीक है। यह पर्व हमें ऊंच-नीच, छोटे-बड़े का भेदभाव भुलाकर एक दूसरे को गले लगाने का संदेश देता है। ईद वास्तव में सामाजिक समरसता का त्यौहार है। मुख्यमंत्री ने खुशी के इस पर्व को भाईचारे के साथ मनाने की अपील की है। मुख्यमंत्री ने कहा है कि कोरोना संक्रमण के मद्देनजर लोगों से अपील की है कि वे घरों में ही ईद की नमाज अदा करें और देश-प्रदेश की तरक्की, खुशहाली तथा अमन-शांति की दुआ करें।

       शौर्यपथ /  डाटा चोरी की घटनाएं सामने आने के बाद हर कोई अपने पर्सनल मोबाइल डाटा के प्रति सतर्क हो गया है। अब कोई थर्ड पार्टी एप डाउनलोड करते समय हम दुविधा में रहते हैं कि एप डाउनलोड करें या नहीं। आइए कुछ जरूरी बातें जानें जिससे हमारी दुविधा खत्म हो।किसी भी थर्ड पार्टी एप को डाउनलोड करते समय अगर हम सामान्य बातों का ख्याल रखेंगे तो थर्ड पार्टी एप के खतरों से बच सकेंगे।

1. एप के नाम पर दें विशेष ध्यान
किसी भी एप्लीकेशन को डाउनलोड करते समय उस एप के नाम पर विशेष ध्यान दें। अधिकतर देखा जाता है कि फर्जी एप का नाम किसी लोकप्रिय एप के नाम की नकल करके रखा जाता है। इससे ऐसी एप के डाउनलोड किए जाने की संभावना बढ़ जाती है। एन के नाम की स्पेलिंग, एप के लोगो के रंग और डिजायन पर ध्यान दें, कई बार फर्जी एप और असली एप के डिजायन में बेहद मामूली अंतर होता है।

2. डेवलपर के नाम को पढ़ें
एक ही नाम की एक से अधिक एप गूगल स्टोर पर मिल जाएंगी। ऐसे में अगर आप एप को डाउनलोड करना चाहते हैं तो बड़ी दुविधा होती है कि कौन सी एप्लीकेशन असली है। इसके लिए एप के डि्क्रिरशन में जाकर डेवलपर के नाम को ध्यान से पढ़ें। कई फर्जी एप बनाने वाले डेवलपर तो असली एप के डेवलपर के नाम की भी नकल कर लेते हैं। इसलिए ध्यान दें कि कहीं डेवलपर के नाम के आगे कोई विशेष संकेत या अक्षर न लिखा हो। साथ ही अक्षरों के बीच में गैप न दिया गया हो। अगर ऐसा है तो संभावना है कि नकली एप बनाने वाले डेवलपर ने यूजर्स को धोखा देने के लिए यह किया हो।


3. रिव्यू और रेटिंग पर दें ध्यान
प्ले स्टोर पर मौजूद सभी एप्लीकेशन पर पब्लिक फीडबैक सिस्टम होता है, यानी आम यूजर उस एप पर अपनी प्रतिक्रिया दे सकते हैं। आप जब भी कोई नई एप डाउनलोड करना चाहते हैं तो पहले रिव्यू को ध्यान से पढ़ें। अगर रिव्यू सकारात्मक हों तब ही एप को डाउनलोड करें।

4. एंटीवायरस का करें प्रयोग
अपने फोन को किसी भी फर्जी एप के खतरे से दूर रखने के लिए किसी विश्वसनीय एंटीवायरस का प्रयोग करें। एंटीवायरस होने पर फोन उस एप को डाउनलोड करने पर आपको चेतावनी देगा।

5. थर्ड पार्टी एप स्टोर से रहें दूर
जब भी आपको कोई एप डाउनलोड करनी हो तो किसी भी थर्ड पार्टी एप स्टोर से उसे डाउनलोड करने से बचें। अगर आप एंड्रायड यूजर हैं तो गूगल प्ले स्टोर से ही एप डाउनलोड करें, क्योंकि वहां सभी एप की स्क्रूटिनिंग की जाती है

    शौर्यपथ  /गर्मियों में बार-बार होंठ सूखते रहते हैं। इसकी सबसे बड़ी वजह होती है कम पानी पीना और जब होंठ अपनी प्राकृतिक नमी खो देते हैं, तो भी यह परेशानी होती है। ऐसे में होंठों पर लिप बॉम लगाने से इस समस्या से काफी हद तक छुटकारा पाया जा सकता है। मार्केट के लिप बॉम में कई तरह के केमिकल्स होते हैं, जिससे आपके होंठ धीरे-धीरे काले पड़ते जाते हैं। ऐसे में होंठो का नेचुरल कलर बनाए रखने के लिए आप घर पर भी लिप बाम बना सकते हैं। आज हम आपको बता रहे हैं लिप बाम बनाने के दो आसान उपाय-

बिना कलर वाला लिप बाम बनाने का तरीका
कोकोनट आयल - न्यूटेला ( किसी भी कन्फेक्शनरी की दूकान पर उपलब्ध होगा ) - एक कंटेनर या डिब्बी एक हीटप्रूफ़ कप लें और उसमें 1 चम्मच मोम डालें। अब आधा चम्मच न्यूटेला डालें। ये डालने के बाद उसमें नारियल का तेल डालें। इसके बाद एक फ्राइंग पैन में पानी उबालें और हीटप्रूफ़ कप इस तरह उसमें रखें कि बनाया हुआ मिक्सचर न गिरे। जब मिक्सचर अच्छे से पिघल जाए तो उसको एक डिब्बी में डालकर फ्रीजर में 10 मिनट तक रख दें। आपकी लिप बाम तैयार है।


कलर्ड लिप बाम बनाने का तरीका
आईशेडो - शहद - वेसिलीन - 1 कंटेनर / डिब्बी एक चम्मच वेसिलीन को एक कांच के गिलास में डाल दें और फिर ओवन में दो मिनट तक पिघलाएं। इसके बाद अपने पसंदीदा रंग की आईशेडो के टुकडे करके उसमें दाल दें। इसके बाद मिक्सचर को अच्छे से हिलाएं। ये करने के बाद थोड़ा सा हनी डाल दें। फाइनल मिक्सचर को जिस कंटेनर में आपको रखना है उसमें डाल दें और फ्रिज में ठंडा होने के लिए रख दें। आपकी कलर्ड लिप बाम तैयार।

           सेहत / शौर्यपथ / बिना किसी उपकरण के सिर्फ शरीर के भार के साथ किए जाने वाले व्यायाम बॉडीवेट एक्सरसाइज कहलाते हैं। ये व्यायाम करने से पूरे शरीर की कसरत होती है इसलिए इन्हें बतौर वॉर्मअप सबसे पहले किया जाता है। ये व्यायाम हर स्तर के लोग कर सकते हैं, चाहे वे लंबे समय बाद व्यायाम करना शुरू कर रहे हों या फिर हर दिन व्यायाम करते हों। आज हम आपको ऐसे ही तीन बॉडीवेट एक्सरसाइज के बारे में बता रहे हैं जिन्हें आपको दो सेट में दस से 15 बार करना होगा।

ब्रिज-
इसमें शरीर के कोर एरिया और पीठ के हिस्से के बीच ऐसी समन्वय करना होता है कि पूरा शरीर एक पुल की आकृति बनाता दिखे। यह वार्मअप के लिए बेहतरीन व्यायाम है। इसे करने के लिए आप पीठ के बल जमीन पर लेट जाएं, घुटने मुड़े रहेंगे और पंजा जमीन पर सीधा रहेगा। दोनों हाथों को जमीन पर सीधा रखें। अब शरीर के कोर एरिया को पैरों की ओर ढकेलने का प्रयास करें। अपने पिछले हिस्से को जमीन से ऊपर तब तक उठाएं, जब तक नितंब पूरी तरह उठ नहीं जाता। अब स्टार्ट पोजिशन में लौटें और व्यायाम को दोहराएं।
लाभ : यह नितंब और नितंब से जांघ के बीच की मांसपेशियों की जकड़न दूर करती है। साथ ही उदर व पीठ पर मांसपेशियों पर भी सकारात्मक असर होता है।

चेयर स्क्वॉट-
कुर्सी के सामने खड़े हो जाएं, दोनों पैर और बांहें खुली रहेंगी और पंजे आशिंक रूप से बाहर की ओर केंद्रित होंगे। शरीर का भार नितंब पर ले जाएं और घुटने को झुका लें। अब निचले हिस्से को इतना नीचे ले जाएं कि वह कुर्सी की सतह को छू जाए। आपके दोनों हाथ सामने की ओर खुले रहेंगे, अब पैर के बल पुशअप करें और रिटर्न पोजिशन में लौटें।

लाभ : यह व्यायाम करने से पैर और शरीर के मुख्यभाग को मजबूती मिलती है जिससे रोजमर्रा की शारीरिक गतिविधियां करने में हम थकावट महसूस नहीं करते।

नी पुशअप-
स्टैंडर्ड पुशअप सीखना चाहते हैं तो नी-पुशअप से शुरूआत करें। इसे करने के लिए घुटने और दोनों हाथों के बल जमीन पर प्लांक की अवस्था में आ जाएं। इसमें शरीर का पूरा हिस्सा हवा में रहेगा और सिर से घुटने तक शरीर एक रेखा में रहना चाहिए। अब अपनी कोहनी मोड़कर खुद को जमीन तक झुकाएं। कोहनी को जमीन से 45 अंश के कोण पर रखें। अब कोहनी को ऊपर ले जाते हुए शरीर को ऊपर ले जाएं। फिर स्टार्ट पोजिशन में लौटें और दोहराएं।

लाभ : यह शरीर की मेटाबोलिक दर बढ़ाता है और हड्डी क्षरण को कम करता है। साथ ही शरीर के कोर एरिया की मांसपेशियां मजबूत होती हैं।

 

                  खाना खजाना / शौर्यपथ / कच्चे आम का नाम लेते ही मुंह में पानी आने लगता है। अक्सर लोगों को लगता है कि कच्चे आम से सिर्फ चटनी और अचार ही बनाए जाते हैं। लेकिन आपको बता दें, इससे अचार और चटनी ही नहीं यह दाल फ्राई को Tangy बनाने का काम भी करता हैं। आप सोच रहे होंगे आखिर कैसे तो चलिए जानते हैं पूजा रॉय से।

कच्चा आम दाल फ्राई-
सामग्री
-अरहर दाल- 1 कप
-कद्दूकस किया कच्चा आम- 2 चम्मच
-हल्दी पाउडर- 1/2 चम्मच
-लाल मिर्च पाउडर- 1/2 चम्मच
-कटा टमाटर- 1
-कटी हुई मिर्च- 2
-करी पत्ता- 10
-कटा प्याज- 1
-लाल मिर्च- 2
-लहसुन की कली- 4
-नमक- स्वादानुसार
-घी- 1 चम्मच

विधि-
प्रेशर कुकर में दाल, नमक, लाल मिर्च पाउडर, हल्दी पाउडर, कटी हुई हरी मिर्च, टमाटर और कद्दूकस किया हुआ आम डालें। दो कप पानी डालकर कुकर बंद करें और तीन से चार सीटी आने तक पकाएं। गैस ऑफ करें और कुकर की सीटी अपने-आप निकलने दें।

कुकर खोलें और दाल को अच्छी तरह से मैश कर दें। एक छोटी कड़ाही में घी गर्म करें और उसमें लाल मिर्च को तोड़कर डालें। अब कड़ाही में प्याज डालें और उसे सुनहरा होने तक भूनें। लहसुन की कलियों को चम्मच या किसी और चीज से हल्का-सा मैश कर दें और उसे कड़ाही में डालें।

एक मिनट बाद तैयार दाल को कड़ाही में डालकर मिलाएं और पांच से सात मिनट तक मध्यम आंच पर पकाएं। अगर दाल गाढ़ी हो गई है तो उसमें थोड़ा पानी डालकर गाढ़ापन एडजस्ट करें। नमक चख लें और किसी सूखी सब्जी और रोटी के साथ इस दाल को सर्व करें।

 

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