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सम्पादकीय लेख /शौर्यपथ / कोरोना के तेज होते संक्रमण के बीच सोमवार को भारत अनलॉक होने की ओर एक बड़ा कदम उठाएगा, अब जितना महत्व जहान का होगा, उससे कहीं अधिक जान का होगा। जहां एक ओर, मॉल खुल जाएंगे, वहीं आधे से ज्यादा धर्मस्थल भी गुलजार हो जाएंगे। रेस्तरां, बाजार में रौनक बढ़ जाएगी, लेकिन यह रौनक तभी सार्थक कही जाएगी, जब संक्रमण काबू में रहेगा। संक्रमण होते ही वह इलाका सील हो जाएगा, लेकिन गौर करने की बात यह है कि अब लगभग सभी सरकारें संक्रमण का जोखिम उठाते हुए भी अर्थव्यवस्था को पटरी पर लाना चाहती हैं। केंद्र सरकार के साथ-साथ उन राज्य सरकारों के लिए भी अनलॉक होना मजबूरी है, जिनका खजाना तेजी से खाली हो रहा है। जिन इलाकों में संक्रमण की रफ्तार तेज है, वहां राज्य सरकारों के पास अधिकार है कि वे किसी भी सीमा तक लॉकडाउन रख सकती हैं।
संपूर्णता में देखें, तो ज्यादातर गांव और शहर अब खुल चुके हैं और आज से जैसे-जैसे सार्वजनिक वाहनों की सड़कों पर वापसी होने लगेगी, वैसे-वैसे चहल-पहल बढ़ती जाएगी। इस बीच लोगों को यह सतत ध्यान रखना होगा कि भारत में प्रतिदिन 10,000 के करीब मामले सामने आने लगे हैं, करीब 7,000 लोग जान गंवा चुके हैं और 2.50 लाख से अधिक संक्रमित हो चुके हैं। इसी में एक सुखद संकेत यह भी है कि करीब 1.20 लाख लोग ठीक हो चुके हैं। बहरहाल, जब हम अपने जहान की चिंता में निकल पड़े हैं, तो सबसे बड़ा यह सवाल लोगों को मथ रहा है कि आखिर कोरोना कब पीछा छोडे़गा? देश के स्वास्थ्य मंत्रालय के दो वरिष्ठ विशेषज्ञ अधिकारियों ने अनुमान लगाया है कि भारत को सितंबर के मध्य में कोरोना संक्रमण से मुक्ति मिलेगी। इन दोनों अधिकारियों, अनिल कुमार और रुपाली रॉय का शोध इपेडिमियोलॉजी इंटरनेशनल जर्नल में प्रकाशित हुआ है। इन आला अधिकारियों ने बेलीज गणितीय प्रणाली का इस्तेमाल करके नतीजा निकाला है कि कोरोना लगभग तीन महीने का मेहमान है। संक्रामक रोगों के प्रभाव के आकलन के लिए प्रचलित इस गणितीय प्रणाली को मोटे तौर पर अगर हम समझें, तो जब संक्रमितों की कुल संख्या ठीक होने व मरने वालों की सम्मिलित संख्या के बराबर पहुंच जाएगी, तब इस बीमारी का अंत होगा। 19 मई को पहली बार इस प्रणाली से की गई गणना के अनुसार, हम उस राह पर 42 प्रतिशत चल चुके थे और अभी कोरोना की यात्रा 50 प्रतिशत ही पूरी हुई है। सितंबर के मध्य में यह यात्रा 100 प्रतिशत पर पहुंच जाएगी और तभी कोरोना का अंत होगा।
अब सवाल यह कि यह गणना कितनी सटीक है? वैसे, वैज्ञानिक-गणितीय गणनाएं अमूमन गलत नहीं होतीं, पर अहम सवाल यह कि इन गणनाओं में इस्तेमाल डाटा कितने पुख्ता हैं? देश में कोरोना-जांच कितनी होनी चाहिए और कितनी हो रही है? कुछ जगहों पर तो कोरोना संक्रमण के हल्के मामलों की गणना ही नहीं हो रही, सिर्फ गंभीर मामले दर्ज किए जा रहे हैं। कुल मिलाकर, यह गणितीय भविष्यवाणी भी हमें परोक्ष रूप से प्रेरित करती है कि हम कोरोना को कतई हल्के में न लें। कोरोना संक्रमण से हरसंभव तरीके से बचें। शंका हो, तो जांच करने-कराने में रत्ती भर कोताही न बरतें। सतर्कता सोलह आना होगी, हमारे आंकडे़ दुरुस्त होंगे, तो हम महामारी को बेहतर ढंग से पटकनी दे पाएंगे।
मेलबॉक्स / शौर्यपथ / धीरे-धीरे देश खुलने लगा है। अर्थव्यवस्था भी पटरी पर आने लगी है। इसी कड़ी में स्कूल खोलने का प्रस्ताव भी है। जब जून-जुलाई में कोरोना संक्रमण के शीर्ष स्तर पर पहुंचने की आशंका हो और संक्रमित मरीजों की संख्या दिनोंदिन बढ़ रही हो, तब बच्चों को स्कूल बुलाने का निर्णय जल्दबाजी भरा और नौनिहालों के लिए घातक हो सकता है। यह कोई छिपा तथ्य नहीं है कि विद्यालयों में तमाम इंतजाम के बाद भी दो गज की दूरी का पालन करना कठिन होगा, खासतौर से छोटे बच्चों को लेकर चिंता ज्यादा है। लिहाजा सरकार को चाहिए कि वह इस संवेदनशील विषय पर पर्याप्त विचार-विमर्श करे और संक्रमण-दर में स्थिरता आने पर ही कोई फैसला ले। जल्दबाजी में किसी भी प्रकार का निर्णय बच्चों के खिलाफ जा सकता है।
शंकर वर्मा, मीत नगर, शाहदरा
मानसून की दस्तक
अर्थव्यवस्था की तमाम मुश्किलों के बीच एक राहत देने वाली खबर है। मानसून दस्तक दे चुका है। उम्मीद है कि इस बार यह बेहतर साबित होगा। कृषि-प्रधान भारत में मानसून का वक्त पर आना और पर्याप्त बारिश का होना अत्यावश्यक है। मगर हर बार की तरह इस साल भी देश ने मानसूनी बारिश से होने वाले नुकसान से बचने की शायद ही तैयारी की है। सैकड़ों टन अनाज खुले में रखे हुए हैं। खेतों में वाटर रिचार्जिंग के प्रति भी सजगता का अभाव दिख रहा है। साफ है, इस बाबत जब तक कोई सख्त कानून नहीं बनेगा, तस्वीर नहीं बदलेगी। वर्षा जल का संरक्षण कई मायनों में हमारे लिए फायदेमंद हो सकता है।
सुभाष बुड़ावन वाला, रतलाम
चीनी उत्पादों के खिलाफ
भारत में चीनी सामान के बहिष्कार की बात हमेशा से की जाती रही है, पर व्यापक स्तर पर इसे कभी अमल में नहीं लाया गया। मगर अब चीनी उत्पादों के पूर्ण बहिष्कार का समय आ गया है। एक तो कोरोना जैसी महामारी को फैलाने का आरोप चीन पर है, और फिर वह भारत से सीमा-संबंधी विवाद में उलझा हुआ है। वह हमारे सामने लगातार बाधाएं खड़ी कर रहा है। ऐसे में, सभी भारतीयों को चीनी उत्पादों के बहिष्कार का प्रण लेना चाहिए। इसका असर जैसे ही चीन के बाजार पर पडे़गा, उसको अपनी हैसियत का अंदाजा हो जाएगा। भारतीय कितने प्रभावशाली हो गए हैं, इसका एहसास इससे भी होता है कि टिक टॉक के खिलाफ भारतीयों की मुहिम के बाद इस एप की रेटिंग गिरकर जमीन पर आ गई थी। चीनी उत्पादों के बहिष्कार के दो फायदे होंगे। एक तो चीन को सबक मिलेगा, और दूसरा, भारत के कुटीर उद्योगों को नई ताकत मिलेगी। इससे लघु उद्योगों से जुड़े हमारे लोगों की स्थिति सुदृढ़ होगी और हमारे देश की अर्थव्यवस्था भी मजबूत होगी।
नीतीश पाठक, औरंगाबाद, बिहार
निजीकरण का नया क्षेत्र
अमेरिकी अंतरिक्ष एजेंसी नासा और वहां की निजी अंतरिक्ष कंपनी स्पेसएक्स के संयुक्त प्रयास से पिछले दिनों अंतरराष्ट्रीय अंतरिक्ष स्टेशन पर दो यात्रियों को पहुंचाया गया। ऐसा पहली बार हुआ, जब किसी निजी कंपनी के रॉकेट से अंतरिक्ष यात्रियों को भेजा गया। यह स्पेसएक्स के लिए बेहतरीन उपलब्धि है। भारत को भी इससे सीख लेनी चाहिए। हाल के दिनों में भारत सरकार ने यह घोषणा की भी है कि अंतरिक्ष अभियानों में इसरो के साथ-साथ निजी कंपनियों को बढ़ावा दिया जाएगा। हालांकि, हम अमेरिका से प्रतिस्पद्र्धा नहीं कर सकते, पर यह एक अच्छी शुरुआत है। प्रतिभा और निवेश का सही उपयोग करके ही कठिन लक्ष्यों को साधा जा सकता है। अंतरिक्ष-खोज कार्यक्रम में भारत को आत्मनिर्भर बनाने और विश्व पटल पर एक स्पेस पावर बनाने की दिशा में यह बेहद सराहनीय प्रयास है। इसका स्वागत किया जाना चाहिए।
ऋत्विक रवि, टैगोर गार्डन, नई दिल्ली
अम्बिकापुर/ शौर्यपथ / मानव कल्याण एवं समाजिक विकास संगठन द्वारा संचालित शोध प्रोत्साहन मंच के तत्वाधान में विश्व पर्यावरण दिवस के परिपेक्ष में ऑनलाइन सेमिनार का आयोजन किया गया जिसका विषय पर्यावरण संरक्षण एवं संवर्धन की सार्थकता पर था । इस आयोजन में छत्तीसगढ़ प्रदेश स्तर की विभिन्न विश्वविद्यालयों एवं महाविद्यालयों के प्राध्यापक, एवं समाज सेवकों के द्वारा व्याख्यान ऑनलाइन माध्यमों से प्रस्तुत किए। व्याख्यान की समीक्षा उमेश कुमार पांडे जी के द्वारा किया गया जिनके अनुसार यह कहा गया कि सभी प्राध्यापकों के द्वारा व्याख्यान के माध्यम से पर्यावरण संरक्षण एवं संवर्धन के संबंध में बहुत सारी महत्वपूर्ण जानकारी दी गई जिनमें एक बात तो सामने आती है जो हम सबको यह बताती है कि वर्तमान समय पूरे पृथ्वी में और पर्यावरण संकट की ओर हम सभी का ध्यान आकर्षित कर रहा है . हमें इसमें संतुलन बनाए रखने के लिए आपसी सामंजस्य व भोग विलास की चीजों का उपयोग उसी आशय पर करें ताकि पर्यावरण संरक्षित व संवर्धित हो सके। इस व्याख्यानमाला में शोध प्रोत्साहन मंच के व्हाट्सएप ग्रुप के अंतर्गत प्राध्यापकों एवं अन्य बाैध्दिक जनों के द्वारा आमंत्रित व्याख्यान व प्रस्तुति के आधार पर उत्कृष्ट प्रस्तुति हेतु सभी को विश्व पर्यावरण दिवस के परिपेक्ष्य में *पर्यावरण मित्र* सम्मान से सम्मानित किया गया एवं यह सम्मान पत्र संगठन के संरक्षक आदरणीय ललित मिश्र जी के द्वारा व्हाट्सएप के जरिए प्रेषित किया गया इस अवसर पर सभी प्राध्यापक गण जो कि व्याख्यानमाला में मौजूद थे सह: सम्मान ऑनलाइन माध्यम से अपना प्रमाण पत्र प्राप्त किये जिनमें डा. ए. के. श्रीवास्तव, श्री अजीत कुमार मिश्रा, डॉ आशुतोष पांडेय डॉ. एम. के. मौर्य, डॉक्टर धर दीवान ,डॉ. स्नेहलता बर्डे, डॉ. अजय पाल सिंह, पत्रकार अमित गौतम, ज्ञानी दास मानिकपुरी, धर्मेंद्र श्रीवास्तव , श्रीमती मनीषा दास, अंचल सिन्हा , श्रीमती अर्चना पाठक, श्रीमती पूनम दुबे, श्रीमती अनीता मंदिलवार, श्रीमती आशा पांडेय , वनवासी यादव, कुंज बिहारी सिंह पैकरा ,बालकृष्ण मेहराेत्रा, पुखराज यादव , कृष्ण शरण पटेल, अमन कुमार गुप्ता के साथ अन्य प्राध्यापक व अधिक चिंतक मौजूद रहे इस अवसर पर संगठन के संस्थापक अध्यक्ष के द्वारा इस कार्यक्रम में सभी की सहभागिता एवं सहयोग के लिए आभार व्यक्त किया गया साथ ही साथ शोध प्रोत्साहन मंच के मार्गदर्शक आदरणीय प्राे. डॉक्टर एस. के. श्रीवास्तव सर एवं प्रदेश संरक्षक आदरणीय ललित मिश्र जी को सह:सम्मान पर्यावरण मित्र सम्मान पत्र प्रदान किया गया । उक्त जानकारी संगठन के संस्थापक अध्यक्ष उमेश पांडेय ने दी ।
ओपिनियन /शौर्यपथ / उत्तर प्रदेश के गाजियाबाद की एक छोटी सी कॉलोनी है कौशांबी। गाजियाबाद विकास प्राधिकरण की इस कॉलोनी की अकेली विशेषता यही है कि यह बिल्कुल दिल्ली की सीमा पर है। सड़कके इस पार कौशांबी है, उस पार दिल्ली के पटपड़गंज और आनंद विहार। आनंद विहार की गिनती दिल्ली के सबसे प्रदूषित इलाकों में होती है और जिन दिनों यह प्रदूषण अपने चरम पर पहुंचता है, तो जिस सबसे नजदीकी रिहाइशी बस्ती को इसका प्रकोप झेलना पड़ता है, वह कौशांबी ही है। इसी कौशांबी में रहने वाला एक शख्स साल 2011 में भ्रष्टाचार के खिलाफ एक बड़ा आंदोलन खड़ा करके रातों-रात राष्ट्रीय परिदृश्य पर छा गया था। आंदोलन का असर इतना ज्यादा हुआ कि कुछ ही महीनों के भीतर जब विधानसभा के चुनाव हुए, तो दिल्ली की जनता ने उस शख्स को मुख्यमंत्री की कुरसी तक पहुंचा दिया।
जब तक उनकी शर्तों के हिसाब से दिल्ली में मुख्यमंत्री निवास का इंतजाम नहीं हो गया, अरविंद केजरीवाल मुख्यमंत्री पद की शपथ लेने के कई दिन बाद तक कौशांबी के अपने फ्लैट से ही काम करते रहे। यानी कुछ दिनों के लिए दिल्ली के मुख्यमंत्री का निवास उत्तर प्रदेश में था। उन दिनों यह भी कहा जाता था कि अरविंद केजरीवाल दिल्ली के पहले अनिवासी मुख्यमंत्री हैं। उनके मुख्यमंत्री बनने से उन दिनों अगर कोई सबसे ज्यादा खुश था, तो कौशांबी के निवासी, क्योंकि उनके बीच का एक शख्स दिल्ली का मुख्यमंत्री बन गया था।
लेकिन अब शायद कौशांबी के यही लोग सबसे ज्यादा निराश भी होंगे। दिल्ली का सबसे ज्यादा प्रदूषण सूंघने वाले इन लोगों के लिए दिल्ली के अस्पतालों के दरवाजे अब बंद हो गए हैं। कोरोना-काल में अरविंद केजरीवाल सरकार ने आदेश जारी करके दिल्ली के अस्पतालों को अब दिल्ली निवासियों के लिए ही आरक्षित कर दिया है। गाजियाबाद ही नहीं, नोएडा, गुड़गांव (अब गुरुग्राम), फरीदाबाद और सोनीपत वगैरह दिल्ली के पड़ोसी जिलों में रहने वाले अब दिल्ली के किसी सरकारी या सरकारी मदद से चल रहे अस्पताल में अपना इलाज नहीं करा सकेंगे, भले ही उन्हें मर्ज दिल्ली से ही क्यों न मिला हो।
पिछले दिनों जब दिल्ली में कोविड-19 का संक्रमण तेजी से बढ़ने लगा, तो हरियाणा और उत्तर प्रदेश की सरकारों ने दिल्ली से लगी अपनी सीमाओं को सील कर दिया। यह ठीक है कि दिल्ली में कोरोना संक्रमण काफी तेजी से फैल रहा है और मुंबई के बाद यह संक्रमण का सबसे घना क्षेत्र बन गया है, लेकिन सिर्फ इसी से पूरी दिल्ली के साथ संक्रमण क्षेत्र जैसा व्यवहार करते हुए सीमाओं को सील करने की काफी आलोचना हुई। यह एक तरह से राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र की उस अवधारणा को भी नकारना था, जिसका लाभ प्रत्यक्ष और परोक्ष रूप से इन दोनों राज्यों को भी मिलता है, लेकिन अब अरविंद केजरीवाल ने इलाज के लिए भी दिल्ली के दरवाजे बंद करके इस अवधारणा को नए रसातल में पहुंचाने की तैयारी कर ली है।
गाजियाबाद, नोएडा, गुड़गांव, फरीदाबाद और सोनीपत में कौन लोग रहते हैं? ये ज्यादातर वे लोग हैं, जो या तो सीधे दिल्ली में काम करते हैं या उनके रोजगार किसी न किसी तरह से दिल्ली से जुड़े हुए हैं। ये हर सुबह दिल्ली पहुंचते हैं, दिन भर उसकी जीडीपी में योगदान देते हैं और शाम को थके-हारे मेट्रो, बस, टैंपो वगैरह में धक्के खाते हुए अपने घर वापस आ जाते हैं। पिछले तीन-चार दशक में दिल्ली के भूगोल में यह गुंजाइश लगातार खत्म होती जा रही है कि वह अपने ऐसे सभी कामगारों, पेशेवरों और कारोबारियों को छत मुहैया कर सके। दिल्ली को उन सबकी जरूरत है, पर वह उनकी आवास जरूरत को पूरी करने की स्थिति में नहीं है। सीमित जगह होने के कारण दिल्ली में जमीन-जायदाद की कीमतें भी इस तरह आसमान पर जा पहुंची हैं कि बहुत समृद्ध लोगों के लिए भी वहां आवास बनाना अब आसान नहीं रह गया है। जो सुबह से शाम तक दिल्ली को समृद्ध बनाने में जुटते हैं, वे कभी ऐसी हैसियत में नहीं पहुंच पाते कि वहां अपना घर बना सकें। ऐसे लोग पड़ोसी जिलों में शरण लेने को मजबूर होते हैं और वहां के ‘प्रॉपर्टी बूम’ का कारण बनते हैं। इसमें कोई नई बात भी नहीं है। दुनिया भर में यही होता है। आगे बढ़ते और तरक्की करते हुए नगर इसी तरह विस्तार पाते हैं और फिर महानगर में तब्दील हो जाते हैं।
यही वे स्थितियां रही होंगी, जिनके चलते कभी अरविंद केजरीवाल को कौशांबी में घर लेने को मजबूर होना पड़ा होगा। दिल्ली के जीवन में उन्होंने अपना योगदान पहले नौकरी करके दिया, उसके बाद एक लोकतांत्रिक जनांदोलन चलाकर और फिर उसकी पूरी राजनीति को बदलकर। दिल्ली में हर रोज आने-जाने वाले बाकी लोगों का योगदान हो सकता है कि किसी को इतना उल्लेखनीय न लगे, पर वे भी योगदान तो देते ही हैं।
बहरहाल, दिल्ली सरकार के ताजा फैसले ने बता दिया है कि जिनके लिए इस शहर के भूगोल में जगह नहीं है, उनके लिए स्थानीय सरकार के दिल में भी जगह नहीं है। यह फैसला उस समय हुआ है, जब लॉकडाउन खुलने के बाद कोरोना वायरस का संक्रमण दिल्ली में काफी तेजी से फैल रहा है और पड़ोसी जिलों के तमाम लोग इस जोखिम के बीच हर रोज दिल्ली जाने और वहां से लौटने को मजबूर हैं। दिल्ली में उनके लिए संक्रमण की आशंकाएं अपने निवास वाले जिले से कहीं अधिक हैं, पर दिल्ली में उनके इलाज की संभावनाएं अब शून्य हो चुकी हैं। दुर्भाग्य यह है कि जिन जिलों में उनका निवास है, वहां चिकित्सा सुविधाएं इसी सोच के साथ बहुत ज्यादा विकसित नहीं की गईं कि पड़ोस में दिल्ली तो है ही, पर अब दिल्ली ने भी हाथ झाड़ लिए हैं।
(ये लेखक के अपने विचार हैं) हरजिंदर, वरिष्ठ पत्रकार
महासमुंद / शौर्यपथ /छत्तीसगढ़ में कांग्रेस के शासन में महासमुंद जिले में बीजेपी नेताओं को क्वारंटाइन सेंटर का जायजा लेना महंगा पड़ गया. बीजेपी अध्यक्ष रूपकुमारी चौधरी समेत 12 पार्टी नेताओं के खिलाफ केस दर्ज किया गया है. साथ ही प्रशासन ने उन्हें होम क्वारंटाइन में रहने को कहा है. मिली जानकारी के अनुसार, बीजेपी अध्यक्ष दो पूर्व विधायकों सहित कुल 12 पार्टी नेताओं की टीम लेकर क्वारंटाइन सेंटर्स की जांच करने पहुंच गईं.
रूपकुमारी चौधरी ने राज्य सरकार पर आरोप लगाया कि क्वारंटाइन सेंटर्स में मजदूरों के लिए व्यवस्था बदतर है. बात मीडिया में आई तो प्रशासन ने क्वारंटाइन सेंटर्स में अवैध प्रवेश का मामला बनाकर सभी बीजेपी नेताओं के खिलाफ FIR दर्ज करवा दी और सभी को होम क्वारंटाइन का हुक्म सुना दिया.
बताते चलें कि कोरोनावायरस के एहतियातन देश के सभी राज्यों में प्रशासन द्वारा क्वारंटाइन सेंटर बनाए गए हैं. दूसरी ओर देश में कोरोना के मामलों में भी लगातार बढ़ोतरी हो रही है. स्वास्थ्य मंत्रालय द्वारा रविवार सुबह जारी आंकड़ों के अनुसार, भारत में इस वायरस से संक्रमित लोगों की संख्या 2,46,628 हो गई है. पिछले 24 घंटों में कोरोना के 9,971 नए मामले सामने आए हैं और 287 लोगों की मौत हुई है.
देश में पहली बार 24 घंटों में इतनी बड़ी संख्या में कोरोना के मामले सामने आए हैं. अभी तक 6,929 लोगों की मौत हो चुकी है, हालांकि 1,19,293 मरीज इस बीमारी को मात देने में सफल भी हुए हैं. रिकवरी रेट में मामूली बढ़ोतरी देखने को मिली है. यह 48.36 प्रतिशत पर पहुंच गया है. 24 घंटों में 5,220 मरीज ठीक हुए हैं.
शौर्यपथ / सरकार ने शुक्रवार को कहा कि कोरोना वायरस महामारी के मद्देनजर इस साल अंतरराष्ट्रीय योग दिवस सोशल मीडिया मंचों के माध्यम से मनाया जाएगा और जनसमूह की मौजूदगी वाला कोई कार्यक्रम नहीं होगा। इस साल के योग दिवस का थीम 'घर पर योग और परिवार के साथ योग है। लोग 21 जून को सोशल मीडिया के माध्यम से सुबह सात बजे से योग दिवस में शामिल हो सकेंगे।
अधिकारियों ने बताया कि विदेशों में भारतीय दूतावास और उच्चायोग भी डिजिटल मीडिया और योग का सहयोग करने वाली संस्थाओं के माध्यम से लोगों तक पहुंच रहे हैं। आयुष मंत्रालय ने पहले लेह में योग दिवस पर बड़े कार्यक्रम की योजना बनाई थी, लेकिन कोरोना महामारी के कारण यह कार्यक्रम उसे रद्द करना पड़ा।
प्रधानमंत्री की ओर से 31 मई को शुरू की गई 'मेरा जीवन, मेरा योग वीडियो ब्लॉगिंग प्रतियोगिता के अलावा आयुष मंत्रालय और भारतीय सांस्कृतिक संबंध परिषद (आईसीसीआर) ने लोगों को योग के बारे में अवगत कराने और योग दिवस में संक्रिय भागीदार बनने के लिए प्रोत्साहित करने का प्रयास किया है।
यह प्रतियोगिता दो स्तरों पर होगी। पहली अंतररराष्ट्रीय वीडियो ब्लॉगिंग प्रतियोगिता के तहत देश के भीतर से विजेताओं का चयन होगा। दूसरी तरफ अलग अलग देशों से वैश्विक विजेताओं का चयन किया जाएगा। इस प्रतियोगिता में शामिल होने के लिए कोई भी व्यक्ति तीन मिनट की योग क्रिया का वीडियो अपलोड कर सकता है। इसके साथ ही इस संदेश के साथ एक वीडियो बनाना होगा कि योग का उसकी जिंदगी पर क्या असर पड़ा है।
आयुष सचिव वैद्य राजेश कोटेचा का कहना है कि प्रतियोगी किसी भी भाषा में योग क्रिया का वीडियो बना सकता है। इस प्रतिोगिता को कुल छह श्रेणियों में बांटा गया है। भारत में हर श्रेणी के पहले, दूसरे और तीसरे स्थान के विजेताओं को क्रमश: एक लाख रुपये, 50 हजार रुपये और 25 हजार रुपये का पुरस्कार दिया जाएगा।
वैश्विक स्तर के विजेताओं को 2500 डॉलर, 1500 डॉलर और 1000 डॉलर का पुरस्कार दिया जाएगा। इसके साथ ट्रॉफी एवं प्रमाण पत्र भी दिए जाएंगे। आईसीसीआर के अध्यक्ष विनय सहश्रबुद्धे का कहना है कि इस वीडियो ब्लॉगिंग प्रतियोगिता से योग के कई पहलू सामने आ सकेंगे। योग सिर्फ एक शारीरिक गतिविधि नहीं, बल्कि इसका शारीरिक एवं मानसिक स्वास्थ्य से संबंध है। इस प्रतियोगिता के तहत लोग फेसबुक, ट्विटर और इंस्टाग्राम पर अपने वीडियो अपलोड कर सकते हैं।
सेहत/ शौर्यपथ / कोरोना वायरस उच्च रक्तचाप से पीड़ित मरीजों पर ज्यादा कहर बरपाता है। चीन में लगभग तीन हजार संक्रमितों पर हुए अध्ययन से पता चला है कि हाई ब्लड प्रेशर की समस्या से जूझ रहे मरीजों में कोरोना से मौत का खतरा दोगुना होता है। जो मरीज रक्तचाप नियंत्रित रखने के लिए दवाओं का सेवन नहीं करते, उनमें तो जान जाने का जोखिम कई गुना और अधिक रहता है।
प्रोफेसर फे ली के नेतृत्व में हुए इस अध्ययन में शोधकर्ताओं ने वुहान के हुओ शेन शान हॉस्पिटल में भर्ती 2886 मरीजों की स्वास्थ्य स्थिति का विश्लेषण किया। इनमें से 29.5 फीसदी यानी 850 मरीज उच्च रक्तचाप की समस्या के शिकार थे। इलाज के दौरान 4 फीसदी यानी 34 मरीजों ने दम तोड़ दिया, जबकि बिना हाइपरटेंशन वाले मरीजों के मौत के आंकड़े पर नजर डालें तो यह 1.1 प्रतिशत ही था।
‘यरोपियन हार्ट जर्नल’ में प्रकाशित शोधपत्र के मुताबिक अध्ययन में उम्र, लिंग और अन्य कारकों को मिलाकर उच्च रक्तचाप के मरीजों में कोरोना से मौत का खतरा 2.12 गुना ज्यादा बताया गया है। वहीं, ब्लड प्रेशर की दवा न खाने वाले संक्रमितों में यह जोखिम 2.17 गुना अधिक मिला है। प्रोफसर ली कहते हैं, अध्ययन के नतीजे उच्च रक्तचाप से जूझ रहे मरीजों के लिए चेतावनी की तरह हैं। सकरी धमनियों के चलते उनमें कोरोना से लक्षण ज्यादा गंभीर हो सकते हैं।
सेहत / शौर्यपथ / आम गर्मियों में लोगों की पहली पसंद है, क्योंकि इसका स्वाद बेहिसाब है। कई लोग गर्मियों में लगभग रोज ही अपने भोजन के साथ आम खाना काफी पसंद करते हैं। आम न सिर्फ खाने में अच्छा लगता है, बल्कि यह स्वास्थ के लिए भी गुणकारी है। डॉ. लक्ष्मीदत्त शुक्ला के अनुसार, आम में भरपूर मात्रा में विटामिन ए, विटामिन बी, विटामिन सी, पोटैशियम और आयरन होता है। इसके अलावा आम में शर्करा भी प्रचुर मात्रा में होती है, जो शरीर में ऊर्जा को बढ़ाने का काम करती है।
विटामिन की मौजूदगी के कारण आम आंखों के लिए अच्छा होता है। साथ ही आम में फाइबर की मात्रा भरपूर होती है, जिससे पाचनशक्ति मजबूत होती है। आम के सेवन से हृदय की बीमारियां भी नहीं होती हैं। आम खाने से शरीर की रोग प्रतिरोधक क्षमता भी मजबूत होती है। आम में एंटी-ऑक्सीडेंट भी काफी मात्रा में होते हैं, इसलिए आम के नियमित सेवन से कैंसर जैसी घातक बीमारियों से भी बचा जा सकता है। लेकिन आम के नियमित सेवन से वजन भी बढ़ सकता है आइए जानते हैं कैसे -
एक सामान्य आम में होती हैं 150 कैलोरी
बहुत कम लोगों को यह भी पता होगा कि आम भी वजन बढ़ाने के लिए जिम्मेदार होता है। दरअसल इसका मुख्य कारण यह है कि आम में कैलोरी बहुत ज्यादा मात्रा में पाई जाती है। एक सामान्य आकार के आम में 150 कैलोरी होती है, जो वजन आसानी से बढ़ा सकती है।
डाइटिंग करते समय आम से करें परहेज
यदि आप डाइटिंग कर रहे हैं और फलों का सेवन कर रहे हैं तो आम को बिल्कुल ही कम मात्रा में लें। क्योंकि आम में काफी मात्रा में शर्करा होने के कारण इससे आपका वजन कम नहीं होगा। वजन कम करने के लिए लो-कैलोरी वाले फल ही खाएं जैसे गर्मी के समय में तरबूज, संतरा, एवोकेडो और सेब आदि फलों के जूस का सेवन करके अपना वजन कम कर सकते हैं।
आम को ऐसे खाएंगे तो नहीं बढ़ेगा वजन
यदि बिल्कुल ही कम मात्रा में आम खाया जाए तो इससे वजन नहीं बढ़ेगा। लेकिन ज्यादा आम खाने से वजन बढ़ने के साथ-साथ इससे सेहत को भी नुकसान हो सकता है। कई लोगों को गर्मी में भोजन के तुरंत बाद आम खाने की आदत होती है, जो कि गलत है। इसके अलावा आम रस शक्कर मिलाकर पीने से बचना चाहिए। चूसने वाले आम को ज्यादा खाना चाहिए क्योंकि इनका टेस्ट खट्टा मीठा होता है और शुगर भी ज्यादा नहीं होती है।
इन बातों की भी रखें सावधानी
आम खाते समय इस बात का भी ध्यान रखना चाहिए कि जो आम आप खा रहे हैं वे किस तरह से पकाए गए हैं। इन दिनों बाजार में कार्बेट द्वारा पकाए गए फल ज्यादा मिलते हैं। कार्बेट एक तरह का रसायन होता है, जिसमें फल पकाने पर इसका दुष्प्रभाव शरीर पर भी हो सकता है। अन्य फल खरीदते समय इस बात का जरूर ध्यान रखें कि वे फल रसायनों के जरिए न पकाए गए हों। डॉ. लक्ष्मीदत्ता शुक्ला के अनुसार, आम के साथ ही इसके पत्ते भी बहुत फायदेमंद हैं। पत्तों से डायबिटीज, कोलेस्ट्रॉल, खांसी, किडनी स्टोन जैसी बीमारियों का इलाज किया जाता है।
खाना खजाना / शौर्यपथ / आलू मेथी हो या आलू बैंगन की सब्जी, भारत में खाना बनाते समय अधिकतर सब्जियों में आलू का इस्तेमाल किया जाता है। सब्जी में आलू डालते ही उसका स्वाद दोगुना बढ़ जाता है। बच्चों से लेकर बुजुर्गों तक को आलू खाना बेहद पसंद होता है। तो देर किस बात की इस लॉकडाउन घर बैठे सीखिए ये कश्मीर डिश, कश्मीरी दम आलू । आइए जानते हैं क्या है कश्मीरी दम आलू बनाने का सही तरीका।
कश्मीरी दम आलू के लिए सामग्री-
-8-10 बेबी आलू
-2 टेबलस्पून सरसों का तेल
-1 चम्मच कश्मीरी लाल मिर्च
-1/2 टीस्पून अदरक पाउडर
-1 टी स्पून गरम मसाला
-3-4 करी पत्ता
-2 दालचीनी
-1 चम्मच जीरा पाउडर
-1 काली इलायची
-1 चम्मच सौंफ पाउडर
-1 टी स्पून मेथी पत्तियां
-कप पानी
नमक स्वादानुसार
बनाने की विधि-
कश्मीरी दम आलू बनाने के लिए सबसे पहले बेबी पोटैटो में चाकू या काटे की मदद से छोटे-छोटे छेद करके उबाल लें। अब एक पैन में तेल गर्म करके उसमें उबले हुए आलू को 10-15 मिनट के लिए बाहर से कुरकुरा होने तक फ्राई कर लें। अब एक दूसरा पैन लेकर उसमें सरसों का तेल डालें। तेल में काली इलायची, दालचीनी और तेज पत्ता डालें। अब पैन में कश्मीरी मिर्च पाउडर और थोड़ा सा पानी डाल दें। इस ग्रेवी में नमक मिलाते हुए तले हुए आलू डालकर उन्हें अच्छे से मिला लें। स्वाद के लिए इस ग्रेवी में अदरक पाउडर, गरम मसाला, जीरा पाउडर, सौंफ पाउडर और मेथी के पत्ते भी डालें। अब इस ग्रेवी को गाढ़ा होने तक पकाएं। कश्मीरी दम आलू बनकर तैयार हैं। इन्हें रोटी या परांठों किसी के भी साथ सर्व किया जा सकता है।
शौर्यपथ / सामुद्रिक शास्त्र में व्यक्ति के कानों के प्रकार के बारे में विस्तृत वर्णन मिलता है। इसके अनुसार मनुष्य के कान अनेक प्रकार के होते हैं। इनमें छोटे कान, अत्यधिक छोटे कान, लंबे कान, चौड़े कान, गजकर्ण कान यानी हाथी जैसे कान, बंदर जैसे कान, मोटे कान, पतले कान, अव्यवस्थित कान आदि।
छोटे कान: सामुद्रिक शास्त्र में छोटे कान के व्यक्तियों को कंजूस की श्रेणी में रखा गया है। ऐसे व्यक्ति धन पकड़कर रखना जानते हैं। स्वयं की जरुरतों पर भी खर्च करने से तब तक बचते हैं जब तक कि अत्यंत जरुरी ही ना हो जाए। ऐसे व्यक्तियों का सामाजिक जीवन कमजोर होता है। इनकी कोई पूछ-परख भी नहीं करता है और ये हर व्यक्ति, हर काम को एक प्रकार की संदेहभरी दृष्टि से देखते हैं। हालांकि कई मामलों में ये भरोसेमंद होते हैं।
अत्यधिक छोटे कान : अत्यधिक छोटे कान के व्यक्ति धार्मिक प्रवृत्ति के माने जाते हैं। धार्मिक कार्यों में बढ़-चढ़कर हिस्सा लेते हैं, लेकिन इसके विपरीत ये लोग धार्मिक कार्यों से ही मोटी रकम बनाते हैं। ये लालची किस्म के होते हैं और किसी को धोखा बड़ी चतुराई से दे सकते हैं। इनका चंचल स्वभाव इन्हें कई बार बड़ी मुसीबतों में डाल देता है।
लंबे कान : लंबे कान परिश्रम के सूचक हैं। जिन व्यक्तियों के कान लंबे होते हैं वे परिश्रमी तथा कर्मठ होते हैं। ये कभी किसी काम में पीछे नहीं हटते और जो काम हाथ में लेते हैं, उसे पूरा करके ही छोड़ते हैं, चाहे उसमें कितनी ही कठिनाइयां आएं। लंबे कान बुद्धिमान व्यक्तियों के होते हैं। ऐसे व्यक्ति किसी भी बात का गहराई से अध्ययन करने के बाद ही अपनी प्रतिक्रिया देते हैं।
चौड़े कान: जिन व्यक्तियों के कान की चौड़ाई उनकी लंबाई की अपेक्षा ज्यादा होती है, वे चौड़े कान कहलाते हैं। ऐसे व्यक्ति भाग्यशाली कहे गए हैं। ये अपनी मेहनत और लगन से जीवन में सभी प्रकार की सुख-सुविधाएं प्राप्त करते हैं। ये लोग हाथ आए किसी भी ऐसे मौके को जाने नहीं देते, जो इनके लिए लाभदायक होता हो। चौड़े कान सफलता के सूचक हैं।
मोटे कान : मोटे कान के व्यक्ति साहसी और सफल नेतृत्वकर्ता होते हैं। ऐसे व्यक्ति मोटिवेशनल स्पीकर, राजनेता या लेखक होते हैं। हालांकि इनका स्वभाव थोड़ा चिड़चिड़ा किस्म का होता है। अगर इन्हें कान के कच्चे होते हैं। ये किसी भी काम को उत्साह के साथ शुरू करते हैं।
गज कर्ण: हाथी के समान बड़े कान शुभता का प्रतीक हैं। हाथी के समान बड़े कान शुभता का सूचक हैं। ऐसे व्यक्ति अपने कार्य में सफल और दीर्घायु होते हैं। ऐसे व्यक्ति समाज में खूब प्रतिष्ठा हासिल करते हैं। ये अच्छे वक्ता के साथ अच्छे श्रोता भी होते हैं। पूरी बात को अच्छे से सुनने के बाद ही अपनी प्रतिक्रिया देते हैं। बड़े अधिकारियों के ऐसे कान होते हैं।
बंदर जैसे कान : बंदर जैसे कान वाले व्यक्ति लालची किस्म के होते हैं। इनकी निगाह हमेशा दूसरों के धन और वस्तुओं पर लगी रहती है। ये अत्यंत कामी और क्रोधी भी होते हैं। इनकी बात पूरी नहीं होती है तो ये क्रोधित हो जाते हैं और मारपीट पर उतारु हो जाते हैं।
खेल / शौर्यपथ / खेल के मैदान में अपने आक्रामक व्यवहार के लिए कई बार मुसीबत का सामना करने वाले दक्षिण अफ्रीका के तेज गेंदबाज कगिसो रबाडा ने कहा कि वह जल्दी गुस्से में नहीं आते, लेकिन गेंदबाज के तौर पर जुनून के कारण वह इस तरह से पेश आते है। इस साल इंग्लैंड के खिलाफ घरेलू टेस्ट सीरीज के आखिरी मैच से 25 साल के इस गेंदबाज को निलंबित (पिछले 24 महीने में चार डिमैरिट अंक होने पर) कर दिया गया था। वह सीरीज के तीसरे मैच में जो रूट का विकेट चटकाने के बाद जश्न मनाते हुए इंग्लैंड के इस कप्तान के काफी करीब पहुंच गए थे।
रबाडा ने इंडियन प्रीमियर लीग की अपनी टीम दिल्ली कैपिटल्स के साथ इंस्टाग्राम चैट में कहा, ''बहुत से लोगों को लगता है कि मैं जल्दी आपा खो देता हूं। मुझे हालांकि ऐसा नहीं लगता, यह सिर्फ जुनून के कारण होता है। इसके अलावा अगर आप छींटाकशी को देखते हैं तो यह खेल का हिस्सा है। हर तेज गेंदबाज ऐसा करता है।''
उन्होंने कहा, ''कोई भी तेज गेंदबाज बल्लेबाज से (खेल के दौरान) अच्छा व्यवहार नहीं करेगा। इसका मतलब यह नहीं है कि आप निजी या परिवार को लेकर टिप्पणी करे।'' रबाडा के निलंबन के बाद दक्षिण अफ्रीका ने उस मैच को गंवा दिया था और इंग्लैंड ने 3-1 से सीरीज अपने नाम की।
इस तेज गेंदबाज को दो डिमैरिट अंक ऑस्ट्रेलिया के खिलाफ 2018 टेस्ट में मिले थे । इसके बाद उन्होंने भारत के सलामी बल्लेबाज शिखर धवन को आउट करने के बाद अपशब्द कहे थे। रबाडा ने कहा, ''आप विकेट का जश्न मनाते हैं, लेकिन मैच के बाद उस खिलाड़ी से हाथ भी मिलाते है और उसके कौशल का सम्मान करते है। ज्यादातर मौके पर मैं उस आक्रामक नहीं होता हूं लेकिन अंतरराष्ट्रीय क्रिकेट हर खिलाड़ी अपना सर्वश्रेष्ठ देना चाहता है।''
दक्षिण अफ्रीका के इस मुख्य गेंदबाज ने कहा, ''कभी-कभी आपकी भावना आपको इसके लिए उकसाती है। मुझे लगता है ऐसे समय में मैं काफी खतरनाक रहता हूं, क्योंकि मैं सोचना छोड़ देता हूं और सब कुछ खुद ब खुद होने लगता है।''
मेरी कहानी /शौर्यपथ /चूंकि गंदगी करना दुनिया का सबसे खराब काम है, इसलिए सफाई करना श्रेष्ठतम। फिर भी दुनियादारी का ऐसा उल्टा विधान है कि गंदगी करने वाला अमीर होता है और सफाई करने वाला गरीब। वह लड़का भी गरीब था और बर्तन धोने का काम करता था। मन भले बहुत न जमा हो, पर धोने में हाथ जम गया था। ढूंढ़ता रहता था, कहीं और धोने की कोई अच्छी नौकरी मिल जाए, तो जेब में दो डॉलर और डलें। एकाध पीढ़ी पहले गुलाम रहे परिवार के इस लड़के की पढ़ाई-लिखाई तो लगभग शुरू होते ही छूट गई थी। संसाधनों से वंचित और आकार में विशाल उसके परिवार में न तो पढऩे का माहौल था और न शिक्षा पर भरोसा। किशोर होते ही लड़के मजदूरी के लिए निकल लेते थे। उस लड़के के साथ भी यही हुआ। एक-एक अक्षर छू-छूकर बमुश्किल पढ़ पाता था, लेकिन अखबार में बर्तन धोने वालों के लिए निकली नौकरियों वाले कॉलम को जरूर देखता था। उस दिन भी उसने कॉलम देखा और निराश हो गया, कुछ भी रुचिकर नहीं था। उसने अखबार को हवा में उछाला और अचानक उसकी नजर एक विज्ञापन पर जा लगी, वहां लिखा था - एक्टर्स वांटेड। उसने अखबार को सुलझाकर थामा, किसी नाटक मंडली को अभिनेताओं की जरूरत है। ऑडिशन चल रहा है। लड़के ने गौर किया, ऑडिशन वाली जगह दूर नहीं थी, तो चलो परख लें किस्मत। एक बार कोशिश करने में क्या बुरा है? और वह ऑडिशन के लिए सही समय पर पहुंच गया। नीग्रो नाटक मंडली थी। ऑडिशन की बारी आई, तो निर्देशक ने उस लड़के के हाथों में एक किताब देकर कहा, 'लो, यह पढ़कर सुना दोÓ।
हाथ में किताब क्या आई, मुसीबत ले आई। एक तो टो-टो कर पढऩा और ऊपर से अंग्रेजी शब्दों का बहामियन उच्चारण। बार-बार कोशिश करते हुए भी बंटाधार हो गया। हाथों से किताब छिन गई, मानो खुशकिस्मती लुट गई। निर्देशक ऐसा भड़का कि उस दुबले-पतले 16-17 साल के लड़के को दरवाजे की ओर धकिया दिया। दुखी लड़के ने पलटकर देखा और फिर सरेआम फटकार का सिलसिला चला, 'दफा हो जाओ यहां से, दूसरों का समय बरबाद करने आए हो? बाहर निकलो, जाओ कुछ और करो, बर्तन धोना या वैसा ही कोई काम पकड़ लो। तुम पढ़ नहीं सकते, तुम बोल नहीं सकते, तुम एक्टर नहीं बन सकते।Ó
लड़के ने अभी पीठ भी नहीं दिखाई थी कि दरवाजा बंद हो गया। अपमान का कोई एक घूंट हो, तो पचा लिया जाए, लेकिन यहां तो सामने जहर का जखीरा ही उलट दिया गया। निर्देशक की बातें दिल पर जा लगीं। गरीब थे, गुलामों का खानदान था, लेकिन कभी किसी ने इतनी बुरी तरह दुत्कारा नहीं था। कला की दुनिया में ऐसी बेरहमी? मैं पढ़-बोल नहीं सकता, मैं एक्टर नहीं बन सकता, यहां तक तो फिर भी ठीक है, लेकिन उस निर्देशक ने यह कैसे कह दिया कि मुझे बर्तन धोने का काम करना चाहिए? मैंने तो वहां बताया भी नहीं था कि मैं यही काम करता हूं। क्या मेरा चेहरा बोल रहा है कि मैं बर्तन धोने वाला हूं? सच है, मैं बर्तन धोता हूं, तो क्या एक्टर नहीं बन सकता?
ऐसा लगा कि यह सवाल आसपास की हवा, पौधे, पेड़, सड़क, घर, भवन, सब पूछने लगे हैं। यह सवाल लड़के के अंदर भी गूंजने लगा और तभी दुनिया में एक महान अभिनेता सिडनी पोइटियर (जन्म 1927) का विकास शुरू हुआ। उस दिन ऑडिशन देकर सिडनी वापस बर्तन धोने पहुंच गए थे। अब जब-जब बर्तन चमकाते, उनका संकल्प भी निखर-उभर आता, एक्टर बनके दिखाना है। सिडनी ने तय कर लिया कि पहले अपनी कमियों को दूर करना है।
फिर स्कूल जाने का सवाल ही नहीं उठता था और न कहीं विधिवत अभिनय सीखना मुमकिन था। जो करना था, खुद करना था। न पैसा, न मौका, न सुविधा। वह जहां बर्तन धोते थे, वहीं एक उम्रदराज वेटर से पढऩा सीखने लगे। काम खत्म करके रोज अखबार पढऩे का अभ्यास तेज हुआ। अपने बहामियन उच्चारण से अलग शुद्ध अमेरिकी उच्चारण की कोशिशें रंग लाने लगीं। सही से पढऩा और अच्छे से बोलना सीखने में बस पांच महीने लगे। छठे महीने में उसी नाटक मंडली में न सिर्फ ऑडिशन कामयाब रहा, बल्कि अगले नाटक में मुख्य भूमिका भी नसीब हुई। नाटक करते-करते फिल्में मिलने लगीं, दुनिया एक्टर के रूप में पहचानने लगी। फिर वह समय भी आया, जब अभिनय की दुनिया का सबसे बड़ा सम्मान ऑस्कर उनकी झोली में आया। 1963 में लिलिज ऑफ द फिल्ड के लिए उन्हें सर्वश्रेष्ठ अभिनेता का ऑस्कर हासिल हुआ। वह यह सम्मान पाने वाले दुनिया के पहले अश्वेत अभिनेता हैं। सिडनी अक्सर अपमान के उस लम्हे को याद करते हैं और यह भी मानते हैं कि वह न होता, तो यह मुकाम भी न होता।
प्रस्तुति : ज्ञानेश उपाध्याय सिडनी पोइटियर प्रसिद्ध अभिनेता, फिल्मकार
जीना इसी का नाम है /शौर्यपथ / वह जिस देश और समाज से आती हैं, वहां बेटे और बेटियों में भले कभी फर्क रहा हो, मगर आज वह दुनिया के सबसे तरक्कीपसंद समाजों में से एक है। अमेरिका की न्यू जर्सी प्रांत में पैदा मैरी रॉबिन्सन की परवरिश एक खुले माहौल में हुई। अपने पापा की बेहद दुलारी रहीं मैरी। उनका परिवार एक अच्छी और खुशहाल जिंदगी जी रहा था। मगर जिंदगी तो सबका इम्तिहान लेती है, सो मैरी के लिए भी उसने कुछ आजमाइशें तय कर रखी थीं।
आज से करीब 46 साल पहले की बात है। तब मैरी की उम्र सिर्फ 14 साल थी। एक रोज उन्हें पता चला कि पिता कैंसर के आखिरी स्टेज पर हैं। और मैरी कुछ समझ पातीं, इसके पहले ही पिता चल बसे। उनके जनाजे में पूरे रास्ते मैरी अपने भाई को पकडे़ खामोश चलती रहीं। उन्हें यह यकीन ही नहीं हो पा रहा था कि डैड अब कभी उनसे बातें नहीं कर सकेंगे। मैरी को गहरा मानसिक आघात लगा था, लेकिन कोई भी उनकी और उनके भाई की जहनी कैफीयत को समझने वाला नहीं था।
मैरी खुद में सिमटती चली गईं। उन्होंने दोस्तों के साथ बाहर खेलने जाना बंद कर दिया, पढ़ाई से भी मन उचट गया, जाहिर है, उनके ग्रेड गिरने लगे थे, वह बात-बात पर झल्ला उठती थीं। मैरी के भाई के व्यवहार में भी काफी बदलाव आ गया था। उन दोनों को उस वक्त किसी ऐसे परिजन या बडे़ स्नेही की जरूरत थी, जो उनके मर्म को छू पाता।इसके उलट उन्हें बिगडे़ बच्चे के रूप में देखा जाने लगा। मैरी कहती हैं, ‘मैं बुरी नहीं, उदास बच्ची थी।’
करीब छह वर्षों तक अपनी पीड़़ा और उदासी से मैरी रॉबिन्सन अकेले ही जूझती रहीं। फिर वह दुखी और अनाथ बच्चों की सहायता करने वाले एक समूह से बतौर वॉलंटियर जुड़ गईं। वहां बच्चों की मदद करके मैरी को काफी सुकून मिलता। फिर उन्होंने एक बड़ा फैसला किया और करीब दो दशक पहले अपनी नौकरी छोड़ दी, ताकि वह गमगीन बच्चों को अपना पूरा वक्त दे सकें। मैरी यह अच्छी तरह जान चुकी थीं कि जब किसी मासूम के मां-बाप, भाई-बहन में से किसी की मौत हो जाती है, तो उसे कितना गहरा सदमा पहुंचता है, इसलिए वह नहीं चाहती थीं कि कोई बच्चा या किशोर-किशोरी वर्षों तक शोक की हालत में रहे।
एक अध्ययन के मुताबिक, अमेरिका में लगभग पचास लाख बच्चे 18 साल से पहले अपने माता-पिता, भाई-बहन में से किसी न किसी प्रियजन को खो देते हैं। और ऐसे बच्चों के अवसाद-ग्रस्त होने, अपना आत्म-विश्वास खो देने या पढ़ाई में पिछड़ जाने का जोखिम सबसे ज्यादा होता है। इन्हीं सबको देखते हुए साल 2011 में मैरी ने एक गैर-लाभकारी संगठन ‘इमैजिंग, अ सेंटर फॉर कोपिंग विद लॉस’ की नींव रखी। इसके जरिए वह किसी अजीज परिजन की मौत के गम से डूबे बच्चों की सहायता करने में जुट गईं।
बच्चों की मदद करने का मैरी का तरीका काफी अनूठा है। इसकी शुरुआत वह एक पिज्जा पार्टी से करती हैं। इससे सबको आपस में घुलने-मिलने का मौका मिलता है और फिर बच्चों के परिवार के सदस्य और संस्था के वॉलंटियर एक घेरा बनाते हैं और एक ‘टॉकिंग स्टिक’ आपस में पास करते हैं। फिर जिसकी बारी आती है, वह अपनी दास्तान सुनाता है कि उसने अपने किस अजीज परिवारी-जन को खोया है। मैरी का मानना है कि शोक से बाहर निकालने में उस व्यक्ति का जिक्र बहुत अहम रोल निभाता है, जो हमसे हमेशा के लिए बिछड़ा है।
बच्चों को लगता है कि हरेक व्यक्ति ने अपने किसी न किसी प्रिय जन को खोया है और यही एहसास असरकारी दवा का काम करता है। मैरी के मुताबिक, हरेक बच्चा, बल्कि किशोर भी, अपने दिवंगत प्रिय के किसी चुटीले वाकये या उनकी जिंदगी की किसी यादगार घटना के बारे में बार-बार सुनना चाहता है। कभी उसकी आंखों से, तो कभी गहरी सांसों के साथ भीतर की पीड़ा पिघलकर बाहर आ जाती है। उम्र के हिसाब से शोकाकुल बच्चों को अलग-अलग समूहों में बांटा जाता है। संगठन के स्वयंसेवी उन्हें मेमोरी बॉक्स जैसी गतिविधियों के जरिए अपनी भावनाएं साझा करने के लिए प्रोत्साहित करते हैं। बच्चे मानो ज्वालामुखी की तरह अपने भीतर के सारे दुख, आक्रोश को बाहर फेंककर शांत हो जाते हैं। मैरी कहती हैं, ‘शोक तो जिंदगी का अटूट हिस्सा है, मगर हमारे बच्चों को कोई नहीं बताता कि वे इससे कैसे उबरें?
इमैजिंग में आने वाले बच्चे जब अपनी मानसिक वेदना से मुक्त होकर अपने दिवंगत परिजन को याद करते हैं, तो मैरी को लगता है कि उनके पिता जहां भी होंगे, जरूर खुश होंगे कि उनकी बेटी ने कुछ अच्छा किया है। उन्होंने अब तक सैकड़ों मासूमों को गहरे शोक से उबारा है। इतना ही नहीं, मैरी अब घूम-घूमकर देश-दुनिया के स्कूलों में शिक्षकों को प्रशिक्षण देती हैं कि शोकाकुल बच्चों के प्रति उनका आचरण कैसा होना चाहिए। इस नेक काम के लिए सीएनएन ने मैरी रॉबिन्सन को पिछले साल ‘हीरो ऑफ द ईयर’ के लिए नामित किया था।
प्रस्तुति : चंद्रकांत सिंह मैरी रॉबिन्सन अमेरिकी सामाजिक कार्यकर्ता
नजरिया /शौर्यपथ / सभ्य समाज में सार्वजनिक स्थानों पर थूकने को कभी अच्छा नहीं माना गया है, लेकिन खेलों में खिलाड़ियों का थूकना आम बात है। फुटबॉल और बेसबॉल खिलाड़ियों को थूकते देखना बहुत आम है, लेकिन कोरोना संक्रमण थूक के छींटे के माध्यम से भी होता है, तो खेल जगत खिलाड़ियों की इस आदत से दहला हुआ है। फुटबॉल और क्रिकेट में खिलाड़ियों के मैदान में थूकने पर एकदम से रोक लगाने पर आजकल बहस चल रही है।
पिछले दिनों रोमानिया फुटबॉल फेडरेशन ने सुझाव दिया कि कोई भी खिलाड़ी मैदान में थूकता पाया जाए, तो उस पर छह से 12 मैचों का प्रतिबंध लगा दिया जाए। इसके अलावा कुछ लोग मैदान में थूकने वाले खिलाड़ी को येलो कार्ड दिखाकर बुक करने का सुझाव दे रहे हैं। इनका मानना है कि बिना सजा इस समस्या से निजात पाना संभव नहीं है। लेकिन विश्व फुटबॉल की संचालक संस्था फीफा को लगता है कि मैच का संचालन करने वाले अधिकारियों के लिए यह पता लगाना संभव नहीं होगा कि कौन खिलाड़ी कब थूक रहा है। इसलिए फीफा रेफरी कमेटी के चेयरमैन कोलिना का कहना है कि लीग या टूर्नामेंट के आयोजक मसविदा बनाएं और थूकने वाले खिलाड़ियों पर मैच के बाद हिसाब से कार्रवाई की जाए। कोलिना कहते हैं कि मैदान में थूकने वाले खिलाड़ी को येलो कार्ड दिखाना थोड़ा अव्यावहारिक भी होगा, क्योंकि एक तो मैच के संचालक के लिए हर घटना पर निगाह रखना संभव नहीं होगा और कुछ पर कार्रवाई करना उनके साथ अन्याय हो जाएगा। फुटबॉल में किसी खिलाड़ी का दूसरे खिलाड़ी पर थूकना रेड कार्ड वाला अपराध है और सामान्य तौर पर थूकने वाले के प्रति इतनी कठोर कार्रवाई उचित नहीं लगती।
क्रिकेट में तेज गेंदबाज गेंद चमकाने के लिए लार का प्रयोग करते हैं। लार से संक्रमण की आशंका बढ़ जाती है। तेज गेंदबाज गेंद के एक हिस्से को चमकाकर गेंद का संतुलन बिगाड़ देते हैं, जिससे गेंद स्विंग होने लगती है। आईसीसी की क्रिकेट समिति ने फिलहाल गेंद पर लार के इस्तेमाल पर रोक लगा दी है, लेकिन उसने तेज गेंदबाजों के मैदान पर थूकने पर कोई प्रतिबंध नहीं लगाया है। आने वाले दिनों में मैदान पर थूकने पर भी पाबंदी की मांग उठ सकती है। समिति के प्रमुख अनिल कुंबले का कहना है कि गेंद पर लार का इस्तेमाल नहीं करना अंतरिम व्यवस्था है, कोरोना की समस्या खत्म होने पर यह प्रतिबंध खत्म हो सकता है।
अब सवाल यह है कि खिलाड़ी मैदान में थूकते क्यों हैं? तमाम अध्ययनों के अनुसार, ज्यादा कसरत या मेहनत करने पर लार में प्रोटीन की मात्रा बढ़ जाती है। खासतौर से म्यूकस की मात्रा बढ़ने से थूक गाढ़ा हो जाता है, जिसे निगलना मुश्किल होता है। ऐसे में, सांस लेने में दिक्कत होने लगती है और थूकने से ही स्थिति सामान्य होती है। क्रिकेट में खिलाड़ियों को लगातार नहीं दौड़ना पड़ता, इसलिए थूकने की समस्या कम होती है। इसमें आमतौर पर तेज गेंदबाज लंबे रनअप की वजह से थूकते मिल जाते हैं। टेनिस खिलाड़ी ब्रेक के समय ड्रिंक के कारण थूकने की समस्या से बचे रहते हैं। थूकने की मजबूरी फुटबॉल में ज्यादा है।
क्या फुटबॉलरों के थूकने पर रोक लगने से उनके खेल पर गलत प्रभाव तो नहीं पड़ेगा? शायद मैच के दौरान खिलाड़ियों का गला तर रखने की व्यवस्था करनी पडे़गी। इसके अलावा खिलाड़ियों को मैदान पर मिलकर जश्न मनाने से बचने की सलाह दी गई है। अक्सर खिलाड़ी खुशी में एक-दूसरे पर कूद पड़ते हैं। मैचों में आमतौर पर दोनों टीमों के कप्तान सद्भाव के तौर पर एक-दूसरे से जर्सी बदलते हैं, इस पर भी रोक लगा दी गई है।
ऐसी समस्याएं अनेक खेलों में आएंगी। खिलाड़ियों द्वारा मिलकर घेरा बनाना बंद हो जाएगा। टेनिस में तो अपनी गेंदें और तौलिया लाने की शुरुआत की जा रही है। सवाल यह है कि इतना सब होने के बाद भी क्या खेलों में पहले जैसा लुत्फ बना रहेगा? पिछले दिनों शुरू हुई जर्मन फुटबॉल लीग के मैच बिना दर्शक खेले जा रहे हैं। इसी तरह इंग्लिश प्रीमियर लीग की भी शुरुआत होने जा रही है। जुलाई में इंग्लैंड और वेस्ट इंडीज के बीच क्रिकेट सीरीज भी बिना दर्शक खेली जानी है। इन हालात में दर्शकों का खेलों के प्रति कितना लगाव बना रहता है, यह भी शायद कोरोना से ही तय होगा।
(ये लेखक के अपने विचार हैं) मनोज चतुर्वेदी, वरिष्ठ खेल पत्रकार